पश्चिमी उत्तर प्रदेश मेरठ के गांव सिसौला बुजुर्ग की रहनेवाली हिना सैफ़ी एक युवा पर्यावरण संरक्षण कार्यकर्ता हैं। वह संयुक्त राष्ट्र की ओर से घोषित भारत के 17 यंग क्लाईमेंट चेंज लीडर में से एक हैं। यूएन के इस अभियान से जुड़ने से पहले से हिना अपने गांव में बच्चों की शिक्षा और पर्यावरण के लिए काम कर रही हैं। हिना की आज एक पहचान है लेकिन यहां तक का सफ़र उनके लिए आसान नहीं रहा है। गांव में सिर्फ मिडिल स्कूल होने की वजह से उनकी खुद की पढ़ाई छूटने की स्थिति बन गई थी। उसके बाद उन्होंने अपनी मौसी के यहां जाकर 10वीं की पढ़ाई पूरी की। 12वीं तक की पढ़ाई हां-ना के बीच पूरी करने के बाद रेगुलर कॉलेज तक का सफर तय करनेवाली वह अपने परिवार की पहली लड़की हैं।
फिलहाल, हिना मेरठ के एक निजी कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रही हैं। कॉलेज से लौटने के बाद वह अपने पड़ोस के बच्चों को भी पढ़ाती हैं। हिना की सामाजिक कार्यों में रुचि एक लोकल एनजीओ ‘एन ब्लॉक’ से जुड़ने के बाद में हुई थी। इसी संस्था के प्रमुख मुकेश कुमार के सहयोग की वजह से ही हिना अपनी पढ़ाई जारी रखने में कामयाब हुई। वर्तमान में हिना ‘क्लाइमेट एजेंडा’ नामक एक संस्था से जुड़ी हुई हैं जिसके साथ मिलकर वह पर्यावरण संरक्षण, हवा की गुणवत्ता और रिन्यूएबल एनर्जी के प्रति लोगों में जागरूकता पहुंचाने के लिए काम कर रही हैं।
इसी संस्था की उनकी मैडम सानिया अनवर के सहयोग से वह पर्यावरण के मुद्दे को समझ रही हैं और इस दिशा में काम कर रही हैं। अपनी पढ़ाई के साथ-साथ दुनिया के स्वास्थ्य की फ्रिक करनेवाली हिना का कहना है कि हम सब एक ज़िम्मेदार नागरिक का दायित्व तभी पूरा कर पाएंगे जब हमारी हवा साफ होगी। एक छोटे से गांव से ताल्लुक रखने वाली हिना ने खुद की पढ़ाई के लिए संघर्ष से लेकर एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर अपनी पहचान और अपने विचारों को फेमिनिज़म इन इंडिया के साथ साझा किया। पेश है उनके साथ हुई बातचीत के मुख्य अंश।
फेमिनिज़म इन इंडियाः वह क्या वजह थी जिसकी वजह से आप पर्यावरण के मुद्दे के प्रति जागरूक हुईं। आपकी क्या प्रेरणा थी कि आप इतनी छोटी उम्र में एनवायरमेंट एक्टिविज़म में आ गईं?
