इतिहास तोरू दत्तः विदेशी भाषाओं में लिखकर जिसने नाम कमाया| #IndianWomenInHistory

तोरू दत्तः विदेशी भाषाओं में लिखकर जिसने नाम कमाया| #IndianWomenInHistory

उस औपनिवेशिक समय में अंग्रेज़ी में लिखना एक साहसिक काम था क्योंकि अंग्रेजी साहित्यकारों के द्वारा अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले भारतीयों को बहुत आलोचना का सामना करना पड़ता था। लेकिन तोरू दत्त को गैर-भारतीय भाषाओं में लिखकर उस वक्त में उनकी रचनाओं के लिए जाना गया।

तोरू दत्त का नाम भारत की शुरुआती महिला कवियत्री के रूप में लिया जाता हैं। उन्होंने फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा में विशेषतौर पर काम किया था। इनसे पहले बंगाल से ही ताल्लुक रखने वाले माइकल मधुसून दत्त नाम के एक अन्य भारतीय कवि ने अंग्रेजी में कविता लिखने में अपना हाथ आजमाया था। उस औपनिवेशिक समय में अंग्रेज़ी में लिखना एक साहसिक काम था क्योंकि अंग्रेजी साहित्यकारों के द्वारा अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले भारतीयों को बहुत आलोचना का सामना करना पड़ता था। लेकिन तोरू दत्त को गैर-भारतीय भाषाओं में लिखकर उस वक्त में उनकी रचनाओं के लिए जाना गया।

प्रारंभिक जीवन

तारूलता दत्त, जिन्हे तोरू के नाम से जाना जाता है, उनका जन्म 4 मार्च, 1856 में मानिकटोल्लाह स्ट्रीट, रामबगान कलकत्ता में हुआ था। तारू का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जहां शिक्षा, कला व बहुभाषा ज्ञान पर विशेष जोर दिया जाता था। इनके पिता का नाम गोविंद चंदर था। इनके पिता एक सरकारी मुलाज़िम थे। इनके पिता को कई भाषाओं का ज्ञान था। इनकी माता का नाम क्षेत्रमौनी था। इनकी माँ ने एक अंग्रेजी पुस्तक ‘द ब्लड ऑफ क्राइस्ट’ का बंगाली अनुवाद किया था। तोरू दत्त का कला और साहित्य से पहला परिचय उनके घर में हुआ था। पिता के व्यवसाय के कारण इनका परिवार अक्सर बाहर यात्राओं पर जाता रहता था। साल 1862 में इनके पिता के बड़े भाई की मृत्यु के बाद इनके परिवार ने ईसाई धर्म अपना लिया था। तोरू अपने माता-पिता की तीन संतानों में सबसे छोटी थी। 1865 में मात्र पन्द्रह वर्ष की उम्र में इनके भाई अब्जू की मौत हो गई थी। बेटे की मौत के बाद इनके पिता के भीतर अपनी दोनों पुत्रियों की सुरक्षा को लेकर ज्यादा चिंता होने लगी। वह उनकी बहन अरू और तोरू को बिल्कुल भी अकेला नहीं छोड़ते थे।

उस औपनिवेशिक समय में अंग्रेज़ी में लिखना एक साहसिक काम था क्योंकि अंग्रेजी साहित्यकारों के द्वारा अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले भारतीयों को बहुत आलोचना का सामना करना पड़ता था। लेकिन तोरू दत्त को गैर-भारतीय भाषाओं में लिखकर उस वक्त में उनकी रचनाओं के लिए जाना गया।

