बीते 2 सालों से कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया की व्यवस्था को बिल्कुल रोक दिया था, इस दौरान जहां हर कोई अपने घरों मे बंद था, सड़कें, दफ्तर, स्कूल सभी ठप पड़ गए थे। फिर भी कुछ लोग इस दौरान भी इस परिस्थिति की शक्ल बदलने के लिए रोज़ अपनी और अपने परिवार की जान दांव पर लगाकर एक बेहतर कल के लिए काम कर रहे थे। कौन थे ये लोग? ये वही लोग हैं जिन्होंने महामारी के पहले से अब तक बदलाव की व्यवस्था में एक अहम किरदार निभाया है, जो सिर्फ किसी एक समाज, राज्य या देश की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की हर एक प्रक्रिया के मानवीय ढ़ाचों की रीढ़ की हड्डी रहे हैं। लॉकडाउन के दो साल बाद की सभी पाबंदियों से निकलने के बाद इस बार पहला अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस मनाया गया।
“पृथ्वी शेषनाग के सिर पर नहीं मजदूरों के हथेली पर स्थिर है -अण्णाभाऊ साठे”
महामारी के दौरान लगे लंबे समय के लॉकडाउन ने भारत में श्रमिक वर्ग के हालात को और चुनौतीपूर्ण बनाया। इस दौरान आई कई न्यूज़ रिपोर्ट और रिसर्च के ज़रिये देशभर में श्रमिक मजदूरों की गंभीर हालत केवल भारत ही नहीं दुनियाभर में सामने आई। सरकारें मज़दूरों की गंभीर स्थिति के प्रति बिल्कुल उदासीन दिखीं। लाखों की संख्या में मज़दूर हज़ारों किलोमीटर चले। ये वही सरकार है जो कोविड के दौरान धार्मिक कार्यक्रमों और चुनावों में पूरी तरह तत्पर दिखी।
लेकिन इसी सरकार के पास लाखों प्रवासी मजदूरों के घर लौटने के असाधारण निर्णय पर रोक लगाने के लिए या उन्हें सही सलामत घर पहुंचाने के लिए कोई उपाय या योजना नहीं थी, न कोरोना से पहले ना उसके बाद। जहां इस सरकार ने कोविड-19 के नाम पर पीएम केयर फंड जमा किया पर मजदूरों को इस महामारी से बचाने के लिए इस फंड का इस्तेमाल होता नहीं दिखा। चाहे वह उत्तर प्रदेश हो या महाराष्ट्र या देश की राजधानी दिल्ली। ये सभी राज्य अपने हताश मजूदरों को रोकने या उनकी घर वापसी जैसे सवालों के उपाय खोजने मे नाकाम रहे है।
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पूंजीवाद और मज़दूरों का शोषण
पूंजीवाद हर वक्त अपने फायदे के लिए मजदूरों का शोषण करता आया है। इस शोषण का इतिहास काफी पुराना है। निजीकरण, सरकार का कम से कम हस्तक्षेप, फ्री मार्केट जैसे तत्वों पर आधारित पूंजीवाद किस तरीके से मज़दूरों का लगातार शोषण करता आया है वह कोविड-19 लॉकडाउन में हमें साफ-साफ नज़र आया। कोरोना महामारी के सिखाए पाठ के बाद भी हमारी सरकारें मज़दूरों के हक़, उनके अधिकारों, गैरबराबरी और गरीबी जैसे मुद्दों को अनदेखा किए जा रही हैं। समावेशी विकास से तो हमारी सरकारों को ऐसा परहेज है, जैसे इसे छूते ही विकास का स्तर नीचे आ गिरेगा। हमारी मौजूदा सरकार विकास के दावे करती है पर क्या इसका लाभ मजदूरों को हुआ? नहीं! बिल्कुल भी नहीं। अगर ऐसा होता तो आज भी मजदूरों के न्यूनतम वेतन और एक सामान्य कर्मचारी को मिलनेवाले वेतन मे इतना बड़ा अंतर नहीं होता।
पूंजीवाद हर वक्त अपने फायदे के लिए मजदूरों का शोषण करता आया है। इस शोषण का इतिहास काफी पूराना है। निजीकरण, सरकार का कम से कम हस्तक्षेप, फ्री मार्केट जैसे तत्वों पर आधारित पूंजीवाद किस तरीके से मज़दूरों का लगातार शोषण करता आया है वह कोविड-19 लॉकडाउन में हमें साफ-साफ नज़र आया।
पूंजीवाद ने हमेशा ही फ्री मार्केट तथा नियोलिबरलीज़म जैसे तत्वों की सहायता से मोनोपॉली लाकर, सरकारों को फंड कर कानूनों में अपने फायदे के मुताबिक बदलाव लाने चाहे हैं। इसका बेहतरीन और ताजा उदाहरण है श्रम कानूनों मे लॉकडाउन की परिस्थिति मे लाए गए बदलाव। इन बदलावों के खिलाफ़ देशभर में प्रदर्शन हुए, किसान कानून जिसके लिए किसानों ने 378 दिनों तक संवैधानिक माध्यमों से प्रदर्शन किया जिसमें सैकड़ों किसानों ने अपने हक के लिए अपनी जान तक गंवा दी। भारत में पूंजीवादियों के बढ़ते कंट्रोल के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक प्रोग्राम में कहते हैं कि, “government has no business to be in business।” प्रधानमंत्री की तरफ से ऐसा बयान आना पूंजीवाद को बढ़ावा देना ही है।
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पूंजीवाद के इसी शोषण के ख़िलाफ़ सब से पहले आवाज़ उठी अमेरिका में साल 1886 में जब मजदूर संगठनों द्वारा एक शिफ्ट में काम करने की अधिकतम सीमा 8 घंटे करने के लिए हड़ताल की जा रही थी। इस हड़ताल के दौरान एक अज्ञात शख्स ने शिकागो की हेय मार्केट में बम फोड़ दिया। इसी दौरान पुलिस ने मजदूरों पर गोलियां चला दीं, जिसमें 7 मजदूरों की मौत हो गई। इस घटना के कुछ समय बाद ही अमेरिका ने मजदूरों के एक शिफ्ट में काम करने की अधिकतम सीमा 8 घंटे निश्चित कर दी थी। तभी से ‘अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस’ 1 मई को मनाया जाता है। इसे मनाने की शुरुआत शिकागो में ही 1886 से की गई थी।
सब से अहम सवाल उठता है कि नियोलिबरलीज़म, फ्री मार्केट और पूंजीवादी व्यवस्था को हर तरह की सुविधाएं इस देश की सरकारों की तरफ से दी गई। इस व्यवस्था की सफलता के हमेशा गुम गाए गए तो इसका फायदा मजदूरों को मिलता क्यों नहीं नज़र आता? यह पूरी व्यवस्था तो उनके ही श्रम पर टिकी है। इसका जवाब साफ है कि इस व्यवस्था का फायदा कुछ चंद मुट्ठीभर पूंजीपतियों को ही हुआ है और हो रहा है। हमारा मजदूर वर्ग आज भी उसी दोह राहे पर खड़ा है।
अगर भारत की बात की जाए तो भारत में इसे सब से पहले लोगों के सामने रखा बाबा साहब आंबेडकर ने। उन्होंने साल 1936 मे इंडिपेंडेट लेबर पार्टी बनाई और तब से लेकर संविधान बनाने तक उन्होंने श्रमिकों के साथ जुड़कर उनके जमीनी मुद्दों को समझा और उनके हक को कानूनों मे बदल समान काम के लिए समान वेतन, पेंशन, स्ट्राइक का हक, काम करने की उम्र, स्वास्थ्य और संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को कानूनों मे तब्दील किया। वहीं, भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने इन बातों पर गौर करते हुए फेबियन समाजवाद की सोच को प्रस्तावित किया, जहा उन्होंने पब्लिक सेक्टर यूनिट, मिक्स्ड इकोनॉमी मॉडेल, जैसे उपायों को सामने लाया। इसके बावजूद इस सोच को आगे की सरकारें संभाल नहीं पाई और फिर भारत फ्री मार्केट और नियोलिबरलीज़म के चंगुल में जाता गया।
सब से अहम सवाल उठता है कि नियोलिबरलीज़म, फ्री मार्केट और पूंजीवादी व्यवस्था को हर तरह की सुविधाएं इस देश की सरकारों की तरफ से दी गई। इस व्यवस्था की सफलता के हमेशा गुम गाए गए तो इसका फायदा मजदूरों को मिलता क्यों नहीं नज़र आता? यह पूरी व्यवस्था तो उनके ही श्रम पर टिकी है। इसका जवाब साफ है कि इस व्यवस्था का फायदा कुछ चंद मुट्ठीभर पूंजीपतियों को ही हुआ है और हो रहा है। हमारा मजदूर वर्ग आज भी उसी दोह राहे पर खड़ा है।
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तस्वीर साभार: PTI