नारीवाद चुनौतियां फ़ेमिनिज़म से जुड़ी रूढ़िवादी सोच की। नारीवादी चश्मा

चुनौतियां फ़ेमिनिज़म से जुड़ी रूढ़िवादी सोच की। नारीवादी चश्मा

नारीवाद का संघर्ष ‘ग़ैर-बराबरी और जेंडर आधारित हिंसा व भेदभाव’ के ख़िलाफ़ होना चाहिए, न कि किसी इंसान के पहनावे या जीवनशैली से।

‘फ़ेमिनिस्ट विचारधारा की महिलाएं सूट-सलवार नहीं पहनती हैं।’

‘फ़ेमिनिज़म पर विश्वास करने वाली महिलाओं के बाल छोटे होते हैं।‘

‘फ़ेमिनिस्ट महिलाएं शादी नहीं करती हैं।‘

‘फ़ेमिनिस्ट लोगों को अंग्रेज़ी ज़रूर आनी चाहिए।‘

फ़ेमिनिज़म या नारीवाद से जुड़ी ऐसी बातें आपने भी कभी न कभी ज़रूर सुनी होगी। ख़ासकर जब आप खुद को फ़ेमिनिस्ट विचारधारा के समर्थक या फ़ेमिनिस्ट के रूप में पेश करते हैं। किसी भी वैचारिकी, संस्था, संगठन या समूह से ताल्लुक़ रखने के बाद उससे जुड़े लोगों को लेकर छवि बनाना बेहद आम या यूं कहें कि हम इंसानों के लिए कई बार स्वाभाविक-सा नज़र आता है, क्योंकि अक्सर किसी ख़ास विचारधारा के कुछ मूल्य उसकी एक अलग पहचान भी बनाने लगते हैं, जो कई बार किसी जटिल समस्या से कम नहीं होता है। इसी तर्ज़ पर जब हम बात करते है फ़ेमिनिज़म की तो इसका मूल ‘समान अधिकार और अवसर’ पर विश्वास करता है। लेकिन जब हम इस विचारधारा को किन्हीं मानकों में बांधना शुरू करते हैं तो कहीं न कहीं हम पितृसत्ता के ढांचे के सामने अपना एक ढांचा बनाने लगते हैं, जिससे कई बार धीरे-धीरे फ़ेमिनिज़म के मूल को खोता जाता है और अपने आप में एक ‘सत्ता’ का रूप लेकर, पितृसत्ता का एक पर्यायवाची जैसा दिखाई देने लगता है।

इसलिए हम लोगों के लिए ये बेहतर होगा कि हम इस बात को अच्छी तरह समझें कि ‘किन्हीं सिम्बल वाले मानकों को तय कर दूसरों को उसे अपनाने के लिए दबाव देना, कभी भी फ़ेमिनिज़म नहीं होता है।‘ बल्कि इसे हमें समावेशी दृष्टिकोण से समझने की ज़रूरत है। जैसा कि हम जानते हैं फ़ेमिनिज़म एक वेस्टर्न विचार है, जिसकी शुरुआत विदेशों से मानी जाती है। लेकिन इसका ये मतलब क़तई नहीं है कि जिस वक्त वेस्टर्न देशों में फ़ेमिनिज़म की शुरुआत हुई उस समय भारत में किसी भी तरीक़े के फ़ेमिनिस्ट विचारक नहीं थे या कोई फ़ेमिनिस्ट पहल या आंदोलन नहीं हुए। ऐसे तमाम समाजसुधारक हमारे देश में हुए जिन्होंने पितृसत्तात्मक मूल्यों के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की। लेकिन जब ये विचार वेस्टर्न देशों से भारत में फ़ेमिनिज़म के नाम से आया तो इसे विदेशी विचार समझा जाना लगा और फिर धीरे-धीरे इस विचार ने भारत के देशकाल और महिलाओं की स्थिति को देखते हुए यहाँ के अनुसार रणनीति बनाकर नारीवादी आंदोलन की शुरुआत हुई।

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सालों भारत में हुए नारीवादी आंदोलन ने भारत में रहने वाली महिलाओं और उनके मुद्दों पर आवाज़ बुलंद की थी। पर अब समय बदल रहा है और अब नारीवाद को समावेशी नारीवाद के रूप में देखा, समझा और लागू किया जाता है, जिसमें जेंडर बाइनरी से परे अन्य जेंडर और उनके मुद्दों को शामिल किया जाता है। ऐसे में हमें इस बात का ख़ास ध्यान रखने की ज़रूरत है कि जाने-अनजाने में कहीं हम भी तो फ़ेमिनिज़म को किसी ढांचे में नहीं ढाल रहे हैं, जो लगातार नारीवादी आंदोलन में बिखराव लाने और इसे कमज़ोर करने का काम कर रहा है।

‘मेरा फ़ेमिनिज़म, तुम्हारे फ़ेमिनिज़म से ज़्यादा अच्छा है।‘

फ़ेमिनिज़म एक ऐसा विचार है, जिसे हम इंसान अपने अनुसार समझते है और इसे लागू करते है। ये उनकी परिस्थिति और सामाजिक पृष्ठभूमि पर भी निर्भर करता है। इसबात को एक उदाहरण से और स्पष्ट करती हूँ, ‘राजस्थान के अजमेर ज़िले से क़रीब सौ किलोमीटर दूर तिलोनिया गाँव की औरतें पूरे देश में जानी जाती है, क्योंकि उन्होंने बाल-विवाह, महिला हिंसा और जेंडर आधारित भेदभाव को चुनौती देने की मिसाल क़ायम की है। गाँव की कई पीढ़ियों की महिलाएँ इस संघर्ष में हिस्सा ले चुकी है और ये सिलसिला आज भी क़ायम है। इन महिलाओं से मिलने जब कुछ तथाकथित फ़ेमिनिस्ट पहुंचे तो उनमें से एक ने महिलाओं से कहा, “मैं आपके संघर्ष को खोखला मानती हूं क्योंकि बेशक आपने महिला हिंसा के ख़िलाफ़ काम किया लेकिन आप आज भी घूंघट लेती है, ये तो दासता का प्रतीक है, न की नारीवाद का।”

यहां बतौर फ़ेमिनिस्ट हमें ये समझना ज़रूरी है कि गाँव में रहनेवाली महिला के लिए खुद के साथ होने वाली हिंसा और भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना फ़ेमिनिस्ट आंदोलन की दिशा में पहला सबसे ज़रूरी और बुनियादी कदम है, न की अपने घूंघट को पहले उतार फेंकना। इसके साथ ही, ये भी संभव है कि महिलाएं अपने प्रदेश की संस्कृति और भूगोल से प्रभावित होकर ये पहनावा अपनाती हो और जो उनकी यौनिकता से जुड़ा विषय भी है, जिस पर सिर्फ़ उनका हक़ है।

‘किन्हीं सिम्बल वाले मानकों को तय कर दूसरों को उसे अपनाने के लिए दबाव देना, कभी भी फ़ेमिनिज़म नहीं होता है।‘

ये कमेंट इसबात को साफ़ करता है कि जब एक नारीवाद ढांचे के रूप में आता है तो उसका रूप कैसा होता है? वो कई बार हिंसात्मक भी होता है, जब हम अपने अनुभव और समझ के आधार पर दूसरों पर अपने विचार थोपने और उनके विचारों को ख़ारिज करने का काम करते है। इसमें हम अपने फ़ेमिनिज़म के दूसरों से बेहतर समझते है, जो फिर से उसी ग़ैर-बराबरी से पायदान पर हमें खड़ा करता है, जहां समानता नहीं बल्कि ग़ैर-बराबरी होती है।

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‘फ़ेमिनिस्ट को ऐसे दिखना ज़रूरी है।‘

फ़ेमिनिज़म पर विश्वास करने वाले लोगों का एक ख़ास तरह का पहनावा होता है।

‘वो घूँघट नहीं लेंगी। वो बिंदी नहीं लगाएँगीं। उनके बाल लंबे नहीं होगे। वो सूट-सलवार नहीं पहेंनेंगी। वो शादी नहीं करेगी। वग़ैरह-वग़ैरह।

पितृसत्ता ने समाज में जेंडर के आधार पर सदियों पहले से ही पुरुष और महिलाओं की ज़िंदगी से जुड़ी हर छोटी-बड़ी चीजों को तय किया हुआ है, जिसमें उनका पहनावा, खानपान, काम, अवसर, संसाधन तक पहुँच और भूमिकाएँ बक़ायदा तय की गयी है। ऐसे में जब हम फ़ेमिनिज़म के नाम पर भी किसी इंसान की यौनिकता और उनकी जीवनशैली के लिए एक ख़ास तरह का ढाँचा तय करते है तो इस विचारधारा को मानने वालों पर इसे अपनी ज़िंदगी में लागू करते है तो ये पितृसत्ता का पर्यायवाची ही बनता है, न की इसका विकल्प। हमें इस बात को समझना होगा कि हर इंसान की अपनी यौनिकता है, ये उसका अधिकार है कि वो अपने पहनावे और जीवनशैली से जुड़े फ़ैसले ले। सिर्फ़ इस आधार पर किसी भी इंसान पर दबाव बनाना कि वो किसी विशेष विचारधारा पर विश्वास करता है, तो पूरी तरह ग़लत है।

फ़ेमिनिज़म को लेकर ये कुछ ऐसे पहलू है, जो लगातार नारीवादी आंदोलन की साख कमजोर करने का काम करते हैं। इसके लिए ज़रूरी है कि हम ये समझें कि नारीवाद को एक ढाँचे की बजाय एक विचार कर रूप में लागू करना ज़्यादा ज़रूरी है। इस विचार का संघर्ष ‘ग़ैर-बराबरी और जेंडर आधारित हिंसा व भेदभाव’ के ख़िलाफ़ होना चाहिए, न कि किसी इंसान के पहनावे या जीवनशैली से। बेशक हम इस पहल को अपनी बातचीत में ज़रूर शामिल करें कि जब हम पितृसत्तात्मक व्यवस्था के बताए पहनावे या पूरे ढांचे को क्यों ख़ारिज करते है और इसके पीछे की राजनीति क्या है, अगर ये समझने के बाद भी कोई इंसान उस पहनावे में खुद को सहज पाता है तो पूरी तरह उसका अधिकार है, जिसका हमें सम्मान करना चाहिए। न की अपनी समझ और वैचारिकी को लागू करने के तरीक़े को किसी दूसरे पर थोपना चाहिए।

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तस्वीर साभार : checksbalances

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