आज़ादी के पहले से लेकर वर्तमान तक अपने अधिकार के लिए महिलाएं हमेशा विद्रोह के गीत गाती नज़र आई हैं। उन्होंने घर और बाहर दोंनो मोर्चों को संभालते हुए खुद की बात रखी है। आंदोलनकारी महिलाओं ने समय-समय पर पितृसत्ता की अदृश्य सीमाओं को पार करते हुए अपने बुनियादी अधिकारों की लड़ाई लड़ी है। वे न सत्ता से घबराई हैं न उसके जुल्म से। उन्होंने हर हालात मे अपने विरोध को जारी रखकर उसमें जीत भी हासिल की है। आइए, जानते हैं महिला कामगारों के दृढ़ हौसलों की कहानी और उनके संघर्षों की जीत से जुड़े कुछ आंदोलनों के बारे में।
1- मुन्नार वृक्षारोपण हड़ताल, केरल
यह आंदोलन विद्रोह की एक असाधारण कहानी है जिसमें बेहद कम शिक्षित मजदूर महिलाओं ने एक बड़ी कंपनी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था। इन मजदूर महिलाओं ने न केवल पुरुषों के प्रभुत्व वाली ट्रेड यूनियनों और राजनीति को चुनौती दी बल्कि पुरुषों को भी अपने अभियान पर कब्जा करने से मना कर दिया था। केरल के मुन्नार में साल 2015 में सितंबर के पहले सप्ताह में मुन्नार कन्नन देवन हिल्स प्लांटेशन लिमेटेड (केडीएचपी) के लिए एक फैसले के ख़िलाफ़ महिला मजदूरों ने हड़लात कर दी थी। यह हड़ताल मजदूरों के सालाना बोनस को 10 प्रतिशत तक करने के ख़िलाफ़ और मजदूरी बढ़ाने की मांग को लेकर हुई थी। 6 सितंबर 2015 में लगभग 5000 महिला मजदूरों ने केडीएचपीएल के दफ्तर के सामने हड़ताल करनी शुरू की थी। इस आंदोलन का नेतृत्व पूरी तरह महिलाओं ने किया था। उनका कहना था कि आदमी शराब के लाचल में आकर आसानी से प्रबंधन की बात मान लेता है।
अधिकतर महिलाएं गैर-संघीय, मजूदर, प्रवासी और समाज में हाशिये पर रहने को मजबूर वर्ग से थीं। महिलाओं ने खुद के समूह का नाम ‘पोम्बिलई ओरुमई’ दिया था जिसका मतलब ‘महिला एकता’ है। इस आंदोलन में महिलाओं ने किसी ट्रे़ड यूनियन को शामिल नहीं होने दिया था। महिलाओं का कहना था कि ट्रेड यूनियन और प्रबंधन के समझौते की वजह से मजदूर हमेशा पीछे रह जाता हैं। इस आंदोलन में महिलाएं खुद ही केंद्र में रहकर मंच संभालने से लेकर रणनीति बनाती नज़र आई थी। विरोध करने के साथ-साथ महिलाओं ने तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमान चांडी से भी वार्ता की थी। इस हड़ताल में आखिर में महिलाओं की जीत हुई। सरकार से हुई बातचीत के बाद उनके बोनस की 20 प्रतिशत बढ़ोतरी की मांग को मान लिया गया था।
यह संघर्ष कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण रहा जिसमें महिलाओं की नेतृत्व शक्ति को दिखाया और साथ ही उनके काम करने की स्थिति को भी सामने लाने में मदद की। इसने राज्य, ट्रेड यूनियन और बगान मालिकों के बीच की साठ-गांठ को भी उजागर किया। यह आंदोलन पितृसत्ता की उस दमनकारी रचना के भी ख़िलाफ़ भी था जिसमें महिलाओं को नेतृत्व के योग्य माना नहीं जाता है।
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2- सेव साइलेंट वैली आंदोलन, 1973
