इतिहास भारतीय कामगार महिलाओं की संघर्ष यात्रा

भारतीय कामगार महिलाओं की संघर्ष यात्रा

भारत के संदर्भ में ‘गिरणी कामगार’ स्त्रियों की लड़ाई, साल 1939 में मुंबई में ‘ब्रिटिश मिल का संघर्ष’, 1946 में खानों और बगानों में काम करनेवाली महिलाओं का संघर्ष, 1977 में केरल के मछुआरों के संघर्ष में महिलाएं शामिल रहीं।

महिलाओं का जीवन हमेशा से ही संघर्षपूर्ण रहा है, भले ही उसका स्वरूप अलग-अलग क्यों न हो। महिला कामगारों के संघर्ष का हमें जो लिखित इतिहास प्राप्त होता है वह अमेरिका की जूट मिल में काम करनेवाली महिलाओं के संबंध में है। इन महिलाओं की मांग थी कि इनके काम के घंटे निर्धारित किए जाएं। इन्हें अन्य कामगारों के समान अधिकार दिए जाएं। साथ ही स्त्री होने के नाते कुछ विशेष अधिकार जैसे नवजात बच्चे को स्तनपान कराने का अवकाश, मातृत्व-अवकाश आदि भी दिए जाएं। इस आंदोलन को कामगार महिलाओं के संघर्ष के लिए मील का पत्थर माना जा सकता है।

इस आंदोलन के बाद कामगार महिलाओं के द्वारा और भी कई आंदोलन किए गए जिसमें महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई। भारत के संदर्भ में ‘गिरणी कामगार’ स्त्रियों की लड़ाई, साल 1939 में मुंबई में ‘ब्रिटिश मिल का संघर्ष’, 1946 में खानों और बगानों में काम करनेवाली महिलाओं का संघर्ष, 1977 में केरल के मछुआरों के संघर्ष में महिलाएं शामिल रहीं। साथ ही 1980 के आसपास निपाणी में बीड़ी कामगारों की लड़ाई में भी महिलाओं की भूमिका को देखा जा सकता है।  

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गिरणी कामगार और मिल में काम करनेवाली स्त्रियों का संघर्ष 

भारत में 1880 में पहली बार नारायण लोखंडे, जो कि महात्मा फुले से प्राभावित थे, उन्होंने गिरणी कामगारों का संगठन बनाया। साल 1881 में अंग्रेज़ों ने लेबर कमीशन बनाकर पहला ‘फैक्ट्री एक्ट’ लागू किया और इसके अंतर्गत कामगारों को कानूनन संगठित होकर संघर्ष करने का अधिकार दिया गया। इसी दौरान गिरणी में भारी संख्या में महिलाओं की भर्ती हो रही थी जिनकी काम करने की अवधि भी ज्यादा थी और वेतन भी कम।

साल 1922 में अहमदाबाद में फिर से गिरणी कामगारों और मालिकों के बीच संघर्ष छिड़ा। महात्मा गांधी ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और मजदूरों की ओर से मिल मालिकों से बातचीत कर उन्हें समझाया। इन मालिक वर्ग (साराभाई घराना) की एक महिला अनुसुया जो महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित थीं, कामगारों की नेता बनीं। महात्मा गांधी के मार्गदर्शन में इन्होंने ‘मजदूर महाजन कामगार संगठन’ बनाया और लगातार मालिक-वर्ग के विरुद्ध आवाज उठाती रहीं।

साल 1939 में मुंबई में ‘ब्रिटिश मिलों’ में कामगारों की छंटनी की गई जिसके विरोध में लगभग 700 कामगार महिलाओं ने पहली बार घेराव किया। इस विरोध में मुख्य रूप से उषाताई डांगे, पार्वतीबाई भोर, जानाबाई प्रभु, भीमाबाई कामेटकर इत्यादि सक्रिय रहीं। इसके बाद कामगार महिलाओं ने कुछ अन्य स्थानों पर भी अपनी मांगे रखीं जिसमें उन्हें मानसिक तथा शारीरिक प्रताड़ना झेलने के अलावा जान भी गंवानी पड़ी।   

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चाय बगान में काम कर रही स्त्रियों का संघर्ष

