‘प्यार’ के नाम साल का एकदिन ‘वैलेंटाइन डे’, जिसने बीते कुछ सालों में फ़रवरी के महीने को प्यार के महीने में बदल दिया है। हफ़्तेभर अलग-अलग डे का समापन वैलेंटाइन से होता है, ऐसा लगता है मानो सालभर के प्यार के इज़हार का बाद एकमात्र यही दिन है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है, ये सिर्फ़ बाज़ार की नीति है, जिसने अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए प्यार का महिमामंडन कर इसे अलग-अलग उत्पाद से जोड़ दिया है। पर यहाँ इसबात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस बाज़ार के प्रभाव ने शहरी क्षेत्रों में फ़रवरी के महीने को प्यार का महीना बना ही दिया है, फिर क्या, सड़कों-चौराहों के किनारे लगी लाल गुलाब की दुकाने और क्या फ़ोन-मेसेज और सोशल मीडिया, हर जगह प्यार की ही बातें होती है, तो आइए आज हम भी प्यार के नाम इस दिन पर बात करें ‘नारीवादी प्यार के रंग की’ जिसमें सहमति का सम्मान और बराबरी होती है और जो समाज में बदलाव लाते है।
जब हम प्यार की बात कर रहे हैं तो यहाँ प्यार का मतलब दो वयस्कों के बीच होने वाले प्यार से है, जहां दो वयस्क एक-दूसरे को अपना साथी चुनते है। पर कई बार जब हम इस प्यार के रूप को देखते है तो फ़िल्मी दुनिया में दिखने वाले चमकीले प्यार की चमक जल्द ही पितृसत्ता के रंग लेने लग जाते है, ख़ासकर तब जब बात सहमति और बराबरी की आती है। उल्लेखनीय है कि जब हम ‘सहमति’ की बात कर रहे हैं तो यहाँ ‘सहमति’ का मतलब अपने साथी को छूने से लेकर उसके विचारों के सम्मान तक है।
कानपुर शहर में रहने वाली निधि अपने घर की पहली लड़की है, जिसने किसी लड़के से प्यार करने की हिम्मत जुटाई। मध्यमवर्गीय परिवार की निधि को बचपन से ‘अच्छे घर की लड़की’ बनने और बने रहने की कंडिशनिंग के साथ तैयार किया गया, जिसकी पहली शर्त है कि ‘अच्छे घर की लड़कियाँ अपनी मर्ज़ी से किसी लड़के से प्यार क्या बात भी नहीं कर सकती है।‘ निधि और उसके साथी ने एकसाथ अपने कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म की और एकसाथ दोनों की नौकरी एक ही कम्पनी में लगी। इसके बाद निधि और उसके साथी ने अपने रिश्ते के बारे में घर में बताया, जिसके बाद काफ़ी लड़ाई-झगड़े के बाद घर वाले उनकी शादी को राज़ी हुए। शादी के बाद निधि के साथी ने उसे नौकरी छोड़ने को बोला, ‘क्योंकि उसके परिवारवालों का मानना था कि लव मैरिज की शादी सफ़ल नहीं होती, क्योंकि उसमें लड़कियाँ लड़कों के बराबरी से काम करती है।‘ निधि ने भी अच्छे कपल दिखने के दबाव में न चाहते हुए भी चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दी, जिसके बाद निधि अपनी आर्थिक ज़रूरतों को लेकर परेशान रहने लगी और उसने घर में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम शुरू किया, जिसे लेकर अक्सर उसका साथी दंभ भरता कि ‘मैंने अपनी बीवी को तो घर में ट्यूशन पढ़ाने की छूट दी है।‘
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सामाजिक वर्ग और पितृसत्तात्मक विचारधारा को चुनौती देकर किए जाने वाले प्यार का संघर्ष समाज में सकारात्मक बदलाव लाए और नारीवादी परिवार की शुरुआत हो, जहां सहमति और बराबरी हो।
हमारे समाज में निधि की कहानी सामान्य मालूम होती है, जिसकी शुरुआत और शादी तक का सफ़र किसी फ़िल्म से कम नहीं लगता, लेकिन उसके बाद की ज़िंदगी के रूप में पितृसत्ता का पूरा ढाँचा मज़बूती से खड़ा दिखाई पड़ता है। वास्तव में पितृसत्तात्मक समाज में पितृसत्ता से रहित प्यार की कल्पना कई बार बस एक कल्पना-सी लगती है, पर इस कल्पना को हक़ीक़त में बदलना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि ये बात तो अक्सर लोग कहते हैं ‘प्यार में बहुत ताक़त होती है।‘ शायद हाँ, इसलिए इस ताक़त की तरफ़ कदम बढ़ाने का विशेषाधिकार अभी भी बहुतों की पहुँच से दूर है और अक्सर कदम बढ़ने के बाद कुछ विशेषाधिकारों का बँटवारा पितृसत्ता के बताए जेंडर के आधार पर होता है।
अगर बात करें भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार की तो यहाँ आज भी प्यार करना बड़ी चुनौती होती है। सभ्य समाज, अच्छा घर, सफ़ल परिवार जैसे मानकों में सेट होने और इस दिशा में सार्थक बढ़ते कदम का प्रमाण हर कदम माँगा जाता है, ऐसे में जब वो कदम प्यार के साथ बढ़ते है तो इसका भार कई गुना ज़्यादा हो जाता है। इन सबके बीच, समय के साथ धीरे-धीरे ये दबाव प्यार के ऊपर पितृसत्ता के रंग को चढ़ाने लगता है, जिसके बाद सहमति और विशेषाधिकार का बँटवारा पितृसत्ता के बताए महिला-पुरुष के जेंडर के ढाँचे के अनुसार होता है।
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निधि के साथी ने उसकी नौकरी को लेकर उसकी सहमति जानने की कोशिश भी नहीं की और उसकी चुप्पी को हाँ मानकर सामाजिक दबाव के चलते उसे सफ़ल आदर्श कपल दिखने के दबाव में नौकरी छोड़ने को कह दिया। हम जब भी प्यार में सहमति के बात करते है तो हमें अच्छे से समझना होगा कि सहमति का मतलब क्या है और ये ज़रूरी क्यों है। सहमति का मतलब हर इंसान से है, चाहे जो किसी भी जेंडर का हो। हर इंसान को ये अधिकार है कि वो अपने निर्णय खुद लें, उसे क्या पसंद है और क्या नहीं उसका निर्णय वो खुद करें। अब वो निर्णय करियर से जुड़ा हो या अपने पसंद के कपड़े-खाने से या फिर सेक्स या शारीरिक संबंध से और इसमें सबसे ज़रूरी है ‘हमारे पार्ट्नर का हमारी सहमति को सम्मान देना।‘
ऐसे में जब भी हम नारीवादी परिवार की बात करते है तो ज़रूरी है कि उस परिवार की बुनियाद उस प्यार से हो जहां प्यार के नारीवादी रंग हो, जहां साथी एक-दूसरे की सहमति और असहमति का सम्मान करें। इसके साथ ही, अपने अधिकार को विशेषाधिकार में बदलकर अपने साथी का अपमान न करें। निधि के साथी का ये कहना कि ‘मैंने अपनी बीवी को ट्यूशन पढ़ाने की इजाज़त दी है।‘ ये उसके विशेषाधिकार को दिखाता है। अब निधि के पार्ट्नर को किसने अधिकार दिया कि वो निधि को इजाज़त दे, ये विचार पितृसत्तात्मक है जिसे बदलना होगा अगर हम आने वाली पीढ़ियों में बदलाव चाहते है। हमें बराबरी के रिश्ते बनाना सीखना होगा। ये बदलाव ज़रूरी है, जिससे सामाजिक वर्ग और पितृसत्तात्मक विचारधारा को चुनौती देकर किए जाने वाले प्यार का संघर्ष समाज में सकारात्मक बदलाव लाए और नारीवादी परिवार की शुरुआत हो, जहां सहमति और बराबरी हो। इस वैलेंटाइन को ख़ास बनाइए अपने पार्ट्नर के साथ सहमति और बराबरी को सम्मान करने वाले नारीवादी रंग वाले प्यार के साथ।
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तस्वीर साभार : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए