कंचन गोरखपुर के एक अति पिछड़े गांव से हैं जहां लड़कियों को ज्यादा पढ़ाया नहीं जाता, जहां लड़कियों को कुछ भी सिखाना सही नहीं समझा जाता। उनके हर काम को उनकी आनेवाली शादीशुदा जिंदगी से जोड़कर देखा जाता है और कहा जाता है, “क्या करेगी कुछ सीख कर।” लेकिन कंचन सुबह-सुबह उठकर घर का सारा काम करके 5 बजे मार्शल आर्ट और डिफेंस की ट्रेनिंग लेने जाती है। कंचन और ऐसे करने वाली बहुत सारी लड़कियां हैं। हालांकि अब भी कई लड़कियां सीखने नहीं आतीं।
धीरेंद्र प्रताप जो पूर्वांचल सेना के अध्यक्ष हैं बताते हैं कि उनके काम का अहम हिस्सा है जेंडर आधारित भेदभाव को खत्म करना और यह काम पूर्वांचल युद्ध अकादमी मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग देकर करती है। धीरेंद्र बताते हैं कि उन्होंने इस अकादमी की शुरुआत साल 2010 में गोरखपुर शहर से की थी। धीरे-धीरे कुछ लड़कियां जो गांव से शहर में आकर ट्रेनिंग लेती थीं वह बताने लगी थी कि उनके क्षेत्र में इस तरह की समस्या है, यौन हिंसा भी बहुत होती है, कभी जेंडर तो कभी जाति के आधार पर दबाया जाता है। धीरेंद्र इन लड़कियों से मिले और जाना कि यह एक दिन में अचानक से होनेवाली घटना नहीं है। लड़के महीनों से, हफ्तों से लड़कियों के पीछे पड़े रहते हैं पर वे किसी को बताती नहीं हैं, कुछ आवाज़ नहीं उठाती जिसके पीछे कई वजहे हैं। उन्हें डर होता हैं कि अगर वे बताएंगी तो घर वाले उल्टा पढ़ाई छुड़वा देंगे, ट्यूशन छुड़वा देंगे। यही वजह होती है कि वे सहती चली जाती हैं।
जैसे-जैसे वे सहती चली जाती हैं वैसे-वैसे लड़कों का मनोबल बड़ता है और बात यौन हिंसा तक पहुंच जाती है। इसीलिए पूर्वांचल सेना ने गांव में आकर ट्रेनिंग देना शुरू किया जहां एक घंटे की क्लास में 15 मिनट लड़कियों को सामान्य ज्ञान के साथ-साथ महिला अधिकार, उनसे जुड़े तात्कालिक विषयों पर सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के कार्यों और उनकी भागीदारी पर चर्चाएं कराते हैं जिससे उनके अंदर तत्कालिक मुद्दों पर समझ और बहस की क्षमता के साथ ज्ञान का विकास भी होता है।
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धीरेंद्र बताते हैं कि बहुत सारी लड़कियां सामाजिक और शारीरिक रूप से कमजोर हैं। इसके साथ ही सामाजिक माहौल जिस तरह का है वह लड़कियों को आसानी से आगे बढ़ने नहीं देता। खासतौर पर गांव में हालात बेहद खराब हैं। शिक्षा के मामले में वह बताते हैं कि गांव में ज्यादातर लड़कियां बारहवीं तक पढ़ती हैं और जैसे-जैसे वे पिछड़े इलाकों में बढ़ते हैं वहां लड़कियों को प्राइमरी तक ही पढ़ने दिया जाता है। इस मिशन के तहत उन्होंने 200 से ज्यादा लड़कियों का दाखिला गोरखपुर यूनिवर्सिटी में करवाया है। साथ ही उन्होंने बताया कि गांव में ज़मीन के विवाद में लड़कियों और छोटी बच्चियों का बलात्कार मामूली हो गई है। स्थिति इतनी खराब है कि कई लड़कियों के साथ दोबारा बलात्कार किया जा रहा है तो कई घरों में 2 -3 बलात्कार पीड़ित बच्चियां हैं। स्थिति में थोड़ा बहुत सुधार हो इसलिए उन्होंने गांव-गांव जाकर सिखाना शुरू किया क्योंकि लड़कियों को ज्यादा दूर घरवाले भेजते नहीं हैं।
