भारतीय न्यायिक प्रणाली में समय-समय पर कुछ ऐसे फैसले और ऐसी भाषा सामने आती है जो पितृसत्तात्मक समाज की रूढ़िवादी सोच से प्रेरित होती है। न्याय देने की प्रक्रिया में पितृसत्ता सोच एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती दिखती है। बार-बार ऐसे बयान या निर्णय नज़र आते हैं जो लैंगिक भेदभाव का समर्थन करते दिखते हैं। न्याय देने की प्रक्रिया में पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण महिलाओं के आचरण, शरीर और अधिकारों पर टिप्पणी करता दिखाई देता है। अदालतों में महिलाओं के अनुभव को देश की आज़ादी के सात दशक के बाद भी लगातार नज़रअंदाज किया जा रहा है। इस बात पर मुहर देश की न्यायिक प्रणाली में महिला जजों की कमी दिखाती है, जिसका सीधा असर लैंगिक न्याय पर पड़ता है।
हाल में हरियाणा की एक स्थानीय अदालत में दो नाबालिग बच्चियों के साथ हुई यौन हिंसा के आरोपी को सजा सुनाते हुए इसे ‘समाज की आत्मा’ के खिलाफ संगीन अपराध बताया है। ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित ख़बर अनुसार हरियाणा के कैथल की एक स्थानीय अदालत ने दो नाबालिग लड़कियों से बलात्कार के मामले में एक शख़्स को दोषी करार देते हुए 25 साल की सजा सुनाई है। अदालत ने सजा सुनाते हुए कहा, “बच्चे देश का एक अनमोल मानव संसाधन हैं।, बलात्कार एक बच्ची के पवित्र शरीर और देश की आत्मा के खिलाफ अपराध है। जिस समय यह घटना हुई बच्चियों की उम्र नौ और दस साल थी। वे इस दर्दनाक अनुभव के साथ बढ़ेंगी, यह एक न भुलाने वाली शर्म की बात है।”
और पढ़ेंः सुप्रीम कोर्ट का अदालतों को महिला-विरोधी ना होने का निर्देश देना एक अच्छी पहल
कैथल जिला अदालत की अतिरिक्त सेशन जज पूनम सुनेजा ने विस्तृत आदेश में यह भी कहा कि बच्ची की दुर्दशा और उसके द्वारा सहे हुए सदमे को अच्छी तरह से देखा जा सकता है। उन्होंने आग इस फैसले में टिप्पणी की, “यह अपराध दुष्टता और पतन की बात करता है, जो जघन्य चरित्र को दिखाता है। आरोपी जसबीर सिंह गुरुद्वारे में ग्रंथी का काम करते थे। आरोपी ने मानवीय आचरण का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण और अपमानजनक पहलू दिखाया है। यह एक ऐसा मामला है जिससे विश्वास को चोट पहुंची है और सामाजिक मूल्यों को कमजोर किया गया है”। कोर्ट ने यह बात भी सामने रखी है कि यदि यदि हम ऐसे अपराध में सजा नहीं देते है तो हम अपनी ड्यूटी पूरी करने में विफल साबित होते हैं। अपराध न केवल सर्वाइवर के खिलाफ हुआ है बल्कि समाज के साथ भी हुआ है जहां से आरोपी और सर्वाइवर दोनों संबंध रखते हैं।
महिलाओं की देह को पवित्र मानना, जैसी बातें पितृसत्ता की व्यवस्था में शामिल है। महिलाओं का शरीर को पवित्र मानना और इसे रेप से जोड़ना, इस घटना को एक भावनात्मक पहलू से जोड़ना है। जबकि यह असमानता, यौन हिंसा और लैंगिक भेदभाव का विषय है। ऐसी भाषा महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा की गंभीरता को भी कम करती है।
नाबालिग बच्चियो के साथ ब्लात्कार करने के अपराध में आरोपी ग्रंथी को आईपीसी की धारा 376 एबी और पोक्सो एक्ट के तहत सजा सुनाई गई है। आरोपी ग्रंथी को 25 साल का कारावास और 50,000 का जुर्माना लगाया गया है। साथ में अदालत ने लीगल सर्विस अथॉरिटी को प्रत्येक बच्ची को 5.5 लाख के मुआवजे के भुगतान का भी निर्देश दिया है। उक्त फैसले में एक ओर तो अपराधी को कानून के तहत सजा दी गई है दूसरी ओर फैसले में लड़कियों के शरीर की पवित्रता और सामाजिक-सांस्कृतिक बातों का भी उल्लेख किया गया है।
और पढ़ेंः यौन उत्पीड़न पर बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला अपने पीछे कई सवालिया निशान छोड़ता है
महिलाओं की देह को पवित्रता से क्यों जोड़ना?
