नारीवाद ‘समानता’ की बात करता है। अधिकारों को सुरक्षित कर विकास की बात करता है, ऐसे में जो भी इंसान अपनी ज़िंदगी में अपने निजी रिश्तों में ये करता है, वो नारीवादी है। पर अगर कोई खुद को नारीवादी के टैग से न जोड़ना चाहे तो ये उसकी अपनी मर्ज़ी है, जिसका हमें पूरा सम्मान भी करना चाहिए। आमतौर पर हम अक्सर ऐसे लोगों से मिलते है या ऐसे लोगों को जानते है जो किसी भी तरह के ‘वाद’ यानी कि किसी भी विचारधारा से खुद का नाम या पहचान जुड़ने से सहज नहीं होते और कई बार साधारण दिखने के चक्कर में लोग ये भी कह देते है कि उनका किसी भी विचारधारा से कोई लेना-देना है। पर सच्चाई यही है कि जब हम उनकी ज़िंदगी में, उनकी रोज़मर्रा की आदतों में, उनकी समझ में या फिर उनके रिश्तों को गहराई से समझने की कोशिश करते हैं तो वहाँ हम कोई न कोई विचारधारा ज़रूर पाते है। ठीक उसी तरह जब हम नारीवाद की बात करते है तो अक्सर लोग खुद को नारीवादी कहलवाने से कतराने लगते है, पर जब हम उनकी जिंदगियों में झांकते है तो पाते है कि वे भी नारीवादी है। उनके मूल्य और उन मूल्यों पर बने उनके रिश्ते का रूप नारीवादी होता है।
आज अपने इस लेख में हम बात करने वाले है ऐसे ही मूल्यों की या सरल भाषा में कहें तो उन आदतों की जो किसी भी रिश्ते को एक स्वस्थ और नारीवादी रिश्ता बनाते है। चूँकि ‘रिश्ता’ एक वृहत शब्द लगता है, जिसके अलग-अलग नाम, मायने और संदर्भ होते। पर इन अलग-अलग दिखाई देने वाले रिश्तों के कुछ बुनियादी मूल्य होते है, फिर वो चाहे आपसी रिश्ते हों, पारिवारिक रिश्ते हो या फिर प्रोफेशनल रिश्ते हो। ये बुनियादी मूल्य ही किसी भी रिश्ते की दिशा-दशा तय करते है। तो आइए बात करते है उन मूल्यों की जो किसी रिश्ते को स्वस्थ और नारीवादी बनाते है –
पति नहीं सारथी : पितृसत्तात्मक मूल्यों, विशेषाधिकार और दमन की पहचान
अक्सर आपने पुरुषों को ये कहते हुए सुना होगा कि ‘हम अपने घर की महिलाओं या अपनी महिला पार्टनर को बहुत छूट देते है। इसलिए तो उन्हें नौकरी या अपना बिज़नेस करने की अनुमति दी हुई है।‘ ये बेहद साधारण वाक्य है, जो आपने कभी न कभी ज़रूर सुना होगा, क्योंकि अक्सर पितृसत्तात्मक हमारे समाज में पुरुष रिश्तों में महिला साथी के लिए ऐसा बोलते है, जो उनके विशेषाधिकार को साफ़ दिखाता है, जिसका अंदाज़ा कई बार उन्हें खुद भी नहीं होता है।
अब हमें समझना होगा कि अगर हम ऐसी बातें कर रहे हैं तो इसका मतलब है कि हमारा रिश्ता बराबरी का है ही नहीं। कोई भी इंसान नौकरी करेगा, अपना बिज़नेस करेगा या फिर वो कुछ नहीं करेगा ये सिर्फ़ और सिर्फ़ उसका अपना फ़ैसला होता है और ये किसी का अधिकार नहीं है जो वो दूसरे के अधिकारों को तय करे। यही विशेषाधिकार और दमन है, जब पुरुष खुद को तथाकथित प्रगतिशील बताते हुए ये बातें कहते हैं और महिलाएँ खुद को उस प्रगतिशील पुरुष का साथी होने मात्र से खुद को अभिभूत महसूस करती है।
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यहाँ नारीवादी रिश्ता वो होगा जब हम अपने विशेषाधिकार और दमन को पहचाने और ये समझे कि हर इंसान का चयन उनका अपना होगा, कोई अपनी मर्ज़ी किसी पर नहीं थोपेगा। इसलिए महिला काम करेगी या नहीं ये उसका निर्णय होगा। ठीक उसी तरह पुरुष ही कमाएगा ये भी ग़लत है, बल्कि यहाँ बात साझेदारी की हो। साझेदारी काम की और अधिकारों की। यहाँ पति (जिसका शाब्दिक अर्थ है मालिक) की नहीं सारथी (जिसका शाब्दिक अर्थ है साथ चलने वाला) को लाने और उसके साथ जीवन बीताने की बात हो न कि सदियों से पितृसत्तात्मक कंडिशनिंग के तहत विशेषाधिकारों से लैस ग़ैर-बराबरी और दमन की।
रिश्ते की नारीवादी डोर : जब ‘सहमति’ और ‘पर्सनल स्पेस’