कंचन गोरखपुर के एक अति पिछड़े गांव से हैं जहां लड़कियों को ज्यादा पढ़ाया नहीं जाता, जहां लड़कियों को कुछ भी सिखाना सही नहीं समझा जाता। उनके हर काम को उसकी आनेवाली शादीशुदा जिंदगी से जोड़कर देखा जाता है और कहा जाता है, “क्या करेगी कुछ सीख कर।” लेकिन कंचन सुबह-सुबह उठकर घर का सारा काम करके 5 बजे मार्शल आर्ट और डिफेंस की ट्रेनिंग लेने जाती है। कंचन और ऐसे करने वाली बहुत सारी लड़कियां हैं।
इस मिशन को ‘स्वास्थ्य-सुरक्षा-रोजगार’ का नाम दिया गया है। धीरेंद्र बताते हैं कि लड़कियां शारीरिक और आर्थिक रूप से कमजोर हैं इसलिए हमने डाइट प्लान भी शामिल किया है। वह कहते हैं कि गांव के खाने से ही संपूर्ण आहार मिल जाता है अगर समय से खाया जाए, लेकिन फिर भी उन्होंने चने जैसे आहार को बच्चों के लिए शामिल किया है। वह बताते हैं कि मार्शल आर्ट सिखाने का यह मतलब नहीं हैं कि लड़कियां सभी को मारने लगेंगी लेकिन इससे उनके अंदर एक आत्मविश्वास आ जाता है। वे बोलती हैं, शोषण के खिलाफ आवाज उठाती हैं। धीरेंद्र क्योंकि स्वंय मार्शल ब्लैक बेल्ट रह चुके हैं इसलिए वह 2-3 महीने की ट्रेनिंग में लोगों को इतना तैयार कर देते हैं कि वे आसानी ने बेसिक ट्रेनिंग दूसरी लड़कियों को देने लगते हैं।
इस योजना के तहत मार्शल आर्ट का नैशनल कैंप कराया जाता है, टूर्नामेंट में भेजा जाता है। कई ऐसे लड़के और लड़कियां हैं जो टूर्नामेंट में जाते हैं और जीतते भी हैं। जो बाकि लोगों के सामने एक आदर्श के रूप में सामने आते हैं। उन्हें ऐसा महसूस नहीं होता कि ट्रेनिंग बेकार जाएगी और वे दूसरों को फिर आकर सीखने के लिए प्रेरित करते हैं। कई लड़कियों से बात करने के बाद हमें पता चला कि बहुत सी लड़कियां ऐसी हैं जो ट्रेनिंग नहीं लेती हैं क्योंकि परिवार उन्हें जाने नहीं देता। शिखा, रेखा और कंचन बताती हैं कि पहले जब वे सीखने आती थीं तो गांव वाले बातें बनाते थे। हालांकि अब वे पहले से कम बोलते हैं। वे कहती हैं, “जब हमारे घरों में कोई दिक्कत नहीं है किसी को तो हमें दूसरों से क्या मतलब।” इन लड़कियों को सिखाने के पीछे गायत्री, अर्पिता और पिंकी जैसे ट्रेनर के संघर्ष का नतीजा है।
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गायत्री इस समूह से शुरू से जुड़ी रही हैं। उनके साथ अर्पिता श्रीवास्तव, पिंकी भारती भी साल 2010 से इस संगठन में काम रही हैं। अब तक जो उपलब्धि इस संगठन ने हासिल की है उसके लिए सभी ने काफी मेहनत और संघर्ष किया है। सभी ने एक साथ फिजिकल एजुकेशन में बी.पी.एड और एम.पी.एड किया है। साल 2014 में भीमराव आंबेडकर नेशनल चैंपियनशिप में प्रथम स्थान के साथ इन्होंने गोल्ड मेडल जीता जिसका आयोजन दिल्ली में किया गया था। इसके अलावा इन्होंने डिस्ट्रिक्ट लेवल के कई टूर्नामेंट में भाग लिया और जीत भी हासिल की। स्कूल, कॉलेज, इंटर कॉलेज में अब तक लगभग 12,000 लोगों को मार्शल आर्ट और डिफेंस ट्रेनिंग भी ये तीनों दे चुकी हैं।
