इंटरसेक्शनलजेंडर पितृसत्ता में लड़कियों की ट्रेनिंग नहीं कंडिशनिंग होती है| नारीवादी चश्मा

पितृसत्ता में लड़कियों की ट्रेनिंग नहीं कंडिशनिंग होती है| नारीवादी चश्मा

पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में जेंडर का कॉन्सेप्ट व्यापक है जो हर पहलू को प्रभावित कर इंसान को उसके अनुसार व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है जो ट्रेनिंग नहीं कंडिशनिंग का हिस्सा होता है।

कुसुम (बदला हुआ नाम) घर की सबसे लाड़ली बेटी है, क्योंकि वो समाज के बनायी तथाकथित ‘अच्छी लड़की’ के सारे गुण के अनुसार अपनी ज़िंदगी जीती है। शादी के बाद जब कुसुम ससुराल गयी तो चार महीने बाद उसके पति ने उसके साथ मारपीट और गाली-गलौच करना शुरू कर दिया, लेकिन कुसुम ने अच्छी बहु और पत्नी की छवि को क़ायम रखा और कोई विरोध नहीं किया। उसने ससुराल में रहकर अपने हिस्से की ज़िम्मेदारियों को बिना किसी शिकायत के निभाना ज़ारी रखा और ऐसा करके उसने अपने तथाकथित परिवार और रिश्ते को बचा लिया। इसके बाद, पूरे परिवार में कुसुम की वाहवाही होने लगी। सभी कुसुम की माँ को उसे अच्छी ट्रेनिंग देने के लिए तारीफ़ करने लगे। परिवारवालों का कहना था कि, ‘कुसुम के परिवार ने उसकी अच्छी ट्रेनिंग की है। उसे परिवार बसाना और चलाना आता है।‘

ऐसा आपने भी कभी न कभी ज़रूर सुना होगा, जब हिंसा पर चुप रहने वाली, घर-परिवार के नामपर अपने अधिकारों और अस्तित्व को भुला देने वाली महिलाओं को तथाकथित ‘अच्छी महिला’ कहा जाता है। समाज के इस व्यवहार को देखने के बाद प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका सिमोन द बोउआर की बात आज भी बेहद सही और सटीक लगती है जो उन्होंने अपनी किताब ‘द सेकंड सेक्स’ में महिलाओं के संदर्भ में लिखा है कि ‘महिला होती नहीं, बनायी जाती है।‘

वहीं ब्रिटिश समाजशास्त्री व नारीवादी लेखिका ऐना ओक्ले के अनुसार ‘जेंडर’ सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना है, जो स्त्रीत्व और पुरुषत्व के गुणों को गढ़ने के सामाजिक नियम व कानूनों का निर्धारण करता है। उनका मानना था कि जेंडर समाज-निर्मित है, जिसमें व्यक्ति की पहचान गौण होती है और समाज की भूमिका मुख्य। पितृसत्तात्मक समाज में जन्मे बच्चे को जन्म लेते ही जेंडर में बाँटने का काम शुरू हो जाता है। ‘महिला’ और ‘पुरुष’ की भूमिकाएँ, काम, सत्ता का विभाजन और उनके दायरे समाज में बक़ायदा तय की गयी है, जिसके अनुसार हमारा समाज उन्हें व्यवहार करने और ज़िंदगी जीने के लिए प्रेरित और कई बार दबाव भी बनाता है। पर आज हमलोग बात करेंगें ‘ट्रेनिंग’ (जिसे हिंदी में प्रशिक्षण कहते है) और ‘कंडिशनिंग’ (जिसे हिंदी में अनुकूलन कहते है)।

पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना की बात करते है तो वहाँ जेंडर का कॉन्सेप्ट व्यापक होता है जो हर पहलू को प्रभावित कर इंसान को उसके अनुसार व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है जो कभी भी ट्रेनिंग नहीं कंडिशनिंग का हिस्सा होता है।

अक्सर हमलोग कहते है कि समाज लड़कियों और लड़कों को उनके जेंडर के अनुसार व्यवहार करने की ट्रेनिंग देता है। पर वास्तव में हमारा समाज कभी भी इसकी ट्रेनिंग नहीं बल्कि इसकी कंडिशनिंग करता है। अब आप कहेंगें ट्रेनिंग और कंडिशनिंग में फ़र्क़ क्या है? तो आपको बताऊँ – ट्रेनिंग का मतलब किसी काम या व्यवहार के अनुसार ही काम और व्यवहार करने का अभ्यास करना है। वहीं कंडिशनिंग का मतलब है किसी व्यवहार को प्रभावित या नियंत्रित करना और रीति (नियम) विशेष अनुकूलित करना है।

