28 नवंबर 2021 को ‘घरे-बायरे’ नाम के चर्चित संग्रहालय-प्रदर्शनी को बंद कर दिया गया। यह प्रदर्शनी दो साल पहले शुरू हुई थी जो लगभग दो शताब्दियों से भी अधिक समय के बंगाली कलाकृतियों को उतने ही पुराने मकान के भीतर समेटे हुए थी। घरे-बायरे शब्द रबिन्द्रनाथ टैगोर के प्रतिष्ठित उपन्यास के शीर्षक से लिया गया नाम है जिसका अर्थ है ‘घर और बाहर।’ इस शीर्षक से प्रभावित होकर मशहूर फिल्म निर्माता सत्यजीत रे ने अपनी एक फ़िल्म का नाम भी ‘घरे-बायरे’ रखा था। यह प्रदर्शनी दाग म्यूज़ियम्स, जो कि एक निजी इकाई है, के द्वारा नेशनवाइड गैलरी ऑफ़ ट्रेंडी आर्टवर्क और भारतीय पुरातत्व विभाग के सानिध्य में लगाई जाती थी। इस साल दाग म्यूज़ियम के साथ घरे-बायरे संग्रहालय के लिए मंत्रालय का कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो रहा था जिसे उन्होंने रिन्यू नहीं कराने का निर्णय लिया है, परिणामस्वरूप इतिहास और संस्कृति से रूबरू कराने वाला यह संग्रहालय अब हमेशा के लिए बंद कर दिया गया है।
अनेक प्रदर्शनियों के माध्यम से यह संग्रहालय बंगाल में कला और संस्कृति के क्रमागत विकास को रेखांकित करता था जिसमें यूरोप से आनेवाले यात्रियों से लेकर यहां स्थापित शुरुआती औपनिवेशिक आर्टवर्क कॉलेजों और यहां के मूल निवासियों के प्रतिरोध और अभिव्यक्ति, औपनिवेशिक संस्कृति और परंपरा के आरोपण के ख़िलाफ़ प्रतिरोध से उपजे पुनर्जागरण आंदोलन और आधुनिकतावाद की लहरों की छाप को समेटे हुए था। बंगाली कलाकृति और संस्कृति पर पब्लिक डोमेन में इतनी परिपूर्ण प्रदर्शनी जो प्राचीन दृष्टि लिए हुए हो, किसी और संग्रहालय में नहीं मौजूद है।
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घरे-बायरे यूरोपीय कलमकारी पर काम करनेवाले लोगों, कलाकृति की विभिन्न प्रवृत्तियों और कलाकारों, कालीघाट और प्राचीन बंगाली आर्टवर्क, चित्रकारी, छाप और तैल और ऐक्रेलिक चित्रों सहित मूर्तियों सहित मिश्रित प्रदर्शनी लगाती थी और इनके बारे में गहन नोट्स अंग्रेज़ी और बंगाली भाषा में लगाए गए थे। इस संग्रहालय का गलियारा और आंगन वर्कशॉप के रूप में इस्तेमाल किया जाता था जो इसे शहर के भीतर मौजूद गतिशील सांस्कृतिक क्षेत्र बनाता था।
किसी भी शहर के लिए संग्रहालयों, पुस्तकालयों और ऐतिहासिक स्थलों के बहुत गहरे मायने होते हैं। ये ऐसी जगहें हैं जिनसे न केवल उस शहर की भौतिक बनावट और उस प्रक्रिया में आए अवरोध समझने में मदद मिलती है बल्कि किसी शहर की वैचारिकी और उसके निर्माण प्रक्रिया के बारे में और उन संघर्षों के बारे में चरण दर चरण जानकारी मिलती है, जो बचे रहने की प्रक्रिया में शहर ने झेले हैं। यायावरी-आवारगी सीरीज़ के तहत अपनी यूरोप यात्रा पर ‘आज़ादी मेरा ब्रांड‘ उपन्यास लिखन वाली अनुराधा बेनीवाल बर्लिन संग्रहालय का ज़िक्र करती हुए कहती हैं, ”इस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया कि कैसे एक समाज इस तरीक़े से ‘सेल्फ़-क्रिटिकल’ हो सकता है। बर्लिन संग्रहालय हिटलर के ज़माने में समाज द्वारा यहूदियों के ख़िलाफ़ हुए अमानवीय व्यवहार को बयान करता है। यह निर्भीकता से हिटलर और उसके अनुयायियों को ‘वहशी’ बताता है। इस संग्रहालय को ‘सामूहिक माफ़ी’ के उद्देश्य से बनाया गया है।
