पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के परिसर में छात्रों के दो समूह के बीच हॉस्टल कैंटीन में कथित तौर पर मांसाहारी खाना परोसे जाने को लेकर हिंसा की गई। इस घटना के बाद, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ ने आरोप लगाया कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यों ने मेस सचिव के साथ मारपीट की और कर्मचारियों को होस्टल में रामनवमी के मद्देनज़र मांसाहारी खाना परोसने से रोका। हालांकि यह पहली बार नहीं है जब लोगों के खाने की पसंद को लेकर भारत में राजनीति की गई हो।
भारत में राज्य सरकारों के मिड-डे मील में बच्चों के लिए अंडे का प्रावधान करने के सालों बाद, आज कई राज्यों ने इस प्रावधान को पूरी तरह बंद कर दिया है। सालों से हम नेशनल एग कॉर्डिनेशन कमिटी (एनईसीसी) का विज्ञापन ‘संडे हो या मंडे, रोज़ खाए अंडे’ देखते आए हैं। चूंकि अंडा पोषण के मामले में दूसरे शाकाहारी फल या सब्जी से कहीं अधिक पौष्टिक और सस्ता होता है, इसलिए लोगों के बीच इसकी जागरूकता और उनके दैनिक आहार में इसे प्रचलित करने की ज़रूरत थी। गरीबी और कुपोषण से जूझते हुए देश में लोगों का विशेषकर बच्चों का संज्ञानात्मक विकास अच्छी तरह हो, इसके यह एक महत्वपूर्ण कदम था।
और पढ़ें: भारत में कुपोषण से जूझ रहे लाखों बच्चों की सुध कब ली जाएगी?
किसी भी देश में आम लोगों का खान-पान मूल रूप से उनके आर्थिक, सामाजिक या धार्मिक स्थिति पर निर्भर करता है। लेकिन एक स्वतंत्र देश में व्यक्ति को अपना खाना खुद पसंद करने की छूट होनी चाहिए। इसके अलावा, बच्चों को मिड-डे मील देने का उद्देश्य उन्हें स्कूल आने के लिए प्रोत्साहित करना भी है। आज भी हाशिए पर जी रहे लाखों ऐसे परिवार हैं जिनके लिए पौष्टिक खाना जुटा पाना एक विलासिता है।
हाल ही में बीजेपी शासित कर्नाटक में कुपोषण से ग्रसित बच्चों को मिड-डे मील में अंडे देने का प्रावधान एक नई राजनीतिक और वैचारिक मतभेद और लड़ाई का आधार बन गया।
बच्चों को स्कूल भेजने से आर्थिक बोझ बढ़ता है और इसलिए यह उनके लिए व्यावहारिक नहीं था। लेकिन मिड-डे मील की शुरुआत के बाद, इस परिदृश्य में जबरदस्त बदलाव आया। लोगों ने न सिर्फ अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू किया बल्कि यह उनके लिए बच्चों को कम से कम एक समय का पौष्टिक भोजन मुहैया कराने का ज़रिया भी बन गया। इसके अलावा, जिस तरह जेएनयू जैसे बड़े और प्रभावशाली विश्वविद्यालय में शिक्षित और जागरूक बच्चे अपने खाने के विकल्प जैसे बुनियादी अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसा प्रतिरोध सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चों के आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित परिवारों के लिए संभव नहीं।
और पढ़ें: पितृसत्ता से जुड़ी है कोविड-19 से उपजी महिलाओं की बेरोज़गारी और खाद्य संकट
किन राज्यों ने मिड-डे मील में मांसाहारी भोजन देना बंद किया