हिनाः जब मैं कक्षा सात में थी, तो हमारे स्कूल में एक लोकल एनजीओ ‘एन ब्लॉक’ की एक टीम आई थी। उन्होंने हमारे गांव में बच्चों के स्कूल जाने को लेकर एक सर्वे किया था उस टीम में हम कुछ बच्चों को हिस्सा बनाया गया था, उनमें से एक मैं भी थी। टीचर के साथ मैं पहली बार गांव में बच्चों की शिक्षा के लिए जागरूकता के अभियान से जुड़ी। हमारे गांव में बाल मजदूरी एक बहुत बड़ी समस्या है, बच्चे स्कूल नहीं जाते थे, फुटबॉल सीने का काम बचपन में करना शुरू कर देते हैं। उस समय के बाद से मैं इस एनजीओ से जुड़ी। अपने गांव के छोटे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।
इसी सिलसिले में 2018 में पहली बार लखनऊ में गई वहां एक पर्यावरण से जुड़े सेमिनार में शामिल हुई। बनारस की एनजीओ ‘क्लाइमेट एजेंडा’ के एक सेमिनार में पहली बार मुझे पर्यावरण के मुद्दे के बारे में बहुत जानकारी मिली। मुझे उसके बाद लगा कि पर्यावरण के बारे में मुझे अपने आस-पास के लोगों को भी जानकारी देनी चाहिए। ये कितनी गंभीर समस्या है जो हम इंसान अपने लिए खुद बना रहे हैं। मुझे अपने शहर की हवा की गुणवत्ता को लेकर फ्रिक हुई और यह जानने की कोशिश की कि हमारे शहर का AQI क्या है। फिर यहां के पॉल्यूशन बोर्ड में एक ज्ञापन दिया, पूछा कि शहर में हवा की गुणवत्ता को जांचने के लिए कितने मशीन लगे हुए हैं। स्थिति को जानने के लिए डेटा होना भी बहुत ज़रूरी है। पर्यावरण एक सोशल जस्टिस का मामला है। यह एक माहौल से जुड़ी तब्दीली नहीं है बल्कि इंसाफ का मसला है तो मुझे लगा कि इसके लिए यूथ को आगे आना बहुत ज़रूरी है।
और पढ़ेंः पर्यावरण सरंक्षण के लिए विश्व स्तर पर लड़ने वाली ये पांच महिला पर्यावरणविद्
भारत में पर्यावरण की इस स्थिति को लेकर हर आदमी जिम्मेदार है। हम आम आदमियों को इसको लेकर बहुत गंभीर होने की ज़रूरत है। हमें अपने-अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है न कि एक-दूसरे पर चीजों को थोपने की। हमें शुरूआत खुद से शुरू करनी होगी। हमें अपनी जड़ों में इस तरह के सुधार करने होंगे।
फेमिनिज़म इन इंडियाः आप जिस क्षेत्र से आती हैं वहां पर एक लड़की की पर्यावरण के लिए फ्रिक को देखकर परिवार और लोगों का कैसा व्यवहार था?
हिनाः परिवार को समझाना ही सबसे बड़ी मुश्किल थी, क्योंकि मैं जहां से ताल्लुक रखती हूं वहां पर लड़कियाें का पढ़ना ही बहुत बड़ी बात है। सब ये सोचते थे कि स्कूल तक पढ़ लेगी और थोड़ी सी उर्दू सीख लेगी बस। घर में छोटे बच्चों को पढ़ाती थी उसके लिए सबकी मंजूरी थी लेकिन घर से बाहर निकलकर कुछ करना बहुत बड़ा काम था। एनजीओ के लोग हमारे घर आते थे लगातार मेरी लगन और विचारों के बारे में घर के बड़ों को बताते थे। मेरी दादी जो मेरी लिए बहुत अहमियत रखती हैं, हालांकि अब वह इस दुनिया में नहीं रही हैं वह मेरी सबसे बड़ी सपोर्ट सिस्टम थी और आज भी हैं। मैं उन्हें कहती थी कि एक दिन आप मेरे ऊपर फक्र करेंगी। मैं जो भी कर रही हूं उसके पीछे मेरा परिवार सबसे बड़ी वजह है। मेरा पढ़ना हो या फिर दूसरे शहर जाकर सेमिनार से जुड़ना। लखनऊ जाना मेरे लिए ही नहीं मेरे घरवालों के लिए बहुत बड़ा कदम था। सब लोग यही सोचते थे कि एक लड़की क्या कर सकती है। वह पर्यावरण को एक मसला ही नहीं समझते थे और न ही समझना चाहते थे और मुझे लगता है कि मैं समझा कर ही छोडूंगी। इसके लिए कई कदम उठाने ज़रूरी हैं और पर्यावरण को लेकर लोगों के बीच लगातार बात करना उनमें से एक है।
फेमिनिज़म इन इंडियाः भारत में पर्यावरण के विषय के बारे में ज्यादा चर्चा नहीं है। आपके अनुसार इस गंभीर समस्या को नकारने के क्या कारण है?