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अब आप सोचिए, अगर वह संग्रहालय बंद कर दिया जाए तो क्या कभी दुनिया के लोगों को यह मालूम पड़ेगा कि एक देश जहां किसी समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ इतनी बर्बरता हुई थी, वह अपने पूर्वजों के अमानवीय व्यवहार पर इस क़दर शर्मिंदा है। साथ ही, यह भी कि आने वाली पीढ़ियों के लिए यह संग्रहालय राष्ट्रवाद की क्रूर और बर्बर समझ से भिन्न राष्ट्रप्रेम की परिभाषा को दूसरे सिरे से व्याख्यायित करता रहेगा। अब जर्मनी में भले कैसी ही सरकारें आ जाएं, राष्ट्रवाद के नाम पर भले ही कितनी वहशत भरने की कोशिश की जाए, वह संग्रहालय लोगों के लिए मानवता का संदेश लिए सदैव मौजूद रहेगा।
किसी भी शहर के लिए संग्रहालयों, पुस्तकालयों और ऐतिहासिक स्थलों के बहुत गहरे मायने होते हैं। ये ऐसी जगहें हैं जिनसे न केवल उस शहर की भौतिक बनावट और उस प्रक्रिया में आए अवरोध समझने में मदद मिलती है बल्कि किसी शहर की वैचारिकी और उसके निर्माण प्रक्रिया के बारे में और उन संघर्षों के बारे में चरण दर चरण जानकारी मिलती है, जो बचे रहने की प्रक्रिया में शहर ने झेले हैं।
हालांकि, हमारे अपने देश में स्थितियां इससे एकदम ठीक उलट हैं। हम अभी अति-राष्ट्रवाद के उसी दौर से जूझ रहे हैं, जहां कभी जर्मनी रहा होगा। यहां एक ओर संस्कृति और परंपरा को लेकर बहसें छिड़ी हुई हैं लेकिन अपने आज के बनने की प्रक्रिया को जानने, समझने और इतिहासबोध और साझी संस्कृति को लेकर शून्यता है। यहां आपको रोज़ टीवी चैनल पर राम राज्य- पावन संस्कृति या हिन्दू संस्कृति के हिमायती चीख़ते-चिल्लाते धर्म के ख़तरे में होने की बात करते मिल जाएंगे लेकिन संग्रहालयों के बंद होने, उनके निजीकरण और ऐतिहासिकता के ह्रास पर बात करने वाला कोई नहीं मिलेगा।
इसे हमारी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक उदासीनता ही कहा जाएगा जिसमें हम अपनी धरोहरों और इतिहास को लेकर जागरूक नहीं हैं। इसी साल 28 अगस्त को जलियांवाला बाग काम्प्लेक्स के नवीनीकरण का उद्घाटन प्रधानमंत्री ने किया था। यह ऐसा स्थान है जहां हमें औपनिवेशिक दौर की ज्यादतियों की झलक मिलती है, हम पराधीनता के उन दिनों से दो-चार करते हैं, जब शांत प्रतिरोध भी अपराध हुआ करता था। यह सरकार उस स्थान को जलसाघर बनाकर फॉउंटेनशो करवा रही है, जैसे यह कोई जश्न मनाने की बात हो।
