इंटरसेक्शनलधर्म हरितालिका तीज: एक कठिन व्रत का महिलाओं को संदेश और सवाल| नारीवादी चश्मा

हरितालिका तीज: एक कठिन व्रत का महिलाओं को संदेश और सवाल| नारीवादी चश्मा

हर व्रत की तरह हरितालिका व्रत को भी पूरी तरह पितृसत्ता के मूल्यों को ध्यान रखते हुए उसे पोसने की दिशा में बक़ायदा तैयार किया गया है, जिसमें पुरुषों को ही केंद्र में रखा गया है।

आधुनिकता के दौर में दिन-दुगनी और रात चौगुनी की रफ़्तार से बदलते समाज में आज भी कई ऐसे लोकपर्व है जिनका विस्तार अब बड़े स्तर पर होने लगा है, जिसमें मीडिया अहम भूमिका अदा करता है। कभी फ़िल्मों तो कभी टीवी सीरियल के माध्यम से इन लोकपर्व को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित किया जाता है। इन्हीं लोकपर्व में से एक है – उत्तर भारत एक प्रसिद्ध लोकपर्व ‘हरितालिका व्रत जिसे हरितालिका तीज या तीजा’ भी कहते हैं। अगले सप्ताह के बाद 30 अगस्त को उत्तर भारत में ये व्रत मनाया जाएगा।

यह व्रत उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार में मनाया जाने वाला यह त्योहार करवाचौथ से भी कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवाचौथ में चाँद देखने के बाद व्रत को पूरा माना जाता है और उसके बाद महिलाएँ पानी पी सकती और खाना खा सकती है। लेकिन वहीं हरितालिका तीज व्रत पूरे दिन बिना पानी पिए व्रत किया जाता है और अगले दिन पूजा करने बाद व्रत पूरा माना जाता है। इस दिन शादीशुदा हिंदू महिलाएं और बिना शादीशुदा युवा महिलाएं भी व्रत करती हैं। इस व्रत को लेकर ख़ास मान्यता ये है कि यह व्रत करने वली महिला को शिव जैसे पति मिलते हैं और उनके पति की उम्र बढ़ती है।

इस व्रत को सिर्फ़ इसकी अवधि या समय-सीमा की वजह से ही नहीं बल्कि इस व्रत से जुड़े नियम भी इस व्रत को कठिन बनाते हैं। इस व्रत को करने की विधि में ये बताया गया है कि इस दिन व्रत करनेवाली महिलाएं सूर्योदय से पहले ही उठ जाएं और नहा धोकर पूरा श्रृंगार करें। पूजा के लिए केले के पत्तों से मंडप बनाकर गौरी−शंकर की प्रतिमा स्थापित करें और पूरी रात जागकर भजन-कीर्तन करें। ये सभी नियम के पालन किए बिना ये व्रत को पूरा नहीं माना जाता है। इस व्रत के दौरान सोने, पानी पीने, कुछ खाने की सख़्त मनाही होती है और अगर कोई भी महिला ऐसा करती है तो वह अगले जन्म में क्या बनेगी उसका उल्लेख हरितालिका तीज़ की कथा में बक़ायदा लिखा गया है, जिसे पढ़ना इस व्रत का एक ज़रूरी हिस्सा भी है।

ये सभी वे विधियां और विश्वास हैं, जिसे हम सालों से बिना सवाल किए बस ढोते-जीते-निभाते और मनाते आए हैं। लेकिन बदलते समय के साथ-साथ अब हम इससे जुड़े कुछ ऐसे पहलुओं पर भी चर्चा करने की ज़रूरत है जो जाने-अनजाने में हम महिलाओं को सौभाग्य की बजाय दुर्भाग्य के साथ जीने को मजबूर करती है। इसके साथ ही, हर व्रत-पूजन का अपना कुछ अनकहा संदेश भी होता है, ठीक उसी तरह हरितालिका तीज़ का भी कुछ संदेश है, जिसे हमें समझने की ज़रूरत है तो आइए चर्चा करते है कुछ ऐसे पहलुओं और संदेशों  की जिसे हमेशा ऐसे व्रत-पर्व के नामपर नज़रंदाज़ किया जाता है।

ये सारे व्रत पुरुषों की भलाई के लिए ही क्यों?

