इतिहास ग्रनविक आंदोलन : अपने अधिकारों के लिए जब अप्रवासी भारतीय महिलाएं ब्रिटेन की सड़कों पर उतरी

ग्रनविक आंदोलन : अपने अधिकारों के लिए जब अप्रवासी भारतीय महिलाएं ब्रिटेन की सड़कों पर उतरी

ग्रनविक आंदोलन ब्रिटेन में गैर-श्वेत लोगों के साथ नए रिश्ते की शुरुआत की एक कड़ी बना। महिलाओं के इस विरोध से ब्लैक लोगों के लिए एक संयुक्त मोर्चा तैयार करने में मदद मिली।

साल 1976 लंदन के लिए बहुत खास था। एक ओर यूनाइटेड किंगडम भीषण गर्मी और सूखे की आशंका से जूझ रहा था तो दूसरी ओर यह साल था ग्रनविक फिल्म प्रसंस्करण कारखाने में खराब परिस्थितियों में काम करती दक्षिण एशियाई महिलाओं के विद्रोह का। यह पहली बार था जहां अधिकांश प्रदर्शनकारी न सिर्फ महिलाएं थी बल्कि ब्रिटेन के अप्रवासी अल्पसंख्यक भी थे। उस वक्त इस श्रमिक आंदोलन को व्यापक समर्थन मिला जो कि पिछले किसी भी अप्रवासी कामगारों के प्रदर्शन को नहीं मिला था। इससे पहले श्रमिक संघ में श्वेत लोगों की अधिकता के कारण न सिर्फ अप्रवासी एशियाई लोगों को हाशिए पर रखा जाता था बल्कि नस्लवाद भी व्यापक तौर पर देखने को मिलता था। 20 अगस्त 1976 को ‘धीरे’ काम करने के तर्ज पर लंदन के चैप्टर रोड परिसर में स्थित ग्रनविक मेल ऑर्डर फर्म में देवशी भूडिया नामक महिला श्रमिक को नौकरी से निकाल दिया गया। इसके तुरंत बाद, कुछ महिलाओं ने इस फैसले का विरोध करते हुए कारखाने में काम न करने का निर्णय लिया, जिसमें सहकर्मी जयाबेन देसाई भी शामिल थी। लोगों के इस समूह ने तीन दिन बाद ग्रनविक में धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया। जयाबेन देसाई की नेतृत्व में ब्रिटेन में ग्रनविक मेल ऑर्डर के विरुद्ध श्रमिकों की लगातार दो सालों तक चलने वाली लड़ाई की यह शृंखला इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो गई।

ग्रनविक में काम करने वाले श्रमिकों में अधिकतर महिलाएं थी। यहां लगभग 80 प्रतिशत महिलाएं भारतीय या पाकिस्तानी मूल की थी। ग्रनविक फर्म डाक के आधार पर संचालित होती थी, जिसमें ग्राहक अविकसित फिल्मों और भुगतान को प्रयोगशाला में भेजते थे और डाक सेवा के माध्यम से तैयार तस्वीरें प्राप्त करते थे। इस फर्म में महिलाओं के काम करने के नियमों में सख्ती बरती जाती थी जो नस्लवाद की उपज थी। उस समय ग्रनविक में साप्ताहिक औसत वेतन 28 पाउंड था जबकि औसत साप्ताहिक राष्ट्रीय वेतन 72 पाउंड था। वहीं, लंदन में महिला मैनुअल कामगर के लिए औसत वेतन 44 पाउंड प्रति सप्ताह था। फर्म में श्रमिकों का अतिरिक्त समय तक काम करना अनिवार्य था जिसकी पूर्व सूचना नहीं दी जाती थी। हालांकि ये महिलाएं फर्म में कम प्रतिष्ठा और कम वेतन वाली नौकरियों को स्वीकार करने के लिए तैयार थीं पर वे अपमानजनक व्यवहार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थीं जो उन दिनों में आमतौर पर कार्यस्थलों पर अप्रवासियों को झेलना पड़ता था।

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उपनिवेशवाद और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का तत्कालीन समाज इन अप्रवासियों के लिए मुश्किल था। इस दौरान रोजगार की आवश्यकता में उन्होंने ग्रनविक फिल्म प्रसंस्करण कंपनी में काम के लंबे समय और कम वेतन वाले कारखाने के मजदूरी वाले नौकरी स्वीकार किए। औद्योगिक अशांति के दशक में, ग्रनविक विवाद व्यापारिक संघवाद और श्रम कानून बनने का प्रधान कारण बन गया। विरोध कर रही महिला श्रमिकों को जल्द ही एहसास हुआ कि उनके कार्यस्थल पर ट्रेड यूनियन के होने से उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने में मदद मिलेगी। इसलिए, वे एक ट्रेड यूनियन एसोसिएशन ऑफ प्रोफेशनल, एग्जीक्यूटिव, क्लरिकल और कंप्यूटर स्टाफ, अपेक्स से जुड़ गई। उनकी मांग थी कि ग्रनविक; मजदूरों को कारखाने के मालिकों के समक्ष किसी भी मुद्दे को उठाने के लिए, व्यापारिक संघ में शामिल होने के अधिकार की मान्यता दे।