यही हाल चाय और कॉफी के बगान में काम करनेवाली महिलाओं का भी था। इन महिलाओं ने कई बार इस तरह के दमन के खिलाफ आवाज उठाने का प्रयास किया पर हर बार इन्हें दबा दिया जाता था। साल 1943  में मैली-छ्त्री नामक लड़की के नेतृत्व में चाय बगान में काम करने वाली बंगाल की कामगार महिलाओं ने हड़ताल की और संघर्ष किया। खदान में काम करनेवाली महिलाओं की भी लगभग यही स्थिति थी। गर्भावस्था के समय इन महिला कामगारों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता था। जैसे, प्रसव के दौरान काम न करने के कारण इनकी मजदूरी काट ली जाती थी और नौकरी से हटा दिया जाता था। ऐसी स्थिति में कामगार महिलाओं को बच्चे के जन्म के दौरान होनेवाले खर्च के लिए कर्ज लेना पड़ता था। 

साल 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने महिला-मजदूरों के लिए पर्याप्त प्रसूति सुविधाओं के प्रावधान बनाने की बात की। इसमें मांग की गई कि महिला-मजदूर को प्रसूति से पहले और बाद में छह सप्ताह का आराम, माँ और बच्चे दोनों की देखरेख के लिए मुफ्त में डॉक्टर तथा आया की व्यवस्था, दिन में दो बार माँ को नवजात बच्चे को स्तनपान या देखरेख के लिए आधे-घंटे की छुट्टी और प्रसूति-अवधि के दौरान काम पर न आ पाने के कारण नौकरी से न हटाने का प्रावधान। लेकिन उद्योगपतियों के दबाव की वजह से भारतीय सरकार ने इसे नजरंदाज कर दिया। धीरे-धीरे खदान मालिकों ने महिला-मजदूरों की छंटनी शुरू कर दी ताकि, वह इस तरह की सुविधा देने से होने वाले खर्च को बचा सकें। प्रसूति के समय दी जाने वाली राशि भी अलग-अलग खादानों में अलग-अलग थी और वह भी सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहा।

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1924-1930 तक इन कामगारों के लिए अलग-अलग प्रावधान बनाने को लेकर टालमटोल की स्थिति बनी रही। 1930 के आसपास अखिल भारतीय स्तर पर ‘रॉयल कमीशन आन लेबर’ के द्वारा यह कहा गया कि खदान में काम करने वाली महिलाओं की संख्या इतनी भी ज्यादा नहीं है कि इनके लिए कोई विशेष कानून लाए जाए। बाद में ‘अखिल भारतीय मजदूर संघ कांग्रेस’ के दबाव की वजह से 1941 में कानून तो बना पर सुविधा देने के मामले में अभी भी कंजूसी बरती गई। 

प्रसूति से पहले और बाद छह सप्ताह की ही छुट्टी देने का प्रावधान बना क्योंकि, मालिकों का मानना था कि छुट्टी देकर वह महिलाओं पर अहसान कर रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि द्वितीय-विश्व-युद्ध के दौरान जब कोयले की मांग बढ़ी और इस मांग को पूरा करने के लिए मजदूरों की भी आवश्यकता बढ़ी तो भारत सरकार ने महिला-मजदूरों पर से जमीन के अंदर जाकर काम करने में लगी रोक को हटा लिया। फिर भी, आवश्यकता के अनुरूप मजदूर नहीं मिल पा रहे थे जिसके कारण उत्पाद के साथ-साथ युद्ध की तैयारियां भी प्रभावित हो रही थीं। परिणामस्वरूप मजदूरों की मांग जैसे, वेतन में बढ़ोतरी और काम की स्थितियों में सुधार करना ज़रूरी हो गया। आखिरकार प्रसूति कानून में कुछ संशोधन किया गया।

1944 में सरकार ने कामगार समस्या की जांच करने के लिए रेगे समिति बनाई। इस समिति ने अन्य समस्याओं के साथ-साथ प्रसूति संबंधी कानून के प्रभाव की भी जांच पड़ताल की। इस समिति ने यह निष्कर्ष निकाला कि अधिकांश खान मालिकों ने स्त्री कामगारों को उसके दावों के अनुसार प्रसूति लाभ नहीं दिये और इस कानून का उल्लंघन करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए । इस तरह अंतरराष्ट्रीय कामगार संगठन के समझौते के बावजूद जमीनी स्तर पर यहां की महिला-कामगारों की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया।

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तस्वीर साभार: प्रहार

स्रोत –

  1. स्रोत-जब स्त्रियों ने इतिहास रचा, कुसुम त्रिपाठी, सामयिक प्रकाशन
  2. संघर्ष के बीच, संघर्ष के बीज, संपादक, ईलीना सेन, राजकमल प्रकाशन 
  3. Women in Indian socity , BY- NEERA DESHAI & USA THAKKKAR, NBT.. publication.
  4. स्त्री संघर्ष का इतिहास, राधा कुमार, वाणी प्रकाशन 
  5. भारत मे स्त्री असमानता, गोपा जोशी, दिल्ली हिन्दी कार्यान्वय निदेशालय

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