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दरअसल, वर्तमान सरकार कल्चरल कॉन्शयिसनेस का बेहद भोंडा विचार लेकर चल रही है, जिसमें बहुसंख्यक समुदाय और संस्कृति के धार्मिक स्वरूप को ही राष्ट्रीय स्वरूप बनाने की कोशिश की जा रही है। इसमें प्रतीकात्मक रूप से भी एक ही समुदाय के चिह्नों को स्थापित किया जा रहा है। इसके बरक्स मौजूद सभी धरोहरों, चिह्नों, प्रतीकों को लेकर उदासीनता है। लाल किले से लेकर ताजमहल के इतिहास और संस्कृति को लेकर किए जाने वाले दावे इसी श्रेणी में हैं। इसी क्रम में एक उदाहरण भारत की सबसे पुराने और बड़े पुस्तकालयों में से एक मोती लाल नेहरू म्यूनिसिपल लाइब्रेरी-अमृतसर को हेरिटेज टाउनहॉल बिल्डिंग से हटाकर सिविल लाइन्स में शिफ़्ट करना है। दरअसल, जगहों और स्थानों की अपनी महत्ता होती है। वर्तमान में यह पुस्तकालय पार्टीशन म्यूज़ियम के पास है और शहर के केंद्र में स्थित है जिससे यह लोगों के लिए साध्य है। वे लोग जो समाचार पत्र नहीं खरीद सकते या किताबें नहीं खरीद सकते, यहां आकर पढ़ते हैं। यहां क़रीब 20000 किताबों, जर्नल, दुर्लभ दस्तावेज़, हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू और पंजाबी में समाचार पत्र उपलब्ध हैं जिससे देश के दूसरे भागों से आनेवाले लोग भी यहां पहुंचकर इन चीज़ों को पढ़-देख सकते हैं।
घरे-बायरे का बंद होना कोई अपवाद नहीं है। इस दौर में अपनी सांस्कृतिक विरासतों, धरोहरों और अपने इतिहास को जानने समझने की इच्छा को दबाने का एक चलन शुरू हो गया है। किंचित ही सरकार न चाहती हो कि लोग और आनेवाली पीढियां अपने इतिहास से, मूल निवासियों से, उनकी जीवन पद्धतियों से, प्रतिरोधी स्वरों और प्रतीकों से परिचित हो।
इस बारे में यहां के स्थानीय डॉक्टर अतुल भास्कर बताते हैं कि इस शहर के सारे सार्वजनिक पुस्तकालय बन्द हो चुके हैं ऐसे में पाठकों के लिए यह एकमात्र स्थान बचा हुआ है। सोशिओ लीगल लिटरेरी की एक वीडियो रिपोर्ट में यहां की रीडर हरलीन बताती हैं कि इस सरकार की ओर से रखरखाव के लिए कोई मदद नहीं मिलती। साल 2020 में इस पुस्तकालय ने 100 साल पूरे किए थे जिसकी बरसी के उपलक्ष्य में इसके ‘रिनोवेशन’ का मैप दिखाया गया था। हालांकि यहां न तो पंखे लगवाए गए थे, न ही पानी पीने की सुविधा है, यहां तक कि औरतों के लिए वॉशरूम भी नहीं है। इस तरह से, सरकारी महकमा और अपनी धरोहरों को लेकर सरकार की जागरूकता देखते ही बनती है, जो एक ओर जलियांवाला बाग को जलसाघर बनाकर पेश कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ इतनी पुरानी लाइब्रेरी में बुनियादी ज़रूरतें भी स्टाफ़ के लोग अपने प्रयासों से पूरे कर रहे हैं। उसको लेकर न किसी को कोई चिंता है न कोई जागरूकता। यह सब चुनाव में मुद्दा बनने भर की हैसियत भी नहीं रखते।
इस तरह, हम देखते हैं कि घरे-बायरे का बंद होना कोई अपवाद नहीं है। इस दौर में अपनी सांस्कृतिक विरासतों, धरोहरों और अपने इतिहास को जानने समझने की इच्छा को दबाने का एक चलन शुरू हो गया है। किंचित ही सरकार न चाहती हो कि लोग और आनेवाली पीढियां अपने इतिहास से, मूल निवासियों से, उनकी जीवन पद्धतियों से, प्रतिरोधी स्वरों और प्रतीकों से परिचित हो। इन सब के बरक्स यह अपनी एक वैकल्पिक सांस्कृतिक छाप छोड़कर अपना फैलाया हुआ झूठ सच बनाना चाहते हैं।
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तस्वीर साभार : India Blooms