पीरियड्स प्रॉडक्ट्स का वैश्विक बाजार 21.6 बिलियन डॉलर से भी अधिक का है। सैनिटरी पैड, पीरियड्स में इस्तेमाल होने वाला सबसे व्यापक और सरलता से इस्तेमाल किया जानेवाला तरीका है। पैड्स के प्रयोग ने पीरियड्स के दिनों को आसान बनाया है। आज हम जिन पैड्स का इस्तेमाल करते हैं, वे ज्यादातर सिंथेटिक, कॉटन, और रंग-बिरंगी पैकेजिंग में बाजार में उपलब्ध हैं। सैनिटरी पैड्स की मौजूदगी के बावजूद भी इस बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता कि पीरियड्स पर चर्चा करना आज भी शर्म की और गंदी बात मानी जाती है। लेकिन क्या आप जानते है दुनिया की इसी पितृसत्तात्मक सोच के साथ कब सबसे पहले सैनिटरी पैड बना और पहले के सैनिटरी पैड्स कैसे होते थे। पुराने समय में लोग पीरियड्स के दौरान क्या-क्या इस्तेमाल करते थे और बाजार से पैड्स खरीदने उन्होंने कब शुरू किए। इस लेख के जरिये हम आपको सैनिटरी पैड्स के इतिहास के बारे में बताएंगे।
क्या आप जानते हैं कि सैनिटरी पैड्स पहले पुरुषों के लिए बने थे?
यह सही बात है कि अधिकांश पुरुष पीरियड्स शब्द तक बोलने से कतराते हैं, लेकिन शुरुआत में सैनिटरी पैड्स उनके लिए ही बनाए गए थे। फ्रांस में काम करनेवाली अमेरिकी नर्सों द्वारा प्रथम विश्व युद्ध में घायल हुए सैनिकों के बहते खून को नियंत्रित करने के लिए डिस्पोज़बल पैड विकसित किए गए थे। ये पैड्स युद्ध के मैदान में आसानी से उपलब्ध होनेवाली सामग्रियों में से एक लकड़ी के गूदे की पट्टियों से बने होते थे। ये पैड्स बहुत सोखनेवाले और इस्तेमाल के बाद फेंकने के लिए भी काफी सस्ता था। धीरे-धीरे यह डिजाइन बाज़ार में बेचने के लिए अपनाया जाने लगा था। इस तरह कॉटेक्स नाम की कंपनी अस्तित्व में आई।
साल 1888 में ‘साउथबॉल पैड’ नाम का पहला डिस्पोज़बल पैड बाजार में लाया गया। इसके बाद अमेरिका में साल 1897 में जॉनसन एंड जॉनसन ने ‘लिस्टर्स टॉवेलः सैनिटरी टॉवेल फॉर लेडीज’ के नाम से अपना प्रॉडक्ट बाजार में उतारा। हालांकि उस वक्त समस्या यह थी कि ओरिजिनल नाम के साथ महिलाएं इसे खरीदने में असहज महसूस करती थीं क्योंकि उत्पाद पर प्रयोग के बारे में बहुत ही स्पष्ट जानकारी थी। इसके बाद साल 1920 आते-आते कंपनी ने नाम बदलते हुए ‘नुपक’ के नाम से उत्पाद का बिना किसी वर्णन के बाजार में लाया गया।
समाज की पितृसत्तात्मक सोच के कारण लोग पीरियड्स के दौरान प्रयोग होने वाले उत्पादों की बाजार से खरीदने से हिचकते थे। दूसरी ओर लोगों की आर्थिक स्थिति ने भी उन्हें इन नैपकिनों की खरीदारी से रोका। पैड की कीमत काफी अधिक होने के कारण केवल एक सीमित वर्ग तक की महिलाएं ही इन्हें खरीद पाती थीं। आम लोग पैड की कीमत अधिक होने के कारण पारंपरिक तरीकों पर ही निर्भर रहते थे। हालांकि उस वक्त जो लोग इन्हें जाकर दुकान से खरीदते थे, वे भी बहुत ही छिपकर इन पैड्स की खरीदारी करते थे। उस समय दुकान में जाकर लोग वहां मौजूद काम करने वाले से सीधे इसकी मांग करने से हिचकते थे। वे चुपचाप तरीके से जाकर एक बॉक्स में पैसे डालते थे और खुद काउंटर से पैड का बॉक्स उठा लेते थे।
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यह सही बात है कि अधिकांश पुरुष पीरियड्स शब्द तक बोलने से कतराते हैं, लेकिन शुरुआत में सैनिटरी पैड्स उनके लिए ही बनाए गए थे। फ्रांस में काम करनेवाली अमेरिकी नर्सों द्वारा प्रथम विश्व युद्ध में घायल हुए सैनिकों के बहते खून को नियंत्रित करने के लिए डिस्पोज़बल पैड विकसित किए गए थे।
शुरुआत हुई पीरियड्स पट्टियों के साथ