हिनाः पहली बात तो भारत जैसे देश में पर्यावरण बड़ी संख्या में लोगों के लिए कोई चिंता का विषय नहीं हैं। शहर वाले सोचते हैं गांव से आ रहा है और गांव वाले सोचते हैं कि शहर प्रदूषण फैला रहा है। सरकारें भी एक-दूसरे पर आरोप लगाती हैं। कोई इसे समझने को तैयार नहीं है। मामला इधर-उधर चलता रहता है। भारत में पर्यावरण की इस स्थिति को लेकर हर आदमी ज़िम्मेदार है। हम आम आदमियों को इसे लेकर बहुत गंभीर होने की ज़रूरत है। हमें अपने-अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी को गंभीर होकर समझने की ज़रूरत है न कि एक-दूसरे पर चीज़ों को थोपने की। हमें शुरुआत खुद से करनी होगी। हमें अपनी जड़ों में इस तरह के सुधार करने होंगे।
फेमिनिज़म इन इंडियाः यूएन के साथ #WeTheChangeNow अभियान के साथ जुड़ने को लेकर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? आप देश के 17 युवा क्लाइमेट एक्टिविस्ट में से एक हैं। इस कैंपेन पर काम करना कैसा रहा?
हिनाः यूएन के इस कैंपेन के लिए ‘क्लाइमेट एजेंडा’ की ओर से मुझे नाॉमिनेट किया गया था। मुझ जैसे हज़ारों लोगों ने अप्लाई किया होगा लेकिन जब मुझे मेरी मैम ने फोन करके बताया कि मुझे चुना गया है, हम इस कैंपेन के लिए काम करेंगे तो मैं बहुत भावुक हो गई थी। मेरी दादी मुझे उस दिन बहुत याद आ रही थीं। उन्होंने मुझे सबसे ज्यादा सपोर्ट किया था। घरवाले भी इस बात को समझ रहे थे कि यह एक बड़ी बात है। ये मेरे लिए ही नहीं मेरे गांव की और लड़कियों के लिए भी अच्छा है। मेरा यह जो चयन है ये और लड़कियों को स्कूल में पढ़ाने के लिए प्रेरित करेगा और बेशक पर्यावरण के मुद्दे के लिए तो लोगों को सोचने पर मज़बूर तो करेगा ही। इस कैंपेन के दौरान हमने मुख्य रूप से ‘सूर्य से समृद्ध’ एक कैंपेन चल रहा था, हम सोलर एनर्जी के प्रयोग पर बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे थे। हमें यूएन की ओर से ट्रेनिंग दी गई। हमारी वर्कशॉप हुई है। हमने लोगों को जागरूक करने के लिए रैलियां निकाली, वर्कशॉप का आयोजन किया।
और पढ़ेंः इन तरीकों को अपनाकर आप कम कर सकते हैं अपना कार्बन फुटप्रिंट
फेमिनिज़म इन इंडियाः ज्यादा से ज्यादा युवाओं को पर्यावरण के विषय से जोड़ने को लेकर आप क्या राय रखती हैं?
हिनाः देखिए युवा लोगों को बड़ी संख्या में पर्वायवरण के लिए संवेदनशील होने की बहुत ज़रूरत है। इसके लिए मैकेनिज़म होना चाहिए जिससे कि लोग खुद ही इस विषय की गंभीरता को समझें। ये नहीं है कि हम समझा रहे हैं तो उनको समझ नहीं आ रहा है लेकिन चीजों को याद रखने और गंभीरता के लिए लगातार इस पर बात होने की भी बहुत ज़रूरत है। अभी हाल में हमने बनारस में घाट पर एक ऐसे ही कार्यक्रम का आयोजन किया। वहां नकली फेफड़े कपड़े से बनाकर लगाए गए, लोगों को समझाने के लिए की खराब हवा कैसे हमारे लिए खतरनाक है। वहां मौजूद लोगों ने इसको बहुत गंभीरता से लिया, बातों को समझा, निजी तौर पर पर्यावरण को बचाने के लिए कदम उठाने का आश्वासन दिया। हमारे व्यवहार में जबतक इस मुद्दे को लेकर संजीदगी नहीं आएगी तकतक बड़ी संख्या में लोग इससे नहीं जुड़ेंगे।
फेमिनिज़म इन इंडियाः भारत में जलवायु परिवर्तन पर आप भारतीय सरकार के कदमों को कैसे देखती हैं, क्या हमारी सरकार आपको इस समस्या पर गंभीर नज़र आती हैं?
