इंटरसेक्शनलजाति अपने काम के ज़रिये ये दलित एक्टिविस्ट्स दे रही हैं ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और जातिवाद को चुनौती

अपने काम के ज़रिये ये दलित एक्टिविस्ट्स दे रही हैं ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और जातिवाद को चुनौती

भारत में सदियों पुरानी इस व्यवस्था के कारण लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन हो रहा है। जाति व्यवस्था की वजह से बड़ी संख्या में लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ता हैं। असमानता को मिटाने के लिए दलित मुक्ति और अधिकारों के लिए लंबे समय से देश में आंदोलन चल रहा है।

भारत में आज भी एक बड़ी आबादी को हिंसा, उत्पीड़न और तिरस्कार का सामना केवल जाति व्यवस्था के कारण करना पड़ता है। भारत में सदियों पुरानी इस ब्राह्मणवादी रूढ़िवादी व्यवस्था के कारण लगातार दलित-बहुजनों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन होता आ रहा है। असमानता को मिटाने के लिए लंबे समय से देश में संघर्ष चल रहा है।

दलित और वंचितों के अधिकार की रक्षा के लिए हर दौर में इन्हीं समुदायों से बड़ी संख्या में इस संघर्ष से लोग जुड़ते हैं जो असमानता को खत्म करने की इस लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज इस लेख में हम सामाजिक न्याय के आंदोलन से जुड़ीं और दलित-बहुजनों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहीं ऐसी ही कुछ दलित महिला एक्टिविस्ट्स के बारे में जानेंगे। ये सभी अपने-अपने क्षेत्रों में सामाजिक न्याय को स्थापित करने की ओर अग्रसर हैं, हाशिये पर रहने वाले लोगों की आवाज़ को पहचान दे रही हैं। जानते हैं देश की प्रमुख दलित एक्टिविस्ट्स के बारे में जिनकी पहचान ही उनका संघर्ष है। 

और पढ़ेंः दलित महिला साहित्यकारों की वे पांच किताबें जो आपको पढ़नी चाहिए

 1. नवदीप कौर

नवदीप कौर
नवदीप कौर, तस्वीर साभार: BBC

25 वर्षीय नवदीप कौर मज़दूरों के हक के लिए काम करने वाली एक युवा दलित एक्टिविस्ट हैं। नवदीप ‘मजदूर अधिकार संगठन’ की सदस्य हैं। यह संगठन औद्योगिक श्रमिकों के अधिकारों के लिए काम करता है। नवदीप मूल रूप से पंजाब की रहनेवाली हैं। उनका पालन-पोषण एक ऐसे परिवार में हुआ जो हमेशा से उत्पीड़न, शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाता रहा है। उनकी मां भी किसान यूनियन की सदस्य रह चुकी हैं। उन्होंने अपने गांव में तथाकथित ऊंची जाति के ज़मींदार द्वारा एक भूमिहीन दलित के बलात्कार का विरोध किया था, जिस वजह से उनके परिवार ने सामाजिक बहिष्कार का सामना किया था।

नवदीप दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई के लिए दिल्ली आई थीं। कुछ समय बाद आर्थिक तंगी के कारण उन्होंने हरियाणा के सोनीपत ज़िले में एक फैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया। फैक्ट्री मालिक द्वारा मज़दूरों के अपमान को देखकर वह परेशान हो गई। उन्होंने न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, महिला श्रमिकों के लिए समान काम के लिए समान वेतन आदि की मांग करना शुरू कर दिया। इन मांगों के लिए मजबूत अभियान चलाने के लिए मजदूर अधिकार संगठन से जुड़ीं। यह संगठन नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के साथ प्रदर्शन का हिस्सा था। उसी दौरान नवदीप कौर को सिंघु बॉर्डर से गिरफ्तार किया गया था। जेल में उनको प्रताड़ित किया गया। नवदीप को हिसारत के दौरान हिंसा का भी सामना करना पड़ा था। उनकी रिहाई की मांग अंतरराष्ट्रीय स्तर तक गई थी। जेल से छूटने के बाद भी नवदीप एक बार फिर से मज़दूरों के हक़ के लिए संघर्ष में शामिल हो गईं।

और पढ़ेंः बात हिंदी दलित साहित्य में आत्मकथा विमर्श और कुछ प्रमुख आत्मकथाओं की

2. किरूबा मुनुसामी

तस्वीर साभारः GenderIT.org

किरूबा मुनुसामी देश में जाति-विरोधी आंदोलन की एक मज़बूत आवाज़ हैं। किरूबा मुनुसामी, भारत के सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं। वह एक लेखक, शोधकर्ता हैं और सामाजिक न्याय की दिशा में काम करती हैं। वह भारत में अलग-अलग मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ़ काम कर रही हैं। इसमें जाति और लिंग आधारित भेदभाव, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, दलितों के खिलाफ हिंसा, शैक्षणिक संस्थाओं में भेदभाव और हाथ से मैला उठाने की प्रथा की समाप्ति शामिल है।

