हमारे समाज में महिलाएं कभी एकजुट न हो, इस बात का पितृसत्तात्मक सोच वाली सामाजिक व्यवस्था ने ख़ास ध्यान रखा है। क्योंकि पितृसत्ता की नीति को सदियों-सदियों और पीढ़ियों तक चलाने के लिए ये ज़रूरी रहा है। पितृसत्ता ने हर स्तर पर अपनी व्यवस्था को क़ायम रखने के लिए काम किया है। महिलाओं की एकता पितृसत्ता के लिए एक ख़तरा हो सकती है, इसलिए महिलाओं को आपस में अलग-अलग बाँटने के लिए पितृसत्ता ने आंतरिक स्त्रीद्वेष का सहारा लिया है। आंतरिक स्त्रीद्वेष का सरल मतलब है ‘महिलाओं का आपस में ईर्ष्या का भाव रखना।’
समावेशी स्त्री-द्वेष बचपन से सामाजीकरण के ज़रिए जेंडर के तहत सिखाये गए व्यवहार और विचारों का नतीज़ा है। जहां अच्छी लड़कियां शादी से पहले न तो सेक्स पर बात कर सकती हैं और न सेक्स कर सकती है, अच्छी लड़कियाँ हमेशा ढके-तुपे कपड़े पहना करती हैं और अच्छी लड़कियां ज्यादा बोलती नहीं हैं, खासकर अपने अधिकारों या अपने से जुड़ी बातों के संदर्भ में वगैरह-वगैरह। ‘अच्छी लड़कियों’ वाली दकियानूसी बातें अच्छे-बुरे के मानक बनकर लड़कियों के मन में बैठ जाती है जिसका सीधा प्रभाव उनके व्यवहार पर पड़ता है। अच्छे-बुरे के सांचे में खुद को ढलता देखकर वे आपस में ही प्रतिस्पर्धा का शिकार होने लगती हैं। उनका यह व्यवहार ‘समावेशी स्त्री द्वेष’ कहलाता है। बचपन से ही पितृसत्ता की बतायी जेंडर आधारित कंडिशनिंग के साथ-साथ महिलाओं की कंडिशनिंग में समावेशी स्त्रीद्वेष एक ज़रूरी एलिमेंट जैसा होता है। अलग-अलग बातों या वक्तव्यों के माध्यम से बचपन से ही हम महिलाओं को इस विचार की घुट्टी दी जाती है, जिसके चलते कई बार हम इसे सच भी मान लेती है।
लेकिन जब हम नारीवाद या लैंगिक समानता की बात करते हैं तो ऐसे में ये हमलोगों के लिए ज़रूरी हो जाता है कि हम महिला एकता को मज़बूत करें और हमारी अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सदियों से पैठ जमाई हुई पितृसत्ता व्यवस्था को उजागर कर इन्हें दूर करें। आइए आज बात करते हैं समावेशी स्त्रीद्वेष और पितृसत्ता से जुड़े उन वक्तव्यों की जो आपने कभी न कभी ज़रूर सुने होंगे।
औरत ही औरत की दुश्मन है।
‘औरत ही औरत की दुश्मन है’ आंतरिक स्त्रीद्वेष का ये सबसे पहला और सबसे ज़्यादा सुने जाना वाला वक्तव्य है। इस एक वक्तव्य ने महिलाओं को सदियों से एकजुट होने में बाधा का काम किया है। दुःख की बात ये है कि कई बार इसे पढ़ी-लिखी औरतें भी धड़ल्ले से माइक पर दोहराने से नहीं हिचकती है। अगर कभी इस वक्तव्य के मूल का अनुसंधान या समाजशास्त्रीय शोध किया जाए तो इस अन्वेषण पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ब्रिटिश शासननुमा कूटनीति के तहत इस तरह के वक्तव्यों से औरतों को ‘डिवाइड एंड रुल’ की साजिश का शिकार बनाना किसी खुराफाती पुरुष के दिमाग की उपज रही होगी।
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सवाल यह है कि क्या कभी आपने ‘पुरुष ही पुरुष का दुश्मन है’ जैसा कोई तयशुदा वक्तव्य सुना है? क्या सहकर्मी पुरुष ईर्ष्या-द्वेष और गला-काट प्रतिस्पर्धा के शिकार नहीं होते? क्या बाप-बेटे या भाई-भाई के बीच भीषण तकरार कभी-कभी मारपीट या खून-खराबे में तब्दील नहीं हो जाती? फिर एक-दूसरे की जड़ें काटने की यह तोहमत सिर्फ औरत पर क्यों? साफ़ है ये पितृसत्तात्मक समाज की सोची-समझी साज़िश है।
मैं दूसरी लड़कियों की तरह नहीं हूँ।
आपने अक्सर ऐसी बातें ज़रूर सुनी होगी जब बेहद आसानी से एक लड़की दूसरी लड़कियों के लिए कह देती है कि ‘मैं उस टाइप की लड़की नहीं हूं’, ‘मेरी लड़कियों से ज्यादा बन नहीं पाती’, ‘वे ज्यादा बकवास करती हैं’, ‘लड़कियों के पास सजने-संवरने के अलावा कोई बात नहीं होती’, ‘लड़कियां भरोसे के लायक नहीं होती’…वगैरह-वगैरह।