हर व्रत की तरह इस व्रत को भी पूरी तरह पितृसत्ता के मूल्यों को ध्यान रखते हुए उसे पोसने की दिशा में बक़ायदा तैयार किया गया है, जिसमें पुरुषों को ही केंद्र में रखा गया है। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों को केंद्र में रखकर महिलाओं को हमेशा दोयम दर्जे में रखता है और इसी विचारधारा के तहत सभी तीज़, त्योहार, रीति-रिवाज और पर्व बनाए गए है, जहां धर्म और संस्कार को ढ़ोने का सारा ज़िम्मा महिलाओं पर होता है और इन सब व्रत-त्योहार की मुराद पुरुषों की भलाई, अच्छा स्वास्थ्य और लंबी उम्र होती है। पर कभी भी इन मुरादों में महिलाओं के स्वास्थ्य और लंबी उम्र का उल्लेख नहीं होता है। अधिकतर व्रत-त्योहार का मूल यही है, जहां महिलाएँ सिर्फ़ कर्मकांड करने की भूमिका में होती है और मुराद में पुरुष होते है।

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धर्म, पितृसत्ता का एक प्रभावी ज़रिया है समाज में महिला-पुरुष की ग़ैर-बराबरी को स्थापित करने का और जो इतना भावनात्मक मसला भी बनाया गया है, जिसपर सवाल तो क्या हम बात भी करने से कतराते है, क्योंकि धर्म का दूसरा रूप डर बनाया गया है। डर – कुछ ग़लत हो जाने का। इसलिए हम महिलाएँ कभी सवाल नहीं करती है, बस व्रत और पर्व को ढोती जाती है अपने परिवार की भलाई के नामपर। क्या आपने कभी सोचा है कि कोई व्रत-पूजन महिलाओं की भलाई के लिए क्यों नहीं बनाए गए? क्योंकि इन सभी व्रत-पूजन की कथाओं, पुराणों और किताबों को पुरुषों ने लिखा है और उसमें अपने पितृसत्तात्मक नज़रिए को शामिल किया है। इसके साथ ही, इस विचार में ये भी साफ़ था कि महिला हमेशा घर में रहेगी और घर का काम करेगी, इसलिए उसके लिए ये सब व्रत-पूजन आसान होगा। लेकिन अगर पुरुष के लिए व्रत-पूजन बनाया जाता तो उसे काम से दूरी बनानी पड़ती और हो सकता है, इससे महिलाएँ काम पर निकलना शुरू करती, इसलिए महिलाओं को घर के मायाजाल में फँसाने की दिशा में और उन्हें शिक्षा, जागरूकता और सवाल करने के अवसर से दूरी बनाए रखने के लिए धर्म के सारे भार को उनके कंधों पर दिया गया, जिससे उनके पास कभी भी समय ही न हो इन पहलुओं के बारे में सोचने का।

हर व्रत की तरह हरितालिका व्रत को भी पूरी तरह पितृसत्ता के मूल्यों को ध्यान रखते हुए उसे पोसने की दिशा में बक़ायदा तैयार किया गया है, जिसमें पुरुषों को ही केंद्र में रखा गया है। 

आपस में बंटती औरतें और हरितालिका व्रत को करने में असमर्थ महिलाएँ?

हरितालिका तीज व्रत को सभी महिलाएँ नहीं कर सकती है, क्योंकि ये व्रत ‘पति’ के इर्द-गिर्द है। यानी कि जिसे शिव जैसा ‘पति’ चाहिए वो ये व्रत करे और जिनका ‘पति’ है वो उनकी लंबी उम्र के लिए व्रत करें। अब सवाल ये है कि इस व्रत की शर्तों को ध्याम में रखते हुए वो औरतें क्या करें।

  • जिनका पति हर दिन उसके साथ मारपीट करता है
  • वो महिला जो यौन उत्पीड़न की सरवाइवर हो
  • विधवा महिला या तलाकशुदा महिला
  • वो कामकाजी महिलाएँ जो चौबीस घंटे बिना पानी पिए नहीं रह सकती है
  • वो महिला जो खुद को समाज