साल 1869 में तोरू का परिवार यूरोप रहने चला गया था। इस तरह दत्त बहनें समुद्र के रास्ते यूरोप की यात्रा करने वाली बंगाल की पहली लड़कियां बनीं। इस चार साल के प्रवास के दौरान दत्त परिवार एक साल फ्रांस और तीन साल इंग्लैड में रहा। इस प्रवास के दौरान इन्होनें अपने परिवार के साथ इटली और जर्मनी की भी यात्राएं की। इनके पिता दोनों बेटियों को बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए दृढ़निश्चय थे। ब्रिटेन में महिला शिक्षा की स्थिति अच्छी थी तो उन्होंने इसका फायदा उठाया और अपनी दोनों बेटियों अरू और तोरू को कला, इतिहास, संगीत और भाषा का पूरा ज्ञान कराया। दोनों बहनों को पढ़ने का बहुत शौक था। फ्रेंच भाषा में उनकी बहुत अच्छी पकड़ बन गई थी। फ्रांस के बाद इनका परिवार ब्रिटेन में बस गया था, जहां तोरू ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा के साथ फ्रेंच शिक्षा भी जारी रखी। वहां पर उनकी दोस्ती मैरी मॉर्टिन से हुई थी, जिन्होंने बाद में तोरू के जीवन के बारे में बहुत सी जानकारियां सार्वजनिक की थी। साल 1873 में इनका परिवार दोबारा बंगाल वापस आ गया था।

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साहित्यिक कार्य

तोरू की बंगाली, फ्रेंच और अंग्रेजी भाषाओं पर गहरी पकड़ बन गई थी। इन्होंने दो भाषाओं में कविता लिखने और अनुवाद काम करना शुरू कर दिया था। भारत लौटने के बाद इन्होंने संस्कृत की भी पढ़ाई की थी। मात्र चौहद वर्ष की उम्र में ‘बंगाल पत्रिका’ में इनकी पहली कृति प्रकाशित हुई थी। उन्होंने फ्रांसीसी कवि ‘लेकोंटे डी लिस्ले’ पर एक निबंध लिखा था और उसके बाद एक अन्य फ्रांसीसी कवि ‘जोसेफिन सोलारी’ पर एक निबंध लिखा था। हालांकि इस काम के लिए तोरू दत्त को वो प्रशंसा नहीं मिली जिसकी वह हकदार थीं।

कुछ समय बाद उन्होंने अपनी पहली किताब The Diary of Mlle. D’Arvers लिखी। इस किताब को ‘ The romance of Mlle. D’Arvers’ के नाम से भी जाना जाता है। इस किताब के चित्र इनकी चित्रकार बहन अरू ने बनाए थे। हालांकि 1874 में अरू की सेहत खराब होने के कारण उनकी मौत हो गई थी। यह किताब 1881 के बाद छपी थी, इस किताब की प्रकाशन की गुणवत्ता ज्यादा बेहतर नहीं थी। तोरू ने अपनी बहन की याद में एक कविता भी लिखी थी। ‘अवर कैजुरीआना ट्री’ नामक कविता उन्होंने अपने दोनों भाई-बहन की याद में लिखी थी। यह कविता बचपन की अच्छी यादों का प्रतीक बन गई थी। साल 1876 में इनकी किताब ‘ए शेल्फ ग्लीनेड इन फ्रेंच फील्ड्स’ का पहला प्रकाशन हुआ था। यह फ्रांसीसी कविताओं का अनुवादित संकलन था। यह किताब उन्होंने अपने पिता को समर्पित की थी। इनकी इस किताब को ज्यादा पहचान नहीं मिली पाई। भारत में बहुत से लोग इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे कि यह एक भारतीय महिला का काम है।

बहुत ही कम उम्र में साहित्य की यह समझ और योगदान यह बताता है कि यदि तोरू दत्त ज्यादा समय तक जीवित रहती तो उनकी द्वारा लिखी रचनाओं की एक लंबी सूची होती। अनुवाद, लेखन और अनेक भाषाओं पर उनकी मजबूत पकड़ से उन्होंने विदेशों में नाम कमाया।