आंदोलन में शामिल महिलाएं

जल्द ही, कोषाध्यक्ष के रूप में जयाबेन देसाई के साथ एक हड़ताल समिति की गठन की गई। इस हड़ताल समिति ने बेहतर कामकाजी परिस्थितियों की मांग की। इसके तहत एकजुटता की उम्मीद में, ग्लासगो में इंजीनियरिंग कारखानों से लेकर दक्षिण वेल्स की कोयला खदानों तक, एक हजार से भी अधिक कार्यस्थलों से संपर्क की। जयाबेन की मार्गदर्शन में इस कमेटी ने वेतन बढ़ाने, संघ के रूप में मान्यता देने और अनिवार्य रूप से अतिरिक्त काम के घंटों की समाप्ति की मांग की थी। अगस्त 1976 में, ग्रनविक ने अपेक्स संघ में शामिल हुए उन 137 कर्मचारियों को कारखाने में मान्यता देने से इनकार किया और नौकरी से निकाल दिया। जयाबेन और उनके सहकर्मियों के ग्रनविक विरोध के कुछ महीनों के भीतर ही कई बड़े व्यापारिक संघों ने उनके मुद्दों का समर्थन किया और उनकी लड़ाई के भागीदार बन गए। इस आंदोलन के समर्थन में कई मोर्चे निकाले गए और जल्द ही इसने बीस हजार से भी अधिक लोगों को जुटा लिया। इस विवाद ने तत्कालीन समय में काफी तूल पकड़ा और एक समय में हजारों ट्रेड यूनियन और पुलिस इस टकराव में शामिल हुए। इस मामले में 500 से अधिक गिरफ्तारियां हुई जो उस समय 1926 के जनरल स्ट्राइक के बाद किसी भी औद्योगिक विवाद में सबसे अधिक थी।

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तेजी से फैलता यह आंदोलन मीडिया के साथ-साथ राजनेताओं, लेबर सरकार के मंत्रियों का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहा। ग्रनविक कारखाना डाक सेवा के माध्यम से चलने के कारण, डाक सेवा कर्मचारी संघ का श्रमिकों को समर्थन और कारखाने को दी जाने वाली सेवाओं का बहिष्कार करना उनके जीत की उम्मीद थी। इस बीच, सरकार ने ग्रनविक में श्रमिकों और कारखाने के मालिकों की सुनवाई के लिए लॉर्ड स्कर्मन की अध्यक्षता में जांच समिति के गठन का निर्देश दिया। स्कर्मन इंक्वायरी ने संघ की मान्यता कंपनी एवं कर्मचारियों दोनों के लिए मददगार साबित होने की दलील पेश की और श्रमिकों की बहाली की सिफारिश की।    

जयाबेन देसाई, तस्वीर साभार: Guardian

हालांकि ट्रेड्स यूनियन कांग्रेस (टीयूसी) और अपेक्स सहित अन्य व्यापारिक संघों ने शुरुआत में ग्रनविक विवाद को समर्थन दिया। लेकिन इस मोर्चे के भीतर भी लगातार तनाव बना रहा। लगभग दो सालों तक ग्रनविक विरोध के बाद टीयूसी और अपेक्स दोनों ने महसूस किया कि इस विवाद को जीता नहीं जा सकता है। इसलिए उन्होंने अपना समर्थन वापस ले लिया। संघ द्वारा किसी दिशानिर्देश न पाने पर मझधार में फंसी जयाबेन देसाई और हड़तालियों को अनिश्चितता का सामना करना पड़ा और नवंबर 1977 में टीयूसी मुख्यालय के बाहर उन्होंने भूख हड़ताल की शुरुआत की। लेकिन इस घटना से भी संघों के निर्णय में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और अंततः साल 1978 में उन्हें हड़ताल बंद करनी पड़ी।

उस दौरान आंदोलन में अगुवाई कर रही जयाबेन देसाई और अन्य दक्षिण एशियाई महिलाएं हड़ताल का चेहरा बनकर उभरी। देसाई के सशक्त और प्रभावशाली विरोध प्रदर्शन के कारण न केवल ग्रनविक बल्कि कई अन्य कार्यस्थलों में भी श्रमिकों की काम करने की स्थिति में सुधार आया। इस विरोध से अप्रवासी एशियाई मूल के लोग खास कर भारतीयों के प्रति श्वेत लोगों के नजरिए में भी बदलाव आया। 1970 के दशक में व्यापारिक संघों द्वारा ब्लैक और एशियाई श्रमिकों को पूरी तरह अनदेखा किया जाता था। तत्कालीन मीडिया द्वारा ‘स्ट्राइकर्स इन सारी’ की उपाधि पाने वाली महिलाओं के इस विरोध से ब्लैक लोगों के लिए एक संयुक्त मोर्चा तैयार करने में मदद मिली। यह आंदोलन ब्रिटेन में गैर-श्वेत लोगों के साथ नए रिश्ते की शुरुआत की एक कड़ी बना।

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तस्वीर साभार : striking-women.org

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