स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य सैनिटरी नैपकिन को डिस्पोज़ करने की प्रक्रिया पर भी जागरूकता है ज़रूरी

सैनिटरी नैपकिन को डिस्पोज़ करने की प्रक्रिया पर भी जागरूकता है ज़रूरी

अपने पीरियड्स के शुरुआती दौर में जागरूकता न होने के कारण पीरियड्स आने पर ऐसा लगता था कि शर्म से कोई हमारा गला घोंट रहा है। हमारी स्कर्ट, सलवार या स्कूल के दिनों में खून के दाग लग जाते थे तो बहुत शर्म आती थी और बेइज्ज़ती भी महसूस होती थी। स्कूल जाने का मन नहीं करता था।

महिलाएं अपने अस्तित्व के शुरुआती दौर से ही मानसिक और शारीरिक रूप से पितृसत्तात्मक समाज की सोच से कहीं न कहीं पीड़ित रही हैं। मौजूदा हालात में कुछ हद तक पीरियड्स को लेकर जागरूकता बढ़ी है लेकिन पीरियड्स को लेकर पितृसत्तात्मक समाज की दूषित सोच से निकलने का फिलहाल कोई रास्ता अभी दिख नहीं रहा। मैं और मेरे कुछ साथी दोस्तों ने महसूस किया है, अपने पीरियड्स के शुरुआती दौर में जागरूकता न होने के कारण पीरियड्स आने पर ऐसा लगता था कि शर्म से कोई हमारा गला घोंट रहा है। हमारी स्कर्ट, सलवार या स्कूल के दिनों में खून के दाग लग जाते थे तो बहुत शर्म आती थी और बेइज्ज़ती भी महसूस होती थी। स्कूल जाने का मन नहीं करता था।

लेकिन क्या पीरियड्स के कारण स्कूल छुड़वाकर पीरियड्स से जुड़ी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है? साल 2014 में आई एक गैर-सरकारी संगठन दसरा की रिपोर्ट के अनुसार भारत की लगभग 23 मिलियन लड़कियां हर साल स्कूल छोड़ देती हैं क्योंकि उनके स्कूल में मेंस्ट्रुअल हाईजीन से संबंधित सुविधाएं नहीं होती। साथ ही उनके पास सेनेटरी नैपकिन्स को लेकर जागरूकता नहीं होती है। आज भी पीरियड्स के दिनों को पितृसत्तात्मक नज़रिये से देखा जाता है और खुलकर बात करने से बचा जाता है। पीरियड्स से जुड़ी समस्याओं को हमेशा पीरियड्स प्रॉडक्ट्स, इससे जुड़ी स्वास्थ्य की समस्याओं तक ही सीमित करके देखा जाता है। जबकि पीरियड्स के दौरान सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है टॉयलट, पानी आदि की सुविधा के साथ-साथ सैनिटरी प्रॉडक्ट को डिस्पोज़ करने की व्यवस्था की गौरमौजूदगी।

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सार्वजनिक जगहों जैसे स्कूलों, कॉलेज, दफ्तर, होटल, रेलवे स्टेशन, हॉस्पिटल, मॉल, सार्वजनिक शौचालय इत्यादि जगहों पर आज भी हमें सैनेटरी पैड वेंडिंग मशीन नज़र नहीं आती। आमतौर पर इन मशीनों में पांच या 10 रुपये डालने पर पैड निकलता है। इसके साथ ही इन जगहों पर पैड डिस्पोज़बल मशीनें भी नहीं दिखती हैं। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015- 16 के अनुसार भारत में लगभग 121 मिलियन लड़कियां और महिलाएं साल भर में लगभग 21,780 मिलियन पैड डिस्पोज़ करती हैं। ये इस्तेमाल किए गए पैड्स हमारी आसपास की जगहों पर कूड़े-कचरे के रूप में हर जगह उपलब्ध हैं। हम उसे देखते तो हैं लेकिन अनदेखा करने का बहाना खोज लेते हैं। 

बात जब पैड डिस्पोज़बल मशीन की आती है तो अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि पीरियड्स के दिनों में इस्तेमाल किए जाने वाले ईको-फ्रेंडली प्रोडक्ट्स जैसे मेंस्ट्रुअल कप, कपड़े से बने पैड्स मौजूद हैं तो ऐसे में सैनेटरी पैड डिस्पोज़ल मशीन जरूरी क्यों है? डिस्पोजेबल मशीन किस तरह से पर्यावरण को सुरक्षित रखने में हमारी मदद कर सकते हैं? आप सोच रहे होंगे कि यह तो सिर्फ महिलाओं से जुड़ा मुद्दा है तो हर सार्वजनिक जगह पर जब भी मैं वॉशरूम में जाती हूं तो देखती हूं कि वॉशरूम में पैड और कपड़े किसी एक कोने में रख दिए जाते हैं। इसके बाद अक्सर इन्हें बिना अलग किए घर के बाकी कचरे के साथ ही बाहर भेज दिया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि मेंस्ट्रुअल वेस्ट को डिस्पोज़ कैसे करना है इस पर न हमारे समाज में कोई जागरूकता है न ही कोई व्यवस्था।