बाद में इस किताब ने एम. आन्द्रे थ्यूरिट का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने तोरू की इस किताब की एक सकारात्मक समीक्षा लिखी। 1877 में यह किताब प्रोफेसर डब्यलू. मिंटो के हाथों में पहुंची, जो ‘एक्सामिनर’ के संपादक थे। उनके सहयोगी एडमंड गूज़ उस समय में अच्छे साहित्यिक काम की कमी का ज्रिक कर रहे थे, उसी वक्त उनके हाथों में यह किताब पहुंची। किताब के बारे में पूरी जानकारी के लिए बाद में गूज़ ने तोरू दत्त तक पहुंचने की भी कोशिश की थी। दुर्भाग्य से तोरू दत्त की सेहत उस वक्त बहुत खराब चल रही थी। यह स्पष्ट हो गया था कि वह जल्द ही अपने भाई-बहनों के पास जाने वाली है। फ्रेंच लेखक क्लेरिसे बेडर के प्राचीन भारत की महिलाओं पर लिखे को अनुवाद करने के दौरान उन्हें एहसास होने लगा था कि वह और ज्यादा नहीं लिख पाएगी। खराब सेहत के दौरान हालांकि वह लगातार लिखती और पढ़ती रहती थी। इसी दौरान उन्होंने बेडर को एक पत्र भी लिखा था। जैसे ही तोरू दत्त को उनके साहित्यिक काम के लिए पहचान मिलनी शुरू हुई थी उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। मात्र इक्कीस साल की उम्र में 30 अगस्त 1877 में तोरू दत्त की मृत्यु हो गई थी। इन्हें कलकत्ता के साउथ पार्क स्ट्रीट कब्रिस्तान में दफनाया गया था।

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प्रकाशित काम

तोरू दत्त का साहित्यिक काम उनकी मौत के बाद दोबारा प्रकाशित किया गया। इनके पिता ने बाद में उनके द्वारा किए काम को इकठ्ठा किया और उसे प्रकाशित और प्रचारित करने का ठाना। उनकी पहली किताब A Sheaf Gleaned in French Fields’  को बाद में दो से तीन बार दोबारा प्रकाशित किया गया। इनकी कविताओं को ‘एन्शिंएट ब्लेड्स एंड लीजेंड्स ऑफ हिंदुस्तान’ के नाम से सफलतापूर्वक निकाला गया। जिसकी भूमिका एडमण्ड गूज़ ने लिखी थी। गूज़ के अनुसार इनकी कविता लेखन से अधिक इनके काम की एक मोहक बात यह थी कि वह 19वीं शताब्दी की भारतीय महिला थी। उन्होंने प्रशंसा करते हुए कहा था कि उनको भाषाओं का अतुल्नीय ज्ञान था, मूल निवासी न होकर भी उनकी भाषा को लेकर बहुत गहरी समझ थी। उन्होंने कहा तोरू ने अनपे काम में तथ्यों को भी शामिल किया था। उन्होनें अपनी भावनाओं को बहुत प्रभावशाली तरीके से बिना किसी भावनात्मक मेलोड्रामा के सबके सामने प्रस्तुत किया। अंग्रेजी आलोचकों ने माना है कि ‘अवर कैजुरीआना ट्री’ अंग्रेजी साहित्य में किसी विदेशी द्वारा लिखी श्रेष्ठ कविताओं में से एक मानी गयी। द लोटस, इन बैलेड्स एवं वर्स और अवर कैजुरीआना ट्री उनका सबसे सर्वश्रेष्ठ काम माना जाता है।

बहुत ही कम उम्र में साहित्य की यह समझ और योगदान यह बताता है कि यदि तोरू दत्त ज्यादा समय तक जीवित रहती तो उनकी द्वारा लिखी रचनाओं की एक लंबी सूची होती। अनुवाद, लेखन और अनेक भाषाओं पर उनकी मजबूत पकड़ से उन्होंने विदेशों में नाम कमाया। तोरू दत्त का साहित्यिक काम बेहद दुर्लभ हैं, भाषा भले ही दूसरी हो लेकिन उनके इस काम से उन्होंने भारत के साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है।   

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