इंटरसेक्शनलजेंडर हमारी परवरिश में लैंगिक संवेदनशीलता का पाठ अभी दूर क्यों है | नारीवादी चश्मा

हमारी परवरिश में लैंगिक संवेदनशीलता का पाठ अभी दूर क्यों है | नारीवादी चश्मा

शिक्षा और तकनीकी में हम चाहे कितने भी विकास का दंभ भरे लेकिन लैंगिक संवेदनशीलता के मामले हमारे लिए ‘दिल्ली अभी बहुत दूर है।'

रोहन की परवरिश बहुत नाज़ों से की गयी। पढ़ाई में होशियार रोहन को घर वाले कभी किसी काम के लिए नहीं कहते। शुरुआती दौर में रोहन काफ़ी संवेदनशील था, उसके घर जैसे ही कोई बाहर से आता वो पानी का ग्लास लेकर जाता और माँ के साथ घर के कामों में हाथ भी बँटाता। पर परिवार वाले उसकी इस आदत को हमेशा सुधारने की बात कहते, उनके अनुसार लड़कों को घर का काम नहीं करना चाहिए। वे कहते कि ‘अरे! बड़े होकर तुम्हें चपरासी थोड़े ही बनना है, जो सबको पानी पिलाते हो, तुम्हें तो अफ़सर बनना है।‘ फिर क्या था कुछ ही दिनों में रोहन को हास्टल पढ़ने को भेज दिया गया और रोहन नौकरी के लिए अमेरिका चला गया। बुढ़ापे में जब माँ-बाप के एकलौते बेटे की ज़रूरत महसूस होने लगी तो रोहन ने उनकी सेवा के लिए एक नौकर रख दिया। माता-पिता अब हर पल रोहन के लिए पछताते है कि काश रोहन पहले जैसा संवेदनशील हो जाता।

वहीं बिहार के पटना ज़िले के छोटे से गाँव में रहने वाले साहस की तीन बहनों की परवरिश बचपन से ही शादी को केंद्रित करके की गयी। उन्हें हर पल ये एहसास दिलाया जाता कि ये घर उनका नहीं है, जिस घर में उनकी शादी होगी, वही उनका घर होगा और उन्हें उसी घर के लिए ज़िम्मेदार बनना सीखना है। नतीजतन तीनों बहनों ने कभी भी अपने माता-पिता और भाई के प्रति कभी किसी ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं किया। तीनों बहनों की शादी के एकसाल बाद छोटे भाई साहस की एक दुर्घटना में मौत हो गयी और उसके माता-पिता अकेले हो गए। बेटियाँ कभी-कभी उनका हाल-चाल लिया करती, लेकिन उनकी ज़िम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं हुआ।

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ये दोनों घटनायें समाज के दो अलग-अलग वर्गों की है। पर इनका मुद्दा के है – परवरिश। जब भी हम लैंगिक संवेदनशीलता या समानता की बात करते हैं तो उसे किसी जेंडर या सेक्स की बजाय इंसान के परिपेक्ष्य में देखने और समझने की ज़रूरत होती है। ये हमारी परवरिश ही है जो हमें संवेदनशील या असंवेदनशील बनाती है। मौजूदा समय में लैंगिक संवेदनशीलता के लिए सरकार और संस्थाओं की तरफ़ से अलग-अलग माध्यमों से काम किया जा रहा है, लेकिन ये सब तब तक सफ़ल नहीं हो सकता, जब तक हम इसे अपने परिवार में लागू करना शुरू नहीं करेंगें। सच्चा ये है कि हम बच्चे को स्कूल में चाहे कितनी भी संवेदनशीलता का पाठ पढ़ाकर ये कहें कि घर जाकर अपनी मम्मी और बहन के साथ घर के कामों में हाथ बँटाना, लेकिन जब तक इस व्यवहार के लिए बच्चे का परिवार सहयोग नहीं करेगा, तब तक इसे लागू करना बेहद मुश्किल क्या नामुमकिन होगा।

शिक्षा और तकनीकी में हम चाहे कितने भी विकास का दंभ भरे लेकिन लैंगिक संवेदनशीलता के मामले हमारे लिए ‘दिल्ली अभी बहुत दूर है।’

अक्सर हम बच्चों को नाज़ों से पालने के बहाने इस कदर असंवेदनशील बनाते जाते है कि एकसमय के बाद वो अपने माँ-बाप और परिवार के प्रति भी असंवेदनशील बनता जाता है। ठीक उसी तरह जब हम बेटियों की परवरिश बचपन से ही दहेज के सामान जैसे करते हैं, जिन्हें आख़िर में दूसरे घर जाना है तो वे चाह कर भी अपने परिवार से कोई ताल्लुक़ नहीं जोड़ पाती है।

आज जब हम आए दिन बूढ़े माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार या उपेक्षा की घटनाएँ देखते हैं तो ये अपने आप में हमारी सामाजीकरण की प्रक्रिया और परवरिश पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर देती है। ध्यान देने वाली बात ये भी है कि यहाँ संवेदनशीलता को सिर्फ़ माता-पिता के संदर्भ में ही नहीं बल्कि अपने विपरीत जेंडर और वर्ग के साथ अपने व्यवहार और नज़रिए  की भी बात है। जैसे, जब हम ये कहते हैं कि ‘पानी पिलाना सिर्फ़ चपरासी का काम है।‘ तो इस एक वाक्य से हम एक व्यवहार को एक वर्ग से जोड़ देते है, जिसे वर्ग की संरचना में निचले पायदान पर रखा गया है और सामाजिक सोच के अनुरूप – जो निचले पायदान पर है, उसे हम गंदा, अछूत, अयोग्य और बुरा मानते है। ठीक वैसे ही जब लड़कियों को अपने परिवार की बजाय किसी और परिवार का हवाला देकर बड़ा किया जाता है तो समय के साथ-साथ अपने परिवार को लेकर उनकी उदासीनता अक्सर बढ़ने लग जाती है और एक़बार जब वो इस परिवार अपने दूसरे परिवार की तरफ़ कदम बढ़ाती है तो उनकी बची-कुची संवेदनाएँ भी ख़त्म-सी होने लगती है। ये सब हमारे समाज में चल रहा है, नतीजतन हम आए दिन हिंसा के अलग-अलग रूप देख रहे हैं। शिक्षा और तकनीकी में हम चाहे कितने भी विकास का दंभ भरे लेकिन लैंगिक संवेदनशीलता के मामले हमारे लिए ‘दिल्ली अभी बहुत दूर है‘ और जिसे सरोकार से जोड़े बिना हम कभी भी लैंगिक संवेदनशील और समानतापूर्ण समाज का निर्माण नहीं कर सकते हैं।   

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तस्वीर साभार : idiva.com

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