हाल ही में बीजेपी शासित कर्नाटक में कुपोषण से ग्रसित बच्चों को मिड-डे मील में अंडे देने का प्रावधान एक नई राजनीतिक और वैचारिक मतभेद और लड़ाई का आधार बन गया। कुछ धार्मिक समूहों के दबाव के बावजूद, कर्नाटक सरकार ने 6 जिलों में स्कूली छात्रों के भोजन में अंडे को शामिल करने पर पुनर्विचार करने की बात कही है। वर्तमान में, कुल मिलाकर 13 राज्य और 3 केंद्र शाषित प्रदेश स्कूली छात्रों को मिड-डे मील में अंडे दे रहे हैं। लेकिन यहां भी अलग-अलग राज्यों के अलग नियम हैं। जहां तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश अपने राज्य के बच्चों को मिड-डे मील में हफ्ते में हर कामकाजी या पांच दिन अंडे देती है, वहीं ओडिशा और पुडुचेरी हफ्ते में सिर्फ दो दिन ही बच्चों को अंडे दिए जाते हैं। वहीं कई राज्यों में भारत को ‘शाकाहारी’ देश घोषित कर या बच्चों को स्कूल में पूरी तरह शाकाहारी भोजन का विकल्प दिया जा रहा है।
उदाहरण के लिए, हाल ही में केरल हाई कोर्ट ने लक्षद्वीप सरकार के मिड-डे मील के मेन्यू में मीट और चिकन पर प्रतिबंध लगाने के निर्णय पर स्टे ऑर्डर जारी किया। कोर्ट ने कहा कि लक्षद्वीप सरकार के इस फैसले से बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर होगा और इसलिए फैसले को तत्काल स्थगित कर दिया। लक्षद्वीप स्कूली बच्चों को हफ्ते में चार बार मांसाहारी भोजन दिया करता था। गौरतलब हो कि ये सारे राज्य या तो भाजपा शाषित है या फिर ये केंद्र शाषित राज्य होने के कारण केंद्र सरकार के अंतर्गत ही आते हैं।
और पढ़ें: कोविड-19, खाद्य सुरक्षा और कुपोषण: कितना तैयार है भारत ?
बात मिड-डे मील में शाकाहारी खाने या बजट की
साल 1995 में शुरू की गई केंद्र प्रायोजित मिड-डे मील योजना भारत में शुरू किए गए सबसे सफल कार्यक्रमों में से एक है। यह कार्यक्रम भारत में स्कूलों में बच्चों की संख्या, उनका प्रतिधारण, उपस्थिति और उनके पोषण की स्थिति में महत्वपूर्ण बदलाव लाने में कामयाब रहा। आज अधिकतर राज्य न सिर्फ इस योजना में मांसाहारी भोजन की कटौती की है या बंद कर दिया है, बल्कि मांसाहारी खाने के बदले शाकाहारी खाद्य वस्तुओं की पूर्ति भी ठीक तरह नहीं कर पाई है। साल 2018 में केंद्र सरकार के राज्यों से मिड-डे मील में दूध को शामिल करने के प्रस्ताव देने के बावजूद सिर्फ कुछ ही राज्य बच्चों को मिड-डे मील में दूध देते हैं।
फल के मामले में भी स्कूलों में नियमित रूप से बच्चों को फल दिए जाने की खबर नहीं मिलती। साल 2014 -15 में मिड-डे मील योजना के लिए केन्द्र सरकार का बजटीय आवंटन 11,051 करोड़ थे जिसे साल 2015-16 में घटाकर 9,236 करोड़ किया गया। इसके बाद साल 2019-20 तक मिड-डे मील योजना के बजट में कोई खास परिवर्तन नहीं किया गया था। साल 2019-20 के बजट में यह 9912 करोड़ था जिसे साल 2020-21 में अब बढ़ाया गया है।
इसलिए बात जब मिड-डे मील की होती है, तो यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह हाशिए पर जी रहे परिवारों के बच्चों के लिए है। कुपोषण न सिर्फ एक शारीरिक बल्कि मानसिक, आर्थिक और सामाजिक समस्या भी है। कुपोषण की चपेट से हम तभी निकल सकते हैं जब भोजन की राजनीति से इसे दूर रखा जाए, एक लोकतांत्रिक देश में सबको अपनी मर्ज़ी से खाने का अधिकार हो।
