पब्लिक ट्रांसपोर्ट में बैठने पर अक्सर आपने ये लाइन सुनी होगी, ‘थोड़ा एडजस्ट हो जाइए।‘
परिवार में जब भाई को आपसे ज़्यादा आज़ादी और अवसर मिले तो अक्सर घर के बड़े-बुजुर्ग ये सीख देते है, ‘अरे एडजस्ट कर लो। वैसे भी लड़कियों को कम में ही एडजस्ट करना सीखना चाहिए।‘
रिश्ते में जब भी महिला को कमतर होने का अहसास करवाया जाए। उसके सपनों-विचारों को नकारा जाए तो न केवल पूरा परिवार बल्कि पूरा समाज एक सुर में महिला को ‘एडजस्ट करने की सलाह देता है।‘
‘एडजस्ट’ एक अंग्रेज़ी शब्द है, जिसका हिंदी में शाब्दिक मतलब है – ‘समायोजित करना।‘ सरल भाषा में इसे हम ‘सह लो। या सहते रहो।‘ भी कह सकते है। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को बचपन से ही एडजस्ट करने की सीख दी जाती है। जब बड़े भाई की थाली छोटी बहन की थाली से पहले और बेहतर तरीक़े से सजती है, तब बहन की शिकायत पर उसे एडजस्ट करने की सलाह दी जाती है। जब भाई को बहन से बेहतर स्कूल में भेजा जाता है तो बहन को एडजस्ट की सलाह दी जाती है।
जब राह चलते उन्हें यौन उत्पीड़न और अपशब्दों का सामना करना पड़ता है तो उन्हें एडजस्ट करके अपने रास्ते पर ध्यान देने की सीख दी जाती है। काम की जगह पर महिला होने की वजह से जब भुगतान में भेदभाव या कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न हो तो उन्हें एडजस्ट की सलाह दी जाती है, इस हवाले के साथ कि, ‘क्या करोगी हर जगह महिलाओं के साथ यही हाल है। इसलिए एडजस्ट करो।‘ शादी के बाद हर हिंसा को सहना, मतभेदों को झेलना पर मुँह न खोलना वाली सीख के साथ ‘एडजस्ट’ की घुट्टी दी जाती है।
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वास्तव में ‘एडजस्ट एक शब्द नहीं बल्कि अपने आप में एक वाक्य है।‘ (ये लाइन पिंक फ़िल्म के एक डायलाग से प्रेरित है।) वो वाक्य जो महिलाओं कोपितृसत्ता के बताए दायरों में समेटने का काम करता है। उन्हें एक इंसान की बजाय समाज की बनायी महिला की परिभाषा में ढलने को मजबूर करता है।उन्हें हमेशा ये अहसास करवाता है कि वे पुरुषों से कमतर है और हर हालात में समझौता उन्हें करना होगा, सहना उन्हें होगा।
ज़िंदगी के हर पायदान पर और हर पायदान के बाद अगले पायदान पर जाते ही लड़कियों को एडजस्ट की ही सलाह दी जाती है। समय के साथ इस एडजस्ट के मानक या ये कहूँ कि रंग बदलते है, पर मूल एक ही रहता है – एडजस्ट करो।पर अब सवाल ये है कि परिवार में अपनी भूमिकाओं से लेकर पब्लिक स्पेस तक। रिश्ते में अपनी ख़्वाहिशों से लेकर नौकरी और सैलरी तक – हर एडजस्ट के नामपर हमारा समाज महिलाओं का मुँह क्यों निहारता है? क्यों हमेशा ये उम्मीद की जाती है कि महिलाएँ ही सारा एडजस्ट करें। इन तमाम सीखों को देखने बाद कई बार ऐसा लगता है मानो महिला का दूसरा समानार्थी शब्द ही एडजस्ट बन गया है।
‘एडजस्ट एक शब्द नहीं बल्कि अपने आप में एक वाक्य है।‘ वो वाक्य जो महिलाओं कोपितृसत्ता के बताए दायरों में समेटने का काम करता है।
समाज को चलाने के लिए हम अक्सर संतुलन की बात करते है और इस संतुलन की धुरी हमेशा एडजस्ट को मानते है। यानी कि अगर एडजस्ट न होतो समाज में संतुलन नहीं हो सकता है। चलो मान लिया। पर सवाल ये है कि इन संतुलन की परिभाषा और इसके मानको को किसने तैयार किया है? क्या फिर ये मानक बक़ायदा पितरसत्ता में महिला-पुरुष के बीच ग़ैर-बराबरी को बनाए रखने और मालिक-दास के सामंजस्य को पीढ़ीगत ज़ारी रखने के लिए तैयार किया है?
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इस एक शब्द के पीछे की राजनीति इतनी गहरी है कि ये पितरसत्ता की सत्ता को सदियों से न केवल क़ायम किए हुए है बल्कि महिलाओं को अपने एक मज़बूत एजेंट के रूप में इस्तेमाल भी करती है। जब हम लड़कियों को एडजस्ट करना सीखाते है, उसी समय से हम उनके आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान पर सेंध मारना शुरू कर देते है। रिश्ते, समाज, परिवार और विकास के बहाने से हर बार एडजस्ट करने की सलाह महिलाओं को परजीवी लता बनाने का काम करती है। एक ऐसी परजीवी लता जो एक समय के बाद सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने की क्षमता मानो खोने लगती है। क्योंकि एडजस्ट के नामपर उसने कभी कुछ नहीं कहा इसलिए वो पूरी ज़िंदगी कभी भी कुछ कहने का अपना स्पेस क्लेम नहीं कर पाती है।
एडजस्ट की बात और तकनीक महिलाओं को पितरसत्ता के तहत होने वाली हर हिंसा और भेदभाव के लिए अभ्यस्त बनाती है। ये एडजस्ट की ही घुट्टी है जो महिला हिंसा का शिकार महिलाओं को इसके ख़िलाफ़ बोलने से रोकती है। अब अगर हम ये कहते है कि सम-विषम हालातों में सामंजस्य के लिए एडजस्ट करना ज़रूरी है तो मेरा मानना है कि इस एडजस्ट में जेंडर समानता ज़रूरी है। जितना हम महिलाओं और लड़कियों को एडजस्ट करने सीख देते है, उसी बराबर एडजस्ट की सीख हमें पुरुषों को भी देनी होगी।
पर इन सबसे पहले आज जब अपना देश महिलाओं के लिए सुरक्षित देशों की सूची में निचले पायदान पर है, तो ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि हम महिलाओं को सामंजस्य की धुरी वाले एडजस्ट की घुट्टी के बजाय आत्मविश्वास के साथ अपने आत्म-सम्मान के लिए लड़ने और बोलने की सीख दें। उन्हें तैयार करें कि वो बिना किसी डर के सही को सही और ग़लत को ग़लत कह सकें। जिस परिवार, रिश्ते और काम में उन्हें सम्मान न मिले उसे वो ‘ना’ कह सके, बिना इस डर कि समाज उसे बुरी महिला का टैग दे देगा।
ये जो ‘ना’ कहने पर बुरी महिला का टैग देने की परंपरा है न वो अपने आप में बेहद अजीब है, जिसपर चर्चा किसी और लेख पर करूँगीं। तब तक के लिए ‘एडजस्ट’ की घुट्टी को ना कहिए और आत्मविश्वास के साथ अपने आत्म-सम्मान को समझिए।
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