समाजपर्यावरण पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती महिलाएं

पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती महिलाएं

आज भी महिलाओं के क्रिया कलाप पर गौर करें तो वे अपना ज्यादा समय पर्यावरण के करीब बिताती है।

यदि हम अपनी संस्कृति, सामाजिक प्रथाओं और रीति रिवाजों को देखें तो साफ झलकता है की प्राचीन काल से ही महिलाएं किसी न किसी बहाने से पर्यावरण से जुड़ी हुई हैं। भारत में महिलाओं ने पर्यावरण के प्रति मनुष्य के लगाव को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया है। आज भी महिलाओं की दिनचर्या पर गौर करें तो वे अपना ज्यादा समय पर्यावरण के करीब बिताती है। महिलाएं व्रत-त्यौहार के अवसर पर, प्रतिदिन के कामकाज में, पूजा-अर्चना में अनेक वृक्षों का सरंक्षण करती है। जैसे- तुलसी, पीपल, नीम, आंवला, अशोक, केला आदि वृक्षों की देखभाल तो महिलाएं रीति-रिवाज के तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी करती आ रही हैं। पर्यावरण संरक्षण के इतिहास पर नजर डाली जाए तो ऐसी बहुत सी महिलाएं हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में नेतृत्व कर प्रकृति को बचाया है। चिपको आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, खेजड़ली आंदोलन वे आंदोलन हैं जिसमें महिलाओं ने पर्यावरण संरक्षण के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिये थे।

कार्ल मार्क्स का कथन है ‘कोई भी बड़ा सामाजिक परिवर्तन महिलाओं के बिना नहीं हो सकता है।’ पर्यावरण प्रबंधन और सतत विकास में महिलाओं का योगदान बेहद ज़रूरी है। इतिहास से लेकर वर्तमान तक इस कथन को कई महिलाओं ने साबित भी कर दिखाया हैं। गौरा देवी, सुनीता नारायण, वंदना शिवा, मेधा पाटकर, अमृता देवी और तुलसी गौडा जैसी बहुत सी महिलाओं ने पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। ये महिलाएं भारतीय समाज में पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने और लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत भी बनी हैं। खासतौर से आदिवासी महिलाओं ने वन सम्पदा, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी हैं। आदिवासी जनजातियों की सामाजिक, आर्थिक, और समुदाय की रीति व्यवस्थाओं में पेड़ों का बहुत महत्व है। आदिवासी समाज का रहन-सहन विशेष तौर पर जल, जंगल जमीन से जुड़ा हुआ है। जिसे लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी बनाए रखने में समुदाय की महिलाएं मुख्य भूमिका निभाती आ रही है। वर्तमान में सरकार की विकास योजनाओं के लिए जंगल की कटाई के विरोध में आदिवासी महिलाएं सबसे पहले सामने आकर इसका विरोध करती है। इसके लिए कई आदिवासी महिलाओं को जेल तक में डाल दिया जाता है।

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पर्यावरण संरक्षण के लिए महिलाओं ने जान की भी परवाह नहीं की

राजस्थान का खेजड़ली आंदोलन महिलाओं में स्थित पर्यावरण चेतना काे सामने लाने का एक सशक्त उदाहरण है। साल 1730 में जोधपुर के महाराजा को अपना महल बनाने के लिए जब लकड़ी की ज़रूरत हुई तो सिपाही कुल्हाड़ी लेकर खेजड़ली गांव में पहुंच गए। उसी गांव की महिला अमृता देवी ने इसका विरोध किया ताकि वो पेड़ों को काटने से बचा सकें। लेकिन परिस्थिति ने गंभीर रूप ले लिया था। इस संघर्ष में अमृता पेड़ों को काटने से बचाने के लिए अपनी तीन बेटियों के साथ पर्यावरण संरक्षण के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी थी। 12 सितंबर 1730 में अमृता बिश्नोई सहित 363 बिश्नोई खेजड़ी पेड़ों को बचाने के लिए खेजड़ली में शहीद हो गए थे।

चिपको आंदोलन पेड़ों को बचाने का एक ऐतिहासिक और नायाब संघर्ष है। इस आंदोलन की मुख्य संचालक महिलाएं ही थीं। गौरा देवी इस आंदोलन की प्रमुख महिला थीं जिन्हें ‘चिपको आंदोलन की जननी’ और ‘चिपको वुमन’ भी कहा जाता है। चिपको आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले में हुआ था। चिपको आंदोलन पेड़ों की कटाई रोकने और उन पर आश्रित लोगों के वनाधिकारों की रक्षा के लिए किया जाने वाला आंदोलन था। मार्च 1974 में रैणी गांव के 2500 पेड़ों को काटने के सरकारी आदेश को रोकने के लिए वहां की महिलाओं ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थीं। जब वन विभाग और सरकारी ठेकेदार पेड़ों को काटने के लिए आगे बढ़ रहे थे तब गौरा देवी के नेतृत्व में रैणी गांव की महिलाएं अपने प्राणों की परवाह किए बगैर पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो गई थी। गांव की महिलाओं के मजबूत इरादों को देखकर सरकारी टीम को वापिस लौटना पड़ा था। चमोली गांव की महिलाओं ने गौरा देवी के नेतृत्व में पेड़ काटने आए लोगों को यह कहकर भगा दिया था कि ‘जंगल हमारा मायका है।’

‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ ने पर्यावरण और विकास के नये पैमानों को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया था। यह आंदोलन आम लोगों के बीच काफी चर्चा में रहा है। मेधा पाटकर ने इस आंदोलन में सक्रिय मुख्य भूमिका निभाई हैं। भारत में नदियों को जोड़ने की नीति और विस्थापित लोगों के अधिकारों के सवाल पर मेधा पाटकर ने लंबा उपवास तक रखा है। आंदोलनों में हिस्सा लेने के दौरान मेधा पाटकर को जेल तक भी जाना पड़ा है। इसके बावजूद उन्होंने अपने हौसलों को कम नही होने दिया। मेधा पाटकर लगातार पर्यावरण की सुरक्षा में अपना योगदान दे रही हैं। वह वर्तमान में भारत की प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता हैं। जिसके लिए इन्हें अंतर्राष्ट्रीय ‘ग्रीन रिबन’ पर्यावरण पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अलावा भी इन्हें कई स्वदेशी पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका हैं।

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वंदना शिवा अपनी किताब ‘स्टेइंग अलाइव: वीमेन इकोलॉजी एंड सर्वाइवल इन इंडिया’ में चिपको आंदोलन पर विस्तार से लिखा है। उन्होंने अपनी किताब में उन तमाम महिलाओं का जिक्र किया है, जिन्होंने इसे आंदोलन बनाया था और सक्रिय भागीदारी निभाई थी। वंदना शिवा महिलाओं की भूमिका पर लिखती हैं, जिन महिलाओं ने चिपको को एक बड़े आंदोलन में बदलने के लिए के लिए मिसाल कायम किया है। उनका नाम गंगा देवी, इतवारी देवी, छमून देवी, गौरी देवी, सरला बेन, बिमला बेन सहित कई अन्य महिलाओं के नाम शामिल हैं। सिर्फ इतना ही नहीं वंदना आगे बताती है कि ‘सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, घनश्याम ‘शैलानी’ और धूम सिंह नेगी और अन्य आंदोलन से जुड़े पुरुष इन्हीं महिलाओं के छात्र और अनुयायी रहे हैं।’ वन्दना शिवा को पर्यावरण-संरक्षण में इनके कार्यों और भागीदारी को देखते हुए, उन्हें वर्ष 1993 के ‘राइट लिवली हुड’ ‘अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया है।

महिलाओं ने पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका निभाई और वर्तमान में भी निभा रही हैं। इनकी एक अनूठी पहल ने देशभर में पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने का काम किया है। महिलाओं ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में नई चेतना का उत्सर्जन किया हैं। अलग-अलग आंदोलन से यह सिद्ध कर दिया है कि जो काम पुरुष नहीं कर सकते उन्हें महिलाएं बखूबी कर सकती है। चिपको आंदोलन, खेजड़ली आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन इसका मुख्य उदाहरण है। इन आंदोलनों को जंगल में रहने वाली, पहाड़ी इलाकों में रहने वाली, ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं ने सफल बनाया। जिनसे शिक्षा अभी भी मीलों दूर है। बावजूद इन सबके उन्होंने अपने घर, अपनी भूमि को उजड़ने से पहले ही सख्त कदम उठाएं।

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तस्वीर साभारः The New Indian Express

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