इसे हमलोग एक साधारण उदाहरण से समझ सकते है – जैसे अपने समाज में लड़कियों को हमेशा ये कहा जाता है कि – ‘लड़कियों का काम पैसे कमाना नहीं है।‘ इसलिए बचपन से ही लड़कियों के रोज़गार की बजाय उन्हें परिवार संभालने और घर के काम के लिए तैयार किया जाता है। उन्हें घर-घर खेलने वाले खिलौने और गुड़िया की शादी वाला खेल खेलना सिखाया जाता है। पर ऐसा नहीं है कि ये सीख सिर्फ़ हमारे घर और खेल तक ही सीमित रहती है, बल्कि हमारी किताबों की कविताओं और कहानियों में भी ‘महिलाएँ रसोई में काम करती और पुरुषों को पैसा कमाने वाला दिखाया जाता है।‘ मम्मी की रोटी गोल और पापा का पैसा गोल वाली कविता याद करवायी जाती है। इसके बाद जब हम अपने पहनावे पर आते है तो लड़कियों के उपलब्ध कपड़े भी ऐसे डिज़ाइन किए जाते है, जिसमें जेब नहीं होती फिर वो फ़्रॉक हो, स्कर्ट हो या साड़ी हो। कपड़ों में जेब का ना होना सोते-जागते, दिन-रात कभी भी ये अहसास भी नहीं होने देता कि उन्हें भी पैसे रखने या कमाने है। घर की सीख से लेकर किताबों में पढ़ाई जानी कविताओं से कहानियों तक और यहाँ तक कि पहनावे की डिज़ाइन तक, पूरी सामाजिक संरचना लड़कियों के रोज़गार की तरफ़ कदम बढ़ाने और पैसे कमाने के विचार से भी दूर रखती है, उनके व्यवहार कदम-कदम पर उन्हें नियंत्रित करती है। यही कंडिशनिंग है।

और पढ़ें : ‘जेंडर’ से बनाई जाती है महिलाएं

जब हम पितृसत्ता में लड़की-लड़का बनाए जानी वाली प्रक्रिया पर बात करते है तो हमें इस पूरी प्रक्रिया के हर पहलू को समझना है। अब जब हम प्रक्रिया को समझने की बात कर रहे है तो इस प्रक्रिया के हर चरण और शब्द को समझना भी ज़रूरी है। इसलिए जब हम एक बड़ी पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना की बात करते है तो वहाँ जेंडर का कॉन्सेप्ट व्यापक होता है जो हर पहलू को प्रभावित कर इंसान को उसके अनुसार व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है जो कभी भी ट्रेनिंग नहीं कंडिशनिंग का हिस्सा होता है।

इसके साथ ही, हमें ट्रेनिंग और कंडिशनिंग के प्रभाव को भी समझना होगा। ट्रेनिंग की अपनी एक समय-सीमा और निर्धारित विषय होते है, इसलिए इसका प्रभाव बहुत सीमित होता है। क्योंकि ये एक समय तक ही अभ्यास में होता है। पर जब हम कंडिशनिंग की बात करते है तो ये सामाजीकरण का हिस्सा है, जिसका प्रभाव ज़िंदगीभर इंसान के साथ होता है, क्योंकि ये सीख से ज़्यादा व्यवहार का हिस्सा होता है। ये कंडिशनिंग की प्रक्रिया ज़िंदगीभर चलती रहती है, इसलिए इसका प्रभाव कभी भी कम नहीं होता, क्योंकि इस कंडिशनिंग में सिर्फ़ इंसान ही नहीं बल्कि हमारे आसपास का वातावरण, माहौल और पूरी संरचना इसका हिस्सा होती है।

इसलिए अब से ‘समाज लड़के या लड़कियों की ट्रेनिंग करता है’ की बजाय  ‘समाज लड़के या लड़कियों की कंडिशनिंग करता है’ – ये कहना शुरू करिए और याद रखिए कि अगर कुसुम को अपने जेंडर के अनुसार व्यवहार करने की ट्रेनिंग दी गयी होती तो अपने साथ होने वाली हिंसा को वो कभी भी बर्दाश्त नहीं करती है। पर लगातार परिवार और समाज की तरफ़ से चुप रहकर सब सहने वाली ‘अच्छी लड़की’ के तमग़े ने उसे तथाकथित अच्छी बनाए रखा, जो ट्रेनिंग नहीं बल्कि कंडिशनिंग है।

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तस्वीर साभार : thewire.in

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