मिड-डे मील में अंडे को शामिल करने पर क्यों दिया जा रहा है ज़ोर
मिड-डे मील में अंडे को शामिल करने के पीछे एक अकेले खाद्य वस्तु की पौष्टिकता का महत्व तो है ही लेकिन दूसरे सब्जी, फल या दूध की तुलना में इसका रख-रखाव और आपूर्ति भी अधिक किफायती और आसान है। बात अंडे के मुकाबले सोयाबीन, दाल, दूध या केले की करें, तो अधिकतर चीज़ें अंडे से बहुत ज्यादा महंगी हैं। पौष्टिकता की तुलना करें, तो एक उबला अंडा 13 ग्राम तक प्रोटीन देता है, जबकि एक केला 1.1 से 1.3 ग्राम और एक गिलास दूध केवल 6 से 8 ग्राम प्रोटीन प्रदान करता है।
साथ ही, एक अंडा आयरन, विटामिन, मिनरल और कैरोटेनॉयड्स के साथ 1.6 ग्राम सैचुरेटेड फैट भी प्रदान करता है। बच्चों के शुरुआती उम्र में अंडे से उनके कोलेस्ट्रॉल या वजन बढ़ने का कोई खतरा नहीं होता। अंडा मैक्रो और माइक्रो दोनों तरह के पोषक तत्वों का स्रोत है। द नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इनफार्मेशन (एनसीबीआई) के अनुसार इसमें पाए जाने वाले पोषक तत्वों के विविधता और सही संतुलन के कारण अंडा आसानी से पचता है।
और पढ़ें: कुपोषण से बचाने वाली आंगनवाड़ी कार्यकर्ता की तनख्वाह कुपोषित क्यों है?
भारत में कितने लोग हैं शाकाहारी और क्या है कुपोषण की स्थिति
मौजूदा समय में राजनीतिक पार्टियों या धार्मिक गुरुओं के कथित बयानों के उलट, असल में, भारत में हर तीन में से दो भारतीय मांसाहारी भोजन खाते हैं। द प्रिंट में छपी नेशनल फॅमिली हेल्थ सर्वे- 5 (एनएफएचएस) के आधार पर एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर जगह मांसाहारी खाने का चलन समान रूप से नहीं पाया जाता, लेकिन भारत में अधिकांश लोग शाकाहारी नहीं हैं। विभिन्न राज्यों के आंकड़ों का विश्लेषण करें, तो पता चलता है कि देश के उत्तरी और मध्य भागों में अधिक संख्या में लोग शाकाहारी हैं। एनएफएचएस-5 के आंकड़े बताते हैं कि औसतन केवल 23 फीसद महिलाएं और 15 फीसद पुरुष पूरी तरह शाकाहारी हैं।
गौरतलब है कि एनएफएचएस-5 के आंकड़े अनुसार भारत में 5 साल से कम उम्र के हर 3 में से 1 बच्चा अपनी उम्र के हिसाब से अविकसित या कम वजन का है। साल 2021 की वैश्विक पोषण रिपोर्ट बताती है कि भारत ने पांच साल तक के बच्चों के वेस्टिंग में भी कोई प्रगति नहीं की है। ये सभी सूचक शहरी क्षेत्रों के मुकाबले गावों में कहीं अधिक चिंताजनक है। इसलिए बात जब मिड-डे मील की होती है, तो यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह हाशिए पर जी रहे परिवारों के बच्चों के लिए है। कुपोषण न सिर्फ एक शारीरिक बल्कि मानसिक, आर्थिक और सामाजिक समस्या भी है। कुपोषण की चपेट से हम तभी निकल सकते हैं जब भोजन की राजनीति से इसे दूर रखा जाए, एक लोकतांत्रिक देश में सबको अपनी मर्ज़ी से खाने का अधिकार हो और सामुदायिक स्तर पर सब मिलकर इसका मुकाबला करें।
और पढ़ें: सरकार से मिले कुपोषण के खिलाफ़ महिला कर्मचारियों की लड़ाई
तस्वीर साभार: The Wire Science