साइलेंट वैली आंदोलन, केरल के वन वर्षा कही जानेवाली साइलेंट वैली को बचाने के लिए किया गया था। केरल के पलक्कड़ जिले में उष्ण कटिबंधीय जंगलों के लिए साल 1973 में शुरू हुआ था। केरल राज्य बिजली बोर्ड ने कुंतीपुझा नदी के पार साइलेंट वैली हाइड्रो-इलैक्ट्रिक प्रोजेक्ट को लागू करने का निर्णय लिया था। फरवरी 1973 में प्लानिंग कमीशन के 25 करोड़ की लागत के इस प्रोजेक्ट की घोषणा के बाद से ही इसका विरोध होना शुरू हो गया था। इस आंदोलन में ‘केरल संस्था साहित्य परिषद’ ( एक गैर सरकारी संगठन) ने ‘सेव साइलेंट वैली मूवमेंट’ को जन-जन तक पहुंचाया था। कवि और सामाजिक कार्यकर्ता सुगाथाकुमारी ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनकी लिखी कविता ‘मराथिनु स्तुति’ (ओड टू ए ट्री) विरोध का एक प्रतीक बन गई थी। केएसएसपी ने लोगों इस योजना के असर को समझाने के लिए के लिए एक रिपोर्ट तैयार कर उन्हें जागरूक किया था। केएसएसपी ने प्रोजेक्ट के विरुद्ध जनमत संग्रह कराया था। 1985 में इस घाटी को साइलेंट वैली नेशनल पार्क के रूप में घोषित किया गया था। साइलेंट वैली कई किस्म के पक्षियों और जानवरों की दुर्लभ प्रजाति के लिए प्रसिद्ध है।
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3- घरेलू महिला कामगार हड़ताल, पुणे
साल 1980 में महाराष्ट्र पुणे में एक घरेलू महिला कामगार को काम से बाहर निकाल दिया था। उस महिला का दोष केवल इतना था कि वह बीमार थी और काम पर नहीं जा सकी थी। चार दिन की जगह छह दिन की छुट्टी लेने की वजह से उसका काम छूट गया था। इस घटना के बाद घरेलू कामगार महिलाएं सभी इकठ्ठा हुई और इस तरह के बर्ताव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। महिला कामगारों ने हड़ताल शुरू कर दी थी। उनकी मुख्य मांग बीमारी के दौरान छुट्टी और वेतन बढ़ोतरी थी। इस मोर्चे का नेतृत्व पुणे शहर मोलकरणी (घरेलू कामगार) संगठन ने किया था।
पुणे शहर की सभी हाउसिंग सोसायटी में काम करने वाली महिलाएं काम छोड़कर इसमें शामिल हुई थी। इस तरह किसी को काम से निकालने और वेतन बढ़ोत्तरी को लेकर पुणे शहर की सारी महिलाएं एकजुट हो गई थी। यह पहला मौका था जब पुणे में पहली बार घरेलू कामगार एकत्रित होकर विरोध कर रही थी। महिला कामगारों की एकता का यह प्रभाव पड़ा था कि उनकी जीत हुईं और उनके काम को व्यसायिक दर्जा देने की बात हुई। 1980 की हड़ताल और पुणे शहर मोलकरणी संगठन के बाद अन्य घरेलू कामगार संगठन स्थापित हुए। इन संगठनों ने घरेलू कामगारों के अधिकारों और उनके काम की पहचान की दिशा में काम किया।
4- महिलाएं और किसान आंदोलन
देश की राजधानी दिल्ली के बॉर्डर पर कृषि कानून के विरोध में चले किसान आंदोलन की सफलता को बिना महिलाओं के योदगान के याद नहीं किया जा सकता है। सर्दी हो या गर्मी हर मौसम और हालात में महिला आंदोलनकारी किसान विरोधी कानून की वापसी की मांग के लिए संघर्ष में अपना योगदान देती रहीं। आंदोलन में शामिल महिलाओं ने एक ओर मंच संभाला है तो दूसरी और प्रशासन की लाठियों का भी सामना किया था। आंदोलन में मानवाधिकारों और लोकतंत्र की बात करनेवाली इन महिलाओं में कई जीवन में पहली बार किसी आंदोलन में शामिल होने घर से बाहर निकली थी। अलग-अलग उम्र और तबके से ताल्लुक रखने वाली इन महिला किसानों ने विरोध में अपनी संसद लगाई। यही नहीं जब तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने सवाल उठाया कि वे आंदोलन में क्या कर रही हैं तो उन्होंने बदले में सवाल किया था कि क्या महिलाएं देश की नागरिक नहीं हैं? क्यों महिलाओं को राजनीति से दूर रहना चाहिए? आंदोलन में महिलाओं की भागदारी को कवर करते हुए ‘टाइम’ मैगज़ीन ने महिला आंदोलनकारियों की तस्वीर कवर फोटो के रूप में इस्तेमाल की थी।
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