‘वो हँस रही थी, इसका मतलब है कि वो मुझे पसंद करती है।‘
‘माँ ने कुछ नहीं कहा इसका मतलब है कि उनको बुरा नहीं लगा।‘
‘मैंने अपने पार्ट्नर का मोबाइल चेक किया, वो पार्ट्नर है और इतना तो हक़ है मेरा।‘
अलग-अलग रिश्तों से जुड़ी ऐसी बातें आपने भी कभी न कभी ज़रूर सुनी होगी, जो सीधेतौर पर सहमति से जुड़ी हुई है। किसी भी रिश्ते में सहमति एक ज़रूरी हिस्सा है। कई बार हम किसी इंसान, भाव या रिश्ते को लेकर एक धारणा बना लेते है, अगर वो पार्टनर है तो उसकी हर चीज़ पर मेरा हक़ होगा, अगर वो माँ हैं तो उनको हर चीज़ का त्याग करना होगा, वग़ैरह-वग़ैरह। पर जब बात किसी नारीवादी रिश्ते की आती है तो यहाँ धारणा की नहीं बल्कि सिर्फ़ सवालों की जगह होती है। सवाल किसी के प्रति कोई भी धारणा बनाने से पहले, उसकी पसंद-नापसंद और विचारों की, उसकी सहजता की। इसके साथ ही, हमें ये हमेशा याद रखना होगा कि सहमति वक्त के साथ बदल भी सकती है, इसलिए सहमति की परमिशन हर जगह ज़रूरी है।
नारीवादी रिश्ता वो होगा जब हम अपने विशेषाधिकार और दमन को पहचाने और ये समझे कि हर इंसान का चयन उनका अपना होगा, कोई अपनी मर्ज़ी किसी पर नहीं थोपेगा।
रिश्ते में सहमति से जुड़ा हुआ एक और ज़रूरी पहलू है ‘पर्सनल स्पेस’। कई बार जब हम किसी रिश्ते होते है तो अपने लिए कोइ वक्त नहीं निकाल पाते है या खुद के लिए वक्त निकालना हमारे यहाँ अच्छा समझा ही नहीं जाता है। शादी हुई है तो पार्टनर के साथ पूरा समय, बच्चे हो तो उनके साथ पूरा समय। पर जब हम नारीवादी रिश्ते की बात करते है तो वहाँ पर्सनल स्पेस ज़रूरी होता है। वो वक्त जो खुद का हो और ये रिश्ते के दोनों छोर में बराबरी से लागू होता है। हमें अपने पार्ट्नर के पर्सनल स्पेस को हमेशा स्पेस देना चाहिए और उस स्पेस का सम्मान भी करना चाहिए।
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बात बनेगी : स्वस्थ संवाद और स्पष्ट ना कहने से
संवाद हर रिश्ते की बुनियाद होता है। इसकी भाषा-तरीक़े अलग हो सकते है पर संवाद किसी भी रिश्ते में ऑक्सिजन का काम करता है। पर जब हम किसी भी संवाद में सिर्फ़ अपनी बात ही कहते है, अपनी बातों को मनवाने पर पूरी ऊर्जा लगाते है या अपनी ही बात सुनना चाहते है तो ऐसे में संवाद एकतरफ़ा होता है, जो ग़ैर-बराबरी को बढ़ावा देने लगता है। लेकिन जब हम नारीवादी रिश्ते की बात करते है तो वहाँ दोनों साथियों की बराबर की बात और उस बात में दोनों के अनुभवों-विचारों का बराबरी में आदान-प्रदान किसी भी संवाद को स्वस्थ संवाद बनाता है, जिससे बहुत-सी बातें बनती है।
ठीक उसी तरह साफ़ शब्दों में ना कहना भी किसी भी रिश्ते में पारदर्शिता लाता है। कई बार रिश्ते के संकोच में हम उन चीजों के लिए भी ना नहीं कह पाते जो हमें असहज बनाती है, क्योंकि कहीं न कहीं ये हमारी कंडिशनिंग की वजह से भी होता है। पर नारीवादी रिश्ते हमेशा अपनी असहमति को साफ़ शब्दों में ना कहने को बढ़ावा देती है और ठीक उसी समय पार्ट्नर को इस ‘ना’ सहजता से स्वीकारने की बात करती है।
एक आम कहावत है ताली दोनों हाथ से बजती है, उसी तर्ज़ पर कोई भी रिश्ता नारीवादी रिश्ता तब तक नहीं बन सकता है जब तक दोनों पार्टनर एक-दूसरे की सहमति,अधिकार, पर्सनल स्पेस और ना कहने के विचार का सम्मान न करें। इसलिए आज से अपने रिश्ते को नारीवादी रिश्ता बनाने की दिशा अपने कदम बढ़ाइए, क्योंकि अगर हम बदलाव की कल्पना करते है तो हमें खुद वो बदलाव बनना होगा, जिसकी शुरुआत हमें अपने रिश्तों से करनी होगी।
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तस्वीर साभार : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए