क्या आपने कभी सोचा है कि परवरिश से जुड़े सारे सवाल महिलाओं से ही क्यों होते हैं? जब भी बच्चों की परवरिश की बात आती है तो बिना कुछ सोचे-समझे पूरा परिवार और समाज अपने सारे सवाल महिलाओं से ही करता है। समय भले ही बदला हो, लेकिन अभी भी हम लोगों के विचार में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। पितृसत्ता हमेशा महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंकती है और महिलाओं पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए समय-समय पर अपने पैंतरे बदलती रहती है।
एक बड़ी प्रसिद्ध कहावत है जो महिलाओं को लेकर अक्सर कही जाती है कि महिला चाहे तो घर बसा भी दे और चाहे तो घर उजाड़ दे। इस कहावत से पितृसत्ता कथित रूप से महिलाओं की ताक़त और उनके प्रभाव को दिखाने की कोशिश करती है, लेकिन दूसरे ही पल वह महिलाओं की पूरी ताक़त-उनकी योग्यता को सिर्फ़ परिवार बसाने तक में सीमित करती है। कहने का मतलब यह है कि किसी भी महिला की सफलता तब सिद्ध होगी जब वह अपने परिवार को अच्छी तरह संभाल ले।
अब यहां अच्छी तरह घर संभालने या घर बसाने की बातें भी अपने आप में कम विवादित नहीं हैं। इसे अच्छा तभी माना जाता है, जब वहां पूरी व्यवस्था पितृसत्ता के अनुसार हो, जहां पुरुषों का वर्चस्व हो और महिलाएं पुरुषों से कमतर हो। जहां सारे अधिकार पुरुषों के हाथ में हो और महिलाओं के सारे अधिकारों का दमन हो। यह अच्छे घर की व्यवस्था को बनाना और उसे क़ायम रखना ही किसी महिला को अच्छी गृहणी या एक सफ़ल महिला बनाता है।
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परिवार में महिला-पुरुष का हिस्सा बराबर
पर अब सवाल यह है कि क्या परिवार सिर्फ़ महिला से ही बनता है? क्या बच्चे सिर्फ़ महिला की ही जिम्मेदारी होते हैं? क्या घर में पुरुषों का कोई प्रभाव और भागीदारी नहीं है? तो ज़वाब है, बिल्कुल नहीं। यदि कोई महिला अकेले किसी घर में अपने माता-पिता, दोस्त या अपने साथी (बिना शादी के) के रहती है तो उसे समाज घर नहीं मानता, क्योंकि पितृसत्ता में घर के लिए महिला-पुरुष का शादी के बाद साथ रहना ज़रूरी है। मतलब जितना महिला का होना ज़रूरी है उतना पुरुष का भी। इसके बाद जब, घर का अस्तित्व महिला-पुरुष दोनों के होने से है तो फिर चूल्हा-चौका और बच्चों की परवरिश का सारा भार महिलाओं पर ही क्यों?
सवाल यह है कि क्या परिवार सिर्फ़ महिला से ही बनता है? क्या बच्चे सिर्फ़ महिला की ही जिम्मेदारी होते हैं? क्या घर में पुरुषों का कोई प्रभाव और भागीदारी नहीं है?
अब इस बात पर लोग कहते हैं कि बच्चे ज्यादा वक्त मां के साथ गुज़ारते हैं। क्या वाक़ई में आज के समय में ऐसा होता है तो जवाब है नहीं। जो परिवार बच्चों को पढ़ा सकता है, वहां बच्चों का आधे से ज़्यादा वक्त स्कूल-ट्यूशन में और जहां बच्चों को पढ़ाने के पैसे नहीं होते, वहां बच्चों का ज़्यादा वक्त रोटी कमाने की जुगत में चला जाता है। ऐसे में ये कहना सही नहीं है कि बच्चें सबसे ज्यादा वक्त महिलाओं के साथ गुज़ारते हैं। इसके साथ ही, हम लोगों को यह भी समझना होगा कि जब बात बच्चों की परवरिश की आती है तो इसमें आधा से अधिक हिस्सा बच्चों के आसपास के माहौल और उनकी कंडिशनिग से जुड़ा हुआ है।
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साधारण उदाहरण है कि वह घर जहां महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा होती है, वहां की लड़कियां बचपन से महिलाओं के सतह होने वाली हिंसा को लेकर अभ्यस्त-सी हो जाती हैं, जिसे कई बार वो अपनी नियति मान लेती हैं। वहीं, उसी परिवार का लड़का, महिलाओं पर हाथ उठाना अपना अधिकार मान लेता है और उसके दिमाग में यह विचार मज़बूत हो जाता है कि महिलाएं उससे कमतर हैं।
ऐसा नहीं है कि जिस परिवार में घरेलू हिंसा होती है, वहां के बच्चों को ये बातें बताई या सिखाई जाती हैं। बल्कि ये ऐसी बातें है जिसे बच्चे खु़द-ब-ख़ुद सीखते हैं, क्योंकि वे अपने आसपास के माहौल से प्रभावित होते हैं। इसके बाद जब हम लोग अपने समाज की बात करें तो वह भी बच्चों की परवरिश में अहम भूमिका निभाता है। कभी फ़िल्म के माध्यम से कभी शिक्षा तो कभी त्योहार या संस्कृति के बहाने। सामाजिक जीवन बच्चों के विचार को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
ये वे ज़रूरी बातें हैं जो बच्चों कि परवरिश से जुड़े हैं, लेकिन जब बात आती है उस परवरिश को दिशा देने की तो पूरा ज़िम्मा महिलाओं को सौंप दिया जाता है। केवल महिलाओं पर जिम्मेदारी होना सीधे तौर पर पितृसत्तात्मक विचार है। हमें समझना होगा कि घर बसाने और बच्चे पैदा करने में महिला-पुरुष दोनों की समान भागीदारी है। उनकी परवरिश का ज़िम्मा भी दोनों का होगा, न कि केवल महिलाओं का होगा। इसलिए अब से जब भी बात परवरिश की आए तो सिर्फ़ महिलाओं को नहीं बल्कि पुरुषों से भी सवाल होने चाहिए। समानता के लिए पुरुषों की भूमिकाओं को तय करना भी बेहद ज़रूरी है।
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तस्वीर साभारः Unicef USA