किसी भी संस्कृति का विकास विचार और व्यवहार से होता है। किसी भी सामाजिक व्यवस्था को चलाने के पीछे हमेशा एक विचारधारा काम करती है और इस विचारधारा को सालों-साल और पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाने का काम करती है संस्कृति। जैसा कि हम जानते है हमारा भारत एक पितृसत्तात्मक समाज है। ऐसे में इस पितृसत्तात्मक समाज की पूरी व्यवस्था भी पितृसत्तात्मक है, जो सदियों से इस व्यवस्था को क़ायम रखे हुए है और इसे मज़बूत रूप में अहम भूमिका निभाती है – संस्कृति।
संस्कृति पर्व की, पहनावे की, बातों की, व्यवहार की और जीवनशैली की। जेंडर के आधार पर पितृसत्ता हमेशा समाज को अलग-अलग बाँटने का काम करती है। इस काम का मूल भले ही एक हो लेकिन इसके रूप अलग-अलग है। कभी त्योहार के नामपर तो कभी संस्कृति के नामपर पितृसत्ता सालों से अपने मूल्यों को आज भी क़ायम रखे हुए है। चूँकि हम अपनी संस्कृति के प्रति बेहद संवेदनशील है, यही वजह है कि हम शिक्षा, समाज और संस्थाओं तक आज भी एक स्तर पर पितृसत्तात्मक मूल्यों को चुनौती देने की पहल करते है, लेकिन जैसे ही बात संस्कृति की आती है तो हम अपनी आँखें मूँदना पसंद करते है।
तो आइये आज अपनी इस मूँदीं आँखों को थोड़ा खोलने की कोशिश करते है और चर्चा करते है इस हफ़्ते आने वाले त्योहार – रक्षाबंधन या राखी के त्योहार पर। ‘रक्षाबंधन’, वो त्योहार जिसे भारत में हर बहन बड़े चाव से मनाती है या यों कहें कि हमारे हिंदू समाज में यह उम्मीद की जाती है कि हर महिला इस त्योहार को चाव से मनाए। इस त्योहार के दिन अपने भाई का माँ-सम्मान करें और पूरे विश्वास के साथ अपने भाई की कलाई पर राखी बांधे। इसके साथ ही, बहन हमेशा ये उम्मीद करें कि उसकी भाई ज़िंदगीभर अपनी बहन की रक्षा करेगा। हमलोग बचपन से ही रक्षाबंधन के त्योहार को इसी विचार के साथ मनाते हुए, बड़े हुए। पर सच्चाई ये है कि इस त्योहार के पीछे का विचार जितना अच्छा देखने में लगता है मौजूदा समय में यह सरोकार से उतना ही दूर होता दिखाई देता है, क्योंकि इस पर्व के पीछे का विचार हमेशा लड़का-लड़की में भेद के विचार को बढ़ावा देने का काम करता है। अगर हम रक्षाबंधन के विचार, व्यवहार और सरोकार को देखें और इसके पीछे के विचार को समझने की कोशिश करें तो ये त्योहार लैंगिक भेदभाव की संस्कृति को बढ़ावा देने में अहम मालूम पड़ता है।
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इस बात का जीवंत उदाहरण हम अपने आसपास की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में साफ़ देख सकते है जब घर में एक बेटी के बाद दूसरी बेटी का जन्म होता है तो आज भी दुख की दोहरी लहर दौड़ जाती है और समाज इस पर्व का हवाला देकर कहता है ‘अरे! एक बेटा हो जाए तब तो ये बहनें राखी का त्योहार मनाएँगीं।’ मतलब इस पर्व ने बेहद संजीदगी से इस पर्व को मनाने की अहर्ताओं को रचा है जो किसी भी बहन की वैध्यता को उसके भाई के बिना नहीं मानती है। इस त्योहार के जुड़े कुछ ऐसे पहलू है, जिनपर हमें अपनी समझ बनाना बेहद ज़रूरी हो जाता है, ख़ासकर तब जब हम लैंगिक समानता और संवेदनशीलता की बात करते हैं।
अपने पितृसत्तात्मक समाज में ऐसे ढ़ेरों त्योहार है जो पितृसत्तात्मक मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाने का काम करते आए हैं।
रक्षा के साथ बंधन क्यों ज़रूरी है?
भारतीय समाज में महिलाओं को सुरक्षा के नामपर बंधन में रखना हमेशा से संस्कृति का हिस्सा रहा है और इस विचार को हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आसानी से इस त्योहार के बहाने घोलते आ रहे है, रक्षाबंधन के रूप में। यहाँ हमें ये सोचना होगा कि हर बार रक्षा के साथ बंधन की ज़रूरत क्यों है? और जब भी हम रक्षा की बात करते है तो हम महिलाओं की किससे रक्षा की बात करते है? क्या दूसरे पुरुषों से, जिनकी अपनी बहनें भी उनकी कलाई में राखी बांधकर अपनी सुरक्षा की बात करती है या फिर बंधन के नामपर अपनी गतिशीलता और यौनिकता पर शिकंजा कसने की। जब भी समानता और स्वतंत्रता की बात करते है तो वहाँ बंधन का सवाल ही नहीं उठता है और अगर जैसे ही वहाँ बंधन का भाव होता है तो वो अधिकार के बजाय सजा का रूप लेने लगता है। रक्षा के साथ बंधन का होना कहीं न कहीं अधिकारों के दमन की तरफ़ संकेत करता है।
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रिश्तों का समीकरण: सुरक्षा के लिए परजीवी बहन और भाई की सत्ता
प्रसिद्ध नारीवादी सिमोन द बोऊवार ने महिलाओं के संदर्भ में कहा था कि ‘लड़कियाँ होती है या बनायी जाती है।‘ ठीक उसी तरह ‘पुरुष भी होते नहीं बनाए जाते है।‘ जेंडर के आधार पर महिला-पुरुष को बाँटने के काम में संस्कृति एक अहम भूमिका अदा करती है, क्योंकि जिस वक्त रक्षाबंधन के त्योहार पर बहन अपने भाई की कलाई में राखी बांधकर खुद की सुरक्षा के लिए अपने भाई पर आश्रित होती है। ठीक उसी समय भाई पर अपनी बहन की सुरक्षा का दोहरा भार आता है, जिसके ज़रिए वो खुद को रक्षक की भूमिका में देखता है, जो अपने आप में एक ‘सत्ता’ की तरफ़ संकेत करने लगता है। ये वो सत्ता है जो कई बार महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा की वजह भी बनती है। ये त्योहार रिश्तों का एक ऐसा समीकरण तैयार करता है, जिसमें एक विशेषाधिकारों से लैस और दूसरा उसपर आश्रित और कमजोर मालूम होता है।
अपने पितृसत्तात्मक समाज में ऐसे ढ़ेरों त्योहार है जो पितृसत्तात्मक मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाने का काम करते आए है, जिनकी पहचान कर उनपर विचार करना और सुधार करना हमारी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। मैं ये नहीं कहती कि त्यौहार मानना बंद करना चाहिए। पर मैं ये ज़रूरी कहती हूँ कि बदलते समय के साथ उसके संदेश में बदलाव और सरोकार से जुड़ाव को और बेहतर बनाना चाहिए, जिससे हमारी संस्कृति महज़ फ़ैशन के दौर में बाज़ार के मुनाफ़े का एक हिस्सा न बने। बल्कि हमारे-आपके जीवन में भी लैंगिक समानता और संवेदना की सूत्रधार बने।
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तस्वीर साभार : The Statesman