वह अपने काम के माध्यम से जाति के उन्मूलन, दलित महिला सशक्तिकरण और एलजीबीटीक्यू+ अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भरपूर समर्थक हैं। उन्होंने मानवाधिकार के संरक्षण के लिए अदालतों में कई जनहित याचिकाएं दायर की हैं। कानूनी काम से अलग वह दलित महिलाओं और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों को उनके मौलिक अधिकार और उल्लंघन पर कानूनी जानकारी के लिए जागरूकता अभियान का भी संचालन करती हैं। वह तमिल और अंग्रेजी में लिखने का काम भी करती हैं।

3. रूथ मनोरमा

तस्वीर साभारः facebook

रूथ मनोरमा, एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने साल 1995 में ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित वुमन’ की स्थापना की थी। यह संगठन दलित महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण के लिए काम करता है। अपने काम के माध्यम से मनोरमा ने दलित महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण के लोगों को संगठित किया। दलित महिलाओं के अधिकार और विभिन्न सामाजिक आंदोलनों के बीच गठबंधन बनाने के लिए पूरे देश की यात्राएं की। दलित महिलाओं के समान अधिकारों के लिए काम के लिए साल 2006 में उन्हें ‘राइट लिवलीहुड अवार्ड’ से सम्मानित किया गया। 

और पढ़ेंः 5 दलित लेखिकाएं जिनकी आवाज़ ने ‘ब्राह्मणवादी समाज’ की पोल खोल दी !

4. गौरी कुमारी

तस्वीर साभारः Scoopwhoop

गौरी कुमारी, दलित अधिकारों के लिए काम करती हैं और पेशे से एक वकील हैं। 20 साल से ज्यादा समय से वह मुंगेर सिविल कोर्ट, बिहार में कानून की प्रैक्टिस कर रही हैं। बिहार में दलित महिलाओं के अधिकारों की दिशा में काम करने वाली एक मज़बूत आवाज़ हैं। वह मुंगेर बार काउंसलिंग की पहली महिला उपाध्यक्ष बनीं। यही नहीं, वह बिहार में जुवेनाइल कोर्ट की सदस्य बनने वाली भी पहली महिला हैं। उन्होंने लगातार छह साल तक जुवेनाइल जस्टिस के लिए काम किया।    

5. ग्रेस बानो

तस्वीर साभारः CRRSS

ग्रेस बानो देश की पहली ट्रांस महिला हैं जिन्होंने इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया था। ग्रेस बानो ने दलित और ट्रांसपर्सन होने के कारण दोहरी असमानता का सामना किया है। जिंदगी में शोषण, असमानता और तिरस्कार के अनुभवों के बारे में वह मुखर होकर सबके सामने रखती हैं। ग्रेस बानो, ट्रांस समुदाय के आरक्षण की मांग करती हैं। ग्रेस बानो के ट्रांस समुदाय के उत्थान के लिए किए काम के लिए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने उन्हें सम्मानित किया। तमिलनाडु में अवार्ड की इस कैटेगरी को हाल ही में शुरू किया गया जिसके अंतर्गत सम्मानित होनेवाली ग्रेस बानो पहली ट्रांस महिला हैं।   

6. राधिका वेमुला

तस्वीर साभारः Times Of india

राधिका वेमुला जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ काम करनेवाले लोगों में शामिल एक मजबूत शख्सियत हैं। जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपने बेटे रोहित वेमुला द्वारा शुरू किए गए काम को जारी रखे हुए आज राधिका वेमुला देश में जातीय हिंसा के खिलाफ लगातार संघर्ष कर रही हैं। साल 2016 में हैदराबाद यूनिवर्सिटी में संस्थागत जातिवादी भेदभाव के कारण रोहित वेमूला की आत्महत्या से मौत हो गई थी। तभी से राधिका वेमुला यूनिवर्सिटी और अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने की मांग कर रही हैं। राधिका आज जगह-जगह जाकर जाति व्यवस्था के खिलाफ़ अपनी बात रख रही हैं। 14 अप्रैल 2016 में राधिका वेमुला ने 125वीं आंबेडकर जंयती पर बौद्ध धर्म अपना लिया था।

और पढ़ेंः मुक्ता साल्वे : आधुनिक युग की पहली दलित लेखिका


नोट : यह सूची अपने आप में संपूर्ण नहीं हैं। ऐसी कई और प्रभावशाली दलित महिलाएं हमारे देश में मौजूद हैं जो लगातार अपने जातिवादी समाज और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से संघर्ष कर रही हैं।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content