भारतीय संविधान में महिलाओं को यौन उत्पीड़न से संरक्षण के लिए कानूनी प्रावधान हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा कई कानूनों में बदलाव के बाद महिलाओं के खिलाफ होनेवाली हिंसा के खिलाफ़ सजा को और कठिन भी किया है। महिलाओं को न्याय देते समय कई बार न्यायालय की रूढ़िवादी सोच भी सामने आती है। महिलाओं के शरीर, उनकी स्वायत्ता और अधिकारों को लेकर न्यायालय की भाषा और रूढ़िवादी समाज एक ही पक्ति में खड़े दिखते हैं। उपरोक्त केस में न्यायालय के द्वारा दिये फैसले में आरोपी को सजा के साथ अदालत की ओर से जिस सामाजिक आचरण और लड़कियों के शरीर की पवितत्रता की बात की है वह सीधे तौर पर पितृसत्ता से जुड़ी हुई है।
अदालत के इस फै़सले में बच्चियों के ‘पवित्र शरीर, आत्मा, शर्म और समाज’ जैसे शब्दों को इस्तेमाल किया गया है। ये वही शब्द हैं जो महिलाओं के प्रति हिंसा का एक बड़ा कारण बनते हैं। भारतीय समाज एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर आधारित समाज है। जहां महिलाओं के शरीर पर केवल पुरुषों का, केवल उसके पति का हक होता है।
महिलाओं की देह को पवित्र मानना, जैसी बातें पितृसत्ता की व्यवस्था में शामिल है। महिलाओं का शरीर को पवित्र मानना और इसे रेप से जोड़ना, इस घटना को एक भावनात्मक पहलू से जोड़ना है। जबकि यह असमानता, यौन हिंसा और लैंगिक भेदभाव का विषय है। ऐसी भाषा महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा की गंभीरता को भी कम करती है। न्यायालय की सामाजिक और पवित्रता वाली बातों से इतर देश में यदि बच्चियों के खिलाफ होने वाले अपराध के ग्राफ को देखें तो यह बात सामने आती है कि बच्चियों के खिलाफ यौन हिंसा की वारदात लगातार बढ़ रही है।
और पढ़ेंः नांगेली से लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट के फ़ैसले तक, यहां हर गुनाह के लिए महिला होना ही कसूरवार है
बलात्कार जैसे संगीन अपराध के लिए औरतों के शरीर और पवित्रता से जोड़ने वाली मानसिकता समाज में ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ाती दिखती हैं। महिलाओं और किशोरियों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा एक गंभीर समस्या है। अदालत की ऐसी भाषा न केवल पूर्वग्राही धारणाओं को मजबूत करती है बल्कि महिलाओं के शरीर को लेकर दकियानूसी विचारों को पोषित करती है।
हिंदुस्तान टाइम्स की ख़बर के अनुसार देश में पोक्सो के तहत दर्ज होने वाले बाल शोषण के मामलों में 99 प्रतिशत घटनाएं लड़कियों के खिलाफ होती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार साल 2020 में पूरे देश में पोक्सो के तहत 28,327 मामले दर्ज किए गए। इन कुल मामलों में 28,058 केस लड़कियों के खिलाफ थे। बाल शोषण के पोक्सो एक्ट के तहत दर्ज हुए इन केसों में 16 से 18 साल की लड़कियों के साथ सबसे ज्यादा 14,092 हुए। 12 से 16 साल की लड़कियों के खिलाफ 10,949 मामले सामने आए। भारतीय संस्कृति में इन्हीं बच्चियों को ‘देवी’ मान कर पूजा जाता है। यह आंकड़े दिखाते हैं कि छोटी बच्चियों के साथ अपराध की दर भारतीय समाज में कितनी ज्यादा है।
क्या है न्यायालय की ऐसी भाषा के मायने?
सामाजिक व्यवस्था में महिला और बच्चियों के साथ होने वाली असमानता, लैंगिक भेदभाव, उत्पीड़न और यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं होती है, केवल कानून और अदालतें ही एकमात्र विकल्प होता है, जिससे लोकतंत्र में नागरिक अधिकारों का बचाव और न्याय की आस होती है। बलात्कार जैसे संगीन अपराध के लिए औरतों के शरीर और पवित्रता से जोड़ने वाली मानसिकता समाज में ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ाती दिखती हैं। महिलाओं और किशोरियों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा एक गंभीर समस्या है। अदालत की ऐसी भाषा न केवल पूर्वग्राही धारणाओं को मजबूत करती है बल्कि महिलाओं के शरीर को लेकर दकियानूसी विचारों को पोषित करती है।
न्याय की प्रक्रिया में ऐसी भाषा का प्रभाव उसके कानूनी पहलू को कमज़ोर करती है। बच्चियों के पवित्र शरीर और धर्म को लेकर समाज में पहले से ही बहुत ही रूढ़िवादी विचार मौजूद है। अदालत का काम कानून के माध्यम से ऐसे विचारों को कमज़ोर करना है। समाज में यौन उत्पीड़न से जुड़े विषयों पर खुलकर तर्क के साथ बात करने की आवश्यकता है। इस सुधार में अदालत के फैसले महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इसलिए हमारी अदालतों को इन घटनाओं के मूल कारण को ध्यान में रखकर संवेदनशील फैसले देने की ज़रूरत है।
और पढ़ेः क्या अब न्यायालय नियम-कानून से परे नैतिकता के आधार पर देंगे न्याय?
तस्वीर साभारः The Leaflet