हिनाः भारत सरकार पर्यारवरण के मुद्दे को लेकर बहुत बातचीत करती दिख रही है। लेकिन सरकारी जो नीतियां होती है उनके बनने और लागू होने में बहुत अंतर होता है। ग्लास्को में प्रधानमंत्री मोदी ने 2070 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन करने का वादा किया है। लेकिन इसी वादे को पूरा करने के लिए जीडीपी का कितना बड़ा हिस्सा चाहिए होगा। उसको भारत जैसे देश में लागू करना बहुत कठिन है फिलहाल की स्थिति को देखते हुए। मौजूदा सरकार सकारात्मक रूप से इस पर बात कर रही है। हालांकि, तस्वीर बदलती हुई नहीं दिख रही है। इसको सुधारने के लिए और भी कई कदम उठाने होंगे।
और पढ़ेंः ‘पर्यावरण संरक्षण आंदोलन’ में भारतीय महिलाओं की सक्रिय भागीदारी
देखिए ये पूरा दौर ही प्रचार तंत्र वाला है, लेकिन सूरत बदलने के लिए हमें ज़मीन पर ही काम करना होगा। आप कुछ पोस्ट, ट्वीट के जरिये पॉपुलर हो सकते हैं, लेकिन आप अपने काम के साथ तो जस्टिस नहीं कर रहे। गांव में जाकर ही लोगों से बाते करके ही मेरे गांव की एक लड़की की भी स्कूल की पढ़ाई जारी रही है तो वह मायने रखता है। फॉलोअर ज्यादा होने से काम नहीं होगा। काम तो गली-गली में निकलकर, लोगों से बातचीत से होगा।
फेमिनिज़म इन इंडियाः पर्यावरण के लिए देश और दुनिया के लिए रणनीति बनाने वाली लीडरशीप के लिए आप क्या कहना चाहती हैं? उन्हें किस तरह से पर्यावरण के मुद्दे को एंड्रेस करने की जरूरत है?
हिनाः पहली बात तो पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा नेताओं की वादों की लिस्ट में भी नहीं आता है। हालांकि, राजनीतिक वादे उस तरह से पूरे भी नहीं होते है जैसे किए जाते हैं। स्थानीय स्तर पर लोगों को सजग करने की बहुत जरूरत है और नेता उस काम को बहुत अच्छे से कर सकते हैं। उन्हें अपने भाषणों में पर्यावरण के विषय को शामिल करना चाहिए। उनकी योजनाएं पर्यावरण के संरक्षण पर आधारित होनी चाहिए। जैसे भारत को लेकर बात करें तो भारत में विकास कार्यक्रम बहुत तेजी से चल रहा है, हमारे देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर को स्थापित किया जा रहा है तो क्यों ना यह स्ट्रक्चर ईको फ्रेंडली तरीके से होना चाहिए। देश में गांवों में चीजें अब धीरे-धीरे पहुंच रही है तो क्यों न ये मॉडल एनवायरमेंट बेस हो। गांवों में बिजली आज भी पहुंच रही है तो उसका रूप सोलर एनर्जी क्यों न हो। खेती को दी जानेवाली बिजली सोलर बिजली होनी चाहिए। हमारे नेताओं को इस तरह से रणनीतियों को बनाने पर ध्यान देना होगा। मौजूदा मॉडल से सबसे ज्यादा प्रदूषण बढ़ रहा है। हमारी लीडरशीप को इसके बारे में सोचना चाहिए।
फेमिनिज़म इन इंडियाः क्या क्लामेंट चेंज का मुद्दा सिर्फ सोशल मीडिया तक ही सीमित रह गया है?
हिनाः हां, फोटो क्लिक का एक ट्रेंड बहुत ज्यादा बढ़ गया है। हमें क्लामेंट के मुद्दे पर बहुत इमानदारी से काम करने की ज़रूरत है। इस विषय पर प्रचार से ज्यादा जमीन पर काम करने की आवश्यकता है। मेरा काम तो गांव और छोटे शहर से जुड़ा हुआ है। मुझे अपने क्षेत्र को देखकर पता है कि ग्राउंड पर काम करने की ज़रूरत है। लोगों से बैठकर बातचीत करने की ज़रूरत है।
फेमिनिज़म इन इंडियाः क्या सोशल एक्टिविज़म, ग्राउंड एक्टिविज़म पर भारी साबित हो रहा है?