गायत्री बताती हैं, “जब हम इस संगठन से जुड़े थे तब हमने महसूस किया कि बहुत सारी लड़कियां शहर में आकर ट्रेनिंग नहीं ले पा रही हैं जिसके पीछे की सबसे बड़ी वजह सामाजिक दवाब था जिसके कारण लड़कियों के मां बाप उन्हें नहीं भेजना चाहते। 2012-13 के बीच में हमने गांव में सिखाना शुरू किया। उस वक्त हमें घर घर जाकर समझाना पड़ता था। ज्यादातर लोग यही बोलते थे कि लड़की है सीखकर क्या करेगी, घर जाकर चूल्हा चौका ही करना है ना, किसी को कराटे वाली बहू नहीं चाहिए। अगर घर में लड़का होता है तो उसे आगे बढ़ा देते हैं कि इसे सिखाइए। लड़की के मामले में अक्सर लोग बोलते है कि गांव वाले जानेंगे तो क्या कहेंगे, रिश्तेदार जानेंगे तो क्या कहेंगे, उन्हें ऐसा लगता हैं कि लड़कियां बाहर नहीं जांएगी, घर में ही रहेगी तो उनके साथ कुछ गलत नहीं होगा। इस तरह की मानसिकता के बीच काम करना मुश्किल है लेकिन उन सब से संघर्ष कर हमारी टीम लगातार काम कर रही है।”
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धीरेंद्र बताते हैं कि स्थिति उतनी सामान्य नहीं रहती जितनी नजर आती है। गांव में जातिगत दवाब भी बहुत ज्यादा है। आगे वह कहते हैं कि हाल ही में घागरा नदी के किनारे सात साल की लड़की का बलात्कार किया गया था। लेकिन उन पर दवाब बनाया जा रहा था शिकायत दर्ज ना कराने का क्योंकि जिस लड़के ने रेप किया था वह उसी गांव के प्रधान का रिश्तेदार था। इसके बाद इन लोगों ने लड़कर किसी तरह से केस दर्ज कराया। ऐसा अधिकांश होता है। दलित और पिछड़े समुदाय पर हर तरह से दवाब बनाया जाता है और वे कुछ कर नहीं पाते क्योंकि यहां रहने वाले ज्यादातर दलित समुदाय के लोग भूमिहीन हैं। वे दूसरों की ज़मीन पर काम करके अपना परिवार चलाते हैं। सवर्णों की फैक्ट्री में काम करते हैं यानि हर तरीके से वह सवर्णों पर निर्भर हैं। इस तरह से उनका परिवार डर के साये में दिखता है। अगर घर का व्यक्ति काम करने बाहर किसी शहर में जाता है ,तब भी कई तरह की परेशानी महिलाओं और बच्चियों को झेलनी पड़ती हैं। धीरेंद्र के अनुसार लॉकडाउन में 10 रेप की घटनाएं घटी थीं जिनमें से बहुत मुश्किल के बाद केवल तीन लड़कियों ने ही शिकायत दर्ज कराई। यह असुरक्षा कि स्थिति वाकई भयावह है। गोरखपुर ही नहीं कई ऐसे जिले हैं जहां महिलाओं का शोषण, दलित और पिछड़ों का शोषण बहुत ही सामान्य है।
जेंडर आधारित भेदभाव को दूर करने के लिए यह संगठन हर तरह से कोशिश कर रहा है। इसीलिए सिर्फ महिलाएं ही नहीं ये पुरुषों का भी स्वागत करते हैं ताकि बराबरी का माहौल हो। धीरेंद्र बताते हैं कि सिर्फ लड़की ही नहीं लड़कों को भी सिखाया जाना चाहिए। इसके साथ ही धीरेंद्र और उनकी टीम लगातार सरकारी फंड के लिए कोशिश कर रही हैं मगर अब तक उन्हें कोई सहायता राशि नहीं मिली हैं। गायत्री बताती हैं कि साल 2016 से निर्भया फंड भी विद्यालयों में नहीं आ रहा है। हम भी जब ऐसी खबरें सुनते हैं कि ‘बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओ’ योजना के 79 प्रतिशत फंड केवल विज्ञापनों में खर्च किए गए ना कि महिला सशक्तिकरण में तो सवाल उठते हैं सरकार। ट्रेनिंग लेनेवालों में कई सारे बच्चें ऐसे हैं जिनकी घर की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है। उनके पास जरूरी चीजें जैसे जूते और ट्रैक सूट भी नहीं हैं लेकिन फिर भी वे काफी अच्छा सीख रहे हैं, लगभग 3,000 लोग इस समय मार्शल और डिफेंस सीख रहे हैं।
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सभी तस्वीर साभार : मुसकान