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पीरियड्स वेस्ट का सही तरीके से निपटान न होना कई समस्याओं का कारण है। पहला कारण इस तथ्य से उपजा है कि प्लास्टिक सैनिटरी नैपकिन ने कपड़े के नैपकिन को काफी हद तक बदल दिया है। प्लास्टिक नैपकिन बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री बायोडिग्रेडेबल नहीं होती है। एक सैनिटरी पैड को नष्ट होने में पांच-आठ सौ सालों का वक्त लगता है। इस्तेमाल किए गए सैनिटरी नैपकिन का ठीक से निपटान नहीं किया जाता है तो ये कभी-कभी ड्रेनेज सिस्टम को भी ब्लॉक कर देते हैं। साथ ही अगर प्लास्टिक सैनिटरी नैपकिन को जलाया जाए तो इससे हानिकारक विषाक्त पदार्थ वातावरण में मिलते हैं। इसलिए इस समस्या का पर्यावरण के अनुकूल कोई समाधान मौजूद नज़र नहीं आता है।  

अपने पीरियड्स के शुरुआती दौर में जागरूकता न होने के कारण पीरियड्स आने पर ऐसा लगता था कि शर्म से कोई हमारा गला घोंट रहा है। हमारी स्कर्ट, सलवार या स्कूल के दिनों में खून के दाग लग जाते थे तो बहुत शर्म आती थी और बेइज्ज़ती भी महसूस होती थी। स्कूल जाने का मन नहीं करता था।

पीरियड्स वेस्ट की एक और समस्या यह है कि नैपकिन पर पीरियड्स का रक्त लंबे समय तक टिका रहता है। जमे हुए पीरियड्स ब्लड ई.कोलाई जैसे कई बैक्टीरिया जमा करता है, जो तेजी से फैलते हैं। सैनिटरी नैपकिन के ढेर, जिनमें बड़ी मात्रा में रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया होते हैं, आसपास के क्षेत्रों में स्वच्छता के लिए एक गंभीर खतरा पैदा करते हैं। ख़ासकर उन सफाई कर्मचारियों के लिए जो बिना किसी सुरक्षा उपकरण के इस कचरे को अपने हाथों से अलग करने का काम करते हैं। इस्तेमाल किए गए सैनिटरी नैपकिन का निपटान एक ऐसी समस्या है जिससे ज़मीनी स्तर से ही निपटने की जरूरत है।  

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किसी -किसी जगह पैड डिस्पोज़ करने की व्यवस्था अगर होती भी है तो वहां हमें सिर्फ एक छोटा सा डस्टबिन ही नज़र आता है। इसके बाद डस्टबिन का वही कचरा आस -पास की सड़कों पर या नाली में या किसी लैंडफिल पर पहुंचा दिया जाता है। इसीलिए सभी सार्वजनिक जगहों पर पीरियड्स को डिस्पोज़ करने की व्यवस्था होनी चाहिए। कुछ गिने चुने स्कूल, कॉलेज के हॉस्टल और अन्य जगहों पर ही पैड डिस्पोज करने की व्यवस्था उपलब्ध है। यही वज़ह है कि महिलाएं, लड़कियां पीरियड्स के दिनों में ज्यादातर घरों में रहना पसंद करती हैं।  इससे स्पष्ट हो जाता है कि हमारा पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों की सुविधानुसार ही संचालित किया जाता है। 

पीरियड्स के कचरे के अनुचित निपटान की समस्या एक बड़ी समस्या है जिस पर ध्यान बिल्कुल नहीं दिया जाता है है। इसलिए यह जरूरी है कि हम पीरियड्स स्वच्छता को बढ़ावा देने और पीरियड्स के कचरे के उचित निपटान के लिए जागरूकता पैदा करने की पहल करनी ज़रूरी है। तभी हम सभी के लिए एक स्वस्थ, स्वच्छ और सुरक्षित समाज का निर्माण कर सकते हैं, ख़ासकर मेंस्ट्रुएटर्स के लिए।

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तस्वीर साभार: NDTV

Comments:

  1. Sarala Asthana says:

    Great article ….. एक गैर – जिम्मेदाराना समाज का सबसे अहम मुद्दा……. Keep doing 🙌🙌

  2. Supriya Tripathi says:

    शुक्रिया🙏

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