हिनाः देखिए ये पूरा दौर ही प्रचारतंत्र वाला है, लेकिन सूरत बदलने के लिए हमें जमीन पर ही काम करना होगा। आप कुछ पोस्ट, ट्वीट के जरिये पॉपुलर हो सकते हैं, लेकिन आप अपने काम के साथ तो जस्टिस नहीं कर रहे। गांव में जाकर ही लोगों से बाते करके ही मेरे गांव की एक लड़की की भी स्कूल की पढ़ाई जारी रही है तो वह मायने रखता है। फॉलोअर ज्यादा होने से काम नहीं होगा। काम तो गली-गली में निकलकर, लोगों से बातचीत करने से होगा। दूसरा मैं पर्यावरण के लिए आवाज़ उठाने की शुरूआत किसी प्रचार या प्रसिद्धि के लिए नहीं की थी। मुझे इस विषय की गंभीरता, पृथ्वी के जीवन संकट की बातों ने प्रभावित किया था। आज लोग मुझे जान रहे है वो एक अलग और छोटा हिस्सा है उस पर ज्यादा ध्यान ना देकर ग्रांउड पर काम करने पर मेरा ज्यादा जोर है।
और पढ़ेंः नर्मदा घाटी की उम्मीद मेधा पाटकर उर्फ़ ‘मेधा ताई’
फेमिनिज़म इन इंडियाः क्लाइमेट चेंज पर मेनस्ट्रीम में बात करने वाले लोगों में एक बड़ा वर्ग प्रिविलेज्ड लोगों का हैं, जबकि जो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं जैसे गरीब, आदिवासी उनकी बातें कहीं पीछे छूट जाती हैं। हम देखते भी है कि छत्तीसगढ़ में लगातार आदिवासी संघर्ष कर रहे लोगों की बातें सामने नहीं आती है, उनको दमन का भी सामना करना पड़ता है।
हिनाः इसका एक कारण रिसोर्स तक उनकी पहुंच भी है। पावर को सब महत्व देते हैं। गरीब लोग को तो वैसे ही समाज में बहुत कुछ सहना पड़ता है और जब वह सरकार का विरोध करता है तो उसको तो सबसे पहले डराया जाता है। हालांकि आदिवासी जानते हैं कि उनकी समस्या क्या है, किस तरह से काम होना चाहिए। गरीबों को दबाना आसान है तो उनके साथ ऐसा सलूक किया जाता है। उनकी भागीदारी को बढ़ाने के लिए कोई आवाज़ उठाता है तो उसे बहुत आसानी से दबा दिया जाता है। आदिवासी पर्यावरण कार्यकर्ताओं के साथ जो व्यवहार होता है उसे करने वाला कौन है इसे जानकर तो पता ही चल जाता है कि पर्यावरण के मुद्दे पर मंशा क्या है।
फेमिनिज़म इन इंडियाः वर्तमान में आप किन अभियान और संस्थाओं के साथ काम कर रही हैं?
हिनाः मैं एन ब्लाॉक एक लोकल एनजीओ है उससे तो बहुत शुरू से ही जुड़ी हुई हूं। इसके अलावा क्लाइमेट एजेंडा से साथ मिलकर पर्यावरण के मुद्दे पर वर्तमान में काम कर रही हूं।
फेमिनिज़म इन इंडियाः कोई एक संदेश जो आप हमारे जरिये से लोगों को देना चाहेंगी?
हिनाः सबसे पहले तो यह है कि हर नागरिक तो अपने तरफ से कदम उठाने चाहिए। हम एक नागरिक होने की कसौटी पर तब तक खरा नहीं उतर सकते जब तक हमारे आसपास की हवा साफ न कर लें। बड़े स्तर पर बहुत योजनाएं बनती हैं लेकिन ग्राउंड पर काम नहीं होता है तो गवर्मेंट को नॉक करने की बहुत ज़रूरत है। दूसरा बेटा और बेटी के बीच हमारे पितृसत्तात्मक समाज ने जो अंतर बनाया हुआ है कि बेटे ही कर पाएगें तो मैं यह कहना चाहूंगी कि हमारे देश की हर बेटी अपने पॉजिटिव मकसद के आगे आएं। अपने गांव और अपने देश को आगे बढ़ाने में योगदान दें।
और पढ़ेंः कोलकायिल देवकी अम्मा : अपने आंगन में उगाया ‘एक जंगल’
सभी तस्वीरें पूजा राठी द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं