शांताबाई कृष्णाजी कांबले एक मराठी लेखिका और दलित कार्यकर्ता थीं। वह पहली दलित महिला लेखिका थीं जिन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। उनकी किताब भारत में दलित समुदाय के जीवन की पीड़ा सामने रखती है। हिंदू वर्ण व्यवस्था के तहत जिस तरह जाति के नाम पर अस्पृश्यता थोप दी जाती है। उसके संघर्ष को उन्होंने शब्दों में बयां किया। शांताबाई कांबले ने शिक्षा के माध्यम से न केवल अपना बल्कि अपने दलित समाज का भी सरोकार किया। उन्होंने दलित समाज के उत्थान और शिक्षा के लिए अनेक काम किए।
समाज की दूषित भेदभाव वाली व्यवस्था को मिटाने के लिए शांताबाई ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। आजादी के बाद के युग में दलित लेखन तेजी से लिखना शुरू हुआ जिसमें दलित महिला लेखिकाओं में शांताबाई कांबले आगे रही। शांताबाई ने देश में दलित नारी की स्थिति को बदलने के लिए आवाज़ उठाई। शांताबाई कांबले की आत्मकथा में उन्होंने भेदभाव के मुद्दे सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य पर लैंगिक चेतना शामिल हैं। शांताबाई कांबले की आत्मकथा में भेदभाव के मुद्दे पर अपमानजनक यादों को उजागर करने का प्रयास नज़र आता है।
शांताबाई गाँव-गाँव जाकर दलितों को उनके अधिकारों के लिए जागरूक किया। उन्होंने डॉ. आंबेडकर से मुलाकात की। शांताबाई ने विशेषतौर पर लड़कियों की शिक्षा पर जोर दिया। उनका मानना था, “समाज सुधार आंदोलन की जनक अगर एक लड़की होती है तो वह दो परिवारों को प्रबुद्ध कर सकती है।”
प्रारंभिक जीवन
शांताबाई कांबले का जन्म 1 मार्च 1923 को सोलापुर में स्थित महुद जगह पर हुआ था। वह एक महार दलित परिवार में जन्मी थीं। उनके परिवार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति काफी निम्न थी। उस समय भारत में उनके समुदाय के सदस्यों को शिक्षा की अनुमति नहीं थी | विशेषतौर पर महिलाएं और लड़कियां उन दिनों स्कूल नहीं जाती थीं। लेकिन उनके माता-पिता ने उनकी असाधारण प्रतिभा के कारण उन्हें स्कूल भेजने का फैसला किया। एक लेख के अनुसार, “एक अछूत के रूप में, उन्हें कक्षा में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी और कक्षा के बाहर बैठकर कुछ भी करने के लिए कह दिया जाता था। स्कूल में पढ़ाई के दौरान उन्हें बहुत अपमानजनक अनुभवों से गुजरना पड़ा था।”
एक दलित महिला होने के नाते उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा। उन्होंने ‘माजा जन्माची चित्तरकता’ नाम से एक जीवन कथा लिखी थी। इस आत्मकथा में उन्होंने अपने कड़वे अनुभव बयां किए हैं। स्कूल, कार्यस्थल और यहां तक कि घर पर भी समाज द्वारा हुए घोर अपमान को लिखा। अपनी आत्मकथा में वह जाति, संस्कृति, श्रम और तिरस्कार के बारे में बातें लिखी। शांताबाई कांबले का काम अपने समुदाय की सामूहिक आवाज़ भी प्रस्तुत करता है।
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जीवन की घटनाओं के अनुभव
शांताबाई जातिगत भेदभाव से जुड़ी एक घटना के बारे में लिखती हैं कि जब वह छठी कक्षा में पढ़ रही थी, तो वह अपने ब्राह्मण सहपाठी को स्कूल के लिए बुलाने के लिए चली गई वहां उन्हें देखकर उस सहपाठी की माँ चिल्लाई, “ऐ महार की बेटी, वहीं रुक जाओ। अंदर मत आना। मैं वहां घबराए रूकी एक जगह खड़ी रही थी। उसकी माँ ने कहा कि महार की बेटी तुम्हें बुला रही है। जल्दी करो और विद्यालय जाओ” मैं स्कूल आ गई लेकिन उसकी माँ के कहे शब्द कानों में बजते रहे! “महार की बेटी! वहीं रुक जाओ।”
शांताबाई के जीवन की यह घटना इस बात पर नज़र डालती है कि कैसे उच्च जाति की ब्राह्मण महिलाएं भी दलित होने के नाते उन्हे अछूत और हीन मानती थी। जबकि शांताबाई तो सिर्फ स्कूल के लिए बुलाने गई थी और वहां जाकर उनको अपमान सहना पड़ा। शांताबाई ने अपने बचपन में जाति, छुआछूत की वजह से कई बार अपमान को सहन किया। स्कूल में उन्हे कक्षा से बाहर बैठने के लिए कहा जाता था। उनके पास गुजरने से लोग उनके साथ गलत व्यवहार करते थे। बेहद कम उम्र में अस्पृश्यता की प्रथा से शांताबाई बहुत परेशान थीं और सवाल करती थी कि उनका स्पर्श कैसा है जो एक शिक्षक को दूषित करता है।
शांताबाई को छुआछूत और अपमान के अनुभव उनके स्कूल में कुछ शिक्षकों की वजह से मिले थे। इनसब की वजह से ही उनके मन में दलित चेतना जागी। यह सिर्फ उनकी जाति की वजह से था। बचपन में स्कूल में शांताबाई अपने एक और अनुभव के बारे में लिखती है कि जब वह बोर्ड परीक्षा के लिए गई थी, परीक्षा में जाने से पहले सभी छात्र भगवान विठोबा के मंदिर गए। लेकिन शांताबाई को दलित होने के कारण मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई। अन्य उच्च जाति के बच्चें मंदिर में जाते थे लेकिन शांताबाई को वहां जाने के लिए मना कर दिया गया था।
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शांताबाई अक्सर जाति की क्रूरता, भेदभाव और गरीबी के बारे में अपने बचपन की यादें याद करती नज़र आती हैं। उस समय महार जाति के लोग गाँव की सफाई करने, मजदूरी जैसे कामों को करने के लिए कहा जाता था। रात में गाँव की रखवाली करने लिए गाँव के ऊंची जाति के लोग उन्हें दास के रूप में निर्देशों का पालन करने के लिए कहते थे। महारों के लिए ग्राम कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य था। फसल के समय कुछ ज्वार और मकई की वापसी में बहाना जिसे तराल्की के रूप में जाना जाता है। दिनभर बहुत मेहनत करने के बाद मुआवज़े के रूप में उन्हे बहुत कम हिस्सा मिलता था। जिससे वे अपना जीवन चलाने में अक्षम थे। अन्यायपूर्ण नियमों के तहत गाँव वाले उनसे काम कराकर उन्हें बहुत कम वेतन या चीजें देते थे।
शांताबाई पढ़ी-लिखी थीं, लेकिन उन्हें घर-घर जाकर भाखरी माँगनी पड़ी थी। जाति के आधार पर अपमान और अत्याचार शांताबाई के शिक्षक के रूप में सरकारी सेवा मिलने के बावजूद कम नहीं हो सका। 1942 में सोलापुर जिले के कदल गांव उन्हें शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। गांव के उच्च जाति के लोग उनसे कहते थे कि उन्हें यहां से लौट जाना चाहिए। अन्यथा उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाएगा जैसे पिछले निचली जाति के शिक्षकों के साथ हुआ था। उनको पीटा गया था और वापस भेजा दिया गया था। शांताबाई ने साहसपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन किया। 1959 में शांताबाई और उनके पति कांबले मास्टर का तबादला दिघिंची में कर दिया गया। उस गाँव में शांताबाई ने वयस्क शिक्षा की कक्षाएं शुरू की थीं।
शांताबाई ने अपने जीवन के हर पड़ाव में दलित होने की वजह से भेदभाव को महसूस किया। महज कक्षा तीन से लेकर एक शिक्षिका की नौकरी करने के दौरान तक उन्होंने जातिगत पहचान की वजह अपमान का सामना किया। उन्होंने अध्यापक बन समाज में चेतना फैलाने का काम किया। शादी के बाद वह और उनके पति डॉ. आंबेडकर के संपर्क में आए। उसके बाद इस दंपत्ति ने बाबा साहेब के कदमों पर चलकर दलित वर्ग में उनके अधिकारों के लिए जागरूकता फैलाने का काम किया। वह दलित आंदोलन से जुड़ी। 1942 में वह डॉ. आंबेडकर से मिली। डॉ. आंबेडकर की बात शिक्षा को हथियार बना लो इसको साकार करने के लिए काम किया।
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उन्होंने अम्बेडकरवादी मानव मुक्ति आंदोलन के कारण भारत में महिलाओं को समान संवैधानिक अधिकार और शिक्षा मिलें उस दिशा में काम किया। उन्होंने गाँव-गाँव जाकर दलितों को उनके अधिकारों के लिए जागरूक किया।
उनके काम को सराहा गया
कांबले दंपत्ति बुद्धवाड़ा (नव-बौद्धों के आवासीय क्वार्टर) में गरीबों को मुफ्त में पढ़ना-लिखना सिखाने लगे। शिक्षा अधिकारी ने वहां का दौरा किया और बहुत प्रभावित हुए और उनके प्रयासों पर “कांबले युगल” टिप्पणी की । हालांकि, एक “उच्च जाति” के ग्राम नेता ने उन्हें सम्मानित करने से इनकार कर दिया| शांताबाई और कांबले मास्टर अपने कर्तव्यों का ईमानदारी और निष्ठा से पूरा कर रहे थे। लेकिन गाँव के तथाकथित उच्च जाति के लोग दलित जाति के शिक्षक की लोकप्रियता को सहन नहीं कर पाएं।
कांबले दंपति शिक्षा के माध्यम से समाज में जाग्रति फैला रहे थे। वे डॉ. भीवराव आंबेडकर के आंदोलन से जुड़कर दलित वर्ग के उत्थान कार्यों में योगदान दे रहे थे। उन्होंने आंबेडकरवादी मानव मुक्ति आंदोलन के कारण भारत में महिलाओं को समान संवैधानिक अधिकार और शिक्षा मिलें उस दिशा में काम किया। शांताबाई गाँव-गाँव जाकर दलितों को उनके अधिकारों के लिए जागरूक किया। उन्होंने डॉ. आंबेडकर से मुलाकात की। शांताबाई ने विशेषतौर पर लड़कियों की शिक्षा पर जोर दिया। उनका मानना था, “समाज सुधार आंदोलन की जनक अगर एक लड़की होती है तो वह दो परिवारों को प्रबुद्ध कर सकती है।”
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आत्मकथा लिख किया सब बयां
शिक्षिका के पद से सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें अपने जीवन के संघर्षों को एक किताब के रूप में दर्ज करना शुरू किया। शांताबाई कांबले ने अपने जीवन के संघर्षो को अपनी आत्मकथा ‘माज्या जन्माची चित्तरकथा’ नाम की किताब में दर्ज किया। यह किताब 1980 में प्रकाशित हुई थी। उनकी किताब बहुत प्रचलित हुई थी। उसका कई जगह सार्वजनिक पाठ किया गया। 90 के दशक की शुरुआत में ‘नजुका’ नाम के धारावाहिक रूप में टेलीविजन दर्शकों के लिए प्रस्तुत की गई। इस किताब को एक दलित महिला लेखक द्वारा लिखी पहली आत्मकथात्मकथा माना जाता है। शांताबाई की आत्मकथा दलितों की पीड़ा की पड़ताल करती है। यह पुस्तक मुंबई विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल है। इस किताब का बाद में अनुवाद अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा में भी हुआ था।
उन्होंने अपनी किताब को अपने माता-पिता को समर्पित करते हुए हुए लिखा, “यह मेरे आई-अप्पा के लिए हैं जिन्होंने पूरे दिन तपती धूप में भूखे बिना पानी के काम किया, कड़ी मेहनत करते हुए मुझे शिक्षित किया और मुझे अंधेरे से प्रकाश की ओर लाए।” ठीक इसी तरह शांताबाई कांबले अपने लेखन और काम के ज़रिये दलित महिलाओं को अंधकार से प्रकाश की ओर लाने का भी काम किया।
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तस्वीर साभारः Peoplepill
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