बाजार में पीरियड्स में इस्तेमाल करने के लिए पीरियड पट्टियां बनाई गई। उस समय उपलब्ध ये पैड इतने प्रभावी नहीं थे। जगह से आगे-पीछे खिसकने के कारण असहजता के लिए इनको जाना गया। ये पट्टियां रूई या इसी तरह के अन्य गीलापन सोखने वाली चीज की बनी हुई होती थी। ये ऊपर से सोखनेवाले लाइनर से ढके होते थे। लाइनर के सिरों को आगे और पीछे बढ़ाया गया ताकि अंडरगारमेंट्स के नीचे पहने जानेवाले बेल्ट के माध्यम से इसे फिट किया जा सके। हालांकि, बाद में पट्टियों में चिपकन लगने के बाद इसके इस्तेमाल में बहुत तरक्की हुई। चिपकन की वजह से पैड के खिसकने की परेशानी को विराम मिला।
साल 1969 में ‘स्टेफ्री’ नाम की एक कपंनी ने सबसे पहले एक चिपकने वाली पट्टी के साथ एक सैनिटरी पैड बाजार में लाया था। पैड पर चिपकन आने के बाद से पीरियड प्रॉडक्ट्स के क्षेत्र में एक बड़ा बदलाव हुआ। इससे पहले, पैड्स को रखने के लिए मेंस्ट्रुअल बेल्ट या पिन का उपयोग किया जाता था। पैड को अंडरगार्मेंट्स में चिपकाने की सुविधा आने के बाद से बहुत सारी असुविधाएं दूर हो गईं।
सैनिटरी पैड्स से पहले क्या होता था इस्तेमाल
पीरियड्स में कपड़े के इस्तेमाल होने से पहले भी अनेक तरह की सोखने वाली चीजों का इस्तेमाल किया जाता था। प्राचीन मिस्त्र में महिलाएं पीरियड में ‘पेपिरस’ का प्रयोग करती थी। जिसे वे नील नदी के पानी में भिगोकर पीरियड के खून को अवशोषित करने का काम करती थी। चीन में कई दशक पहले से महिलाएं सैनिटरी पैड्स के रूप में रेत से भरे कपड़े का इस्तेमाल करती थीं। जब रेत गीला हो जाता था, तो वे रेत को गिरा देती थी और भविष्य में उपयोग के लिए कपड़े को धोकर उसका दोबार इस्तेमाल किया करती थीं। यूनान में शुरुआत में कपास में लिपटे लकड़ी के टुकड़ों का इस्तेमाल किया जाता था। 18वीं और 19वीं सदीं में अग्रेंज़ी और जर्मन महिलाएं कपड़े का प्रयोग करने लगी थीं। 1850 तक आते-आते महिलाओं ने पट्टियों, बोरियां, इलैस्टिक, बटन और तार की मदद से ‘मैक्सी पैड’ बनाया था।
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प्रथम विश्वयुद्ध के बाद आया परिवर्तन
पीरियड्स प्रॉडक्ट के क्षेत्र में प्रथम विश्व युद्ध ने काफी सुधार किया। अब, सैनिटरी एप्रन जैसे विकल्प उपलब्ध थे। ये एप्रन महावारी में बहनेवाले खून को इकठ्ठा करने के लिए कम और कपड़ों की खून के दाग से सुरक्षा के लिए अधिक थे। उन्हें स्कर्ट और कपड़े के नीचे पहना जाता था और कमर के चारों ओर बांधा जाता था। इसी समय पीरियड्स प्रॉडक्ट के कई अन्य विकल्प भी सामने आने लगे। इसी दौरान पैंटीनुमा बड़े डायपर भी बाजार में उपलब्ध होने लगे। ये सैनिटरी पैड जैसे बिल्कुल नहीं थे लेकिन इनके प्रयोग से लीकेज और दाग-धब्बे जैसे समस्याएं दूर हो गई। लेकिन इस तरह के बड़े डायपर पहने में बिल्कुल भी सुविधाजनक नहीं थे।
भारत में सैनिटरी पैड के प्रयोग
भारत में लोगों का एक बड़ा वर्ग आज भी सैनिटरी पैड और दूसरे मेंस्ट्रुअल प्रॉडक्ट्स का उपयोग नहीं कर पाता है। रेत, पत्तियां, पुराने कपड़े जैसी असुरक्षित और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाली सामग्रियों का उपयोग किया जाता है। वॉटरऐड और मेन्स्ट्रअल हाईजीन अलायंस इंडिया की 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 336 मिलियन महिलाएं जिन्हें पीरियड्स होते हैं, उनमें से केवल 36 फीसदी ही सैनिटरी नैपकिन का प्रयोग करती हैं। सैनिटरी नैपकिन के उपयोग से पहले पीरियड्स को लेकर भारतीय समाज में एक हिचक है। आज भी कई जगहों पर महिलाओं को महावारी के दिनों में अलग-थलग कर दिया जाता है। पीरियड्स को अशुद्ध समझे जानेवाली मानसिकता वर्तमान में भी मौजूद है। भारत में पीरियड्स को लेकर दकियानूसी सोच में आज का दौर भी ज्यादा परिवर्तन नहीं लाया है। शहरी क्षेत्र में और आर्थिक रूप से संपन्न महिलाओं की पीरियड्स प्रॉडक्ट तक पहुंच बन गई है। दूसरी ओर सैनिटरी नैपकिन को चुपचाप तरीके से खरीदना दिखाता है कि भारतीय समाज में इस दिशा में अभी बहुत बदलाव होने हैं।
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तस्वीर साभारः BBC
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