ये बातें अपने आप में इस बात को ज़ाहिर करती है कि ‘महिलाओं पर पितृसत्ता की बतायी गयी ‘अच्छी लड़की’ का दबाव कितना ज़्यादा है।’ इसके लिए वो हमेशा खुद को दूसरी महिलाओं से तुलना करने और अपने को बेहतर बताने की जद्दोजहद में जुटी रहती है, जिसका नतीजा ये होता है कि एक समय के बाद उनके पास महिलाओं का कोई भी सपोर्ट सिस्टम नहीं होता है और वो आपस में एक-दूसरे से दूर होती चली जाती है। वास्तव में यही ‘समावेशी स्त्री-द्वेष’ है|
पितृसत्ता के बतायी जेंडर आधारित कंडिशनिंग के साथ-साथ महिलाओं की कंडिशनिंग में समावेशी स्त्रीद्वेष एक ज़रूरी एलिमेंट जैसा होता है।
औरत चाहे तो घर बसा दे या उजाड़ दे।
पितृसत्ता में महिलाओं को घर-परिवार की सभी ज़िम्मेदारी के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है। लेकिन इस ज़िम्मेदारी को बक़ायदा ‘अच्छी महिला’ के गुण के रूप में शामिल किया गया है, जिसमें उसे घर के ज़िम्मेदार होने की ‘सत्ता’ का आभास करवाकर उनपर घर की ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला जाता है। ऐसे में जब भी हम महिलाओं की इस सीख पर चलने की कंडीशन पर ध्यान दें तो कुछ पहलू साफ़तौर पर सामने आते हैं जैसे हिंसा के ख़िलाफ़ चुप रहना, सबकुछ सहना और सबकी बातें मानना।
बातें चाहे जो भी हो और जिस भी तरह से हो ‘घर बसाने’ के लिए महिलाओं को पितृसत्ता की कठपुतली बनाना ही स्वीकार किया गया है और इसे ही घर बसाने का मुख्य आधार बताया गया। ऐसे में महिलाओं पर हमेशा ‘अच्छी महिला’ बनने का दबाव इस कदर होता है कि वो सभी शर्तों को स्वीकार करती चली जाती है और जिस पल वे इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती हैं तो उन्हें घर उजाड़ने वाली करार दे दिया जाता है। ये वक्तव्य भी स्त्रीद्वेष का काम करता है जो महिलाओं को घर बसाने वाली और घर उजाड़ने वाली के नामपर दो ख़ेमों में बाँटने का काम करती है।
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स्त्री बहुत सशक्त है वो शक्ति है, क्योंकि वो नए जीवन को जन्म दे सकती है।
पितृसत्तात्मक समाज में महिला को हमेशा मातृत्व से जोड़कर महिमामंडित किया जाता है। इसलिए आपने भी कभी न कभी महिला शक्ति के नामपर ये बात ज़रूर सुनी होगी कि महिला में शक्ति है क्योंकि वो नए जीवन को जन्म दे सकती है। यहाँ हमें ये समझने की ज़रूरत है कि हमारा समाज हमेशा महिला के मातृत्व स्वरूप को स्वीकार करता है और उसे महिला की शक्ति सिर्फ़ बच्चे को जन्म देने तक ही दिखाई पड़ती है। यहाँ हमें पितृसत्ता के इस खेल को समझने की ज़रूरत है कि किस तरह ये महिला की भावनाओं का इस्तेमाल कर उन्हें माँ के महिमामंडन से ओतप्रोत कर उसके इंसान होने के बुनियादी अधिकार से दूर करती है। बेशक हमारे समाज को बच्चे को जन्म देने वाली महिला शक्ति और बेहद सकारात्मक लगती है, लेकिन जैसे ही वो अपने साथ होने वाली हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है या अपने अधिकारों के लिए संघर्ष की पहल करती है तो ठीक उसी पल वो घर उजाड़ने वाली करार दे दी जाती है।
ये कुछ ऐसी पितृसत्तात्मक समाज की बनायी धारणाएँ और वक्तव्य है जो समावेशी स्त्रीद्वेष को जड़ता प्रदान करती है और महिलाओं को हमेशा एकजुट होने और अधिकारों से दूर करने का काम करती है। इसलिए ज़रूरी है कि हम बातों के पीछे की पितृसत्तात्मक नीति को समझे और इसे अपनी ज़िंदगी से दूर करने का प्रयास करें।
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तस्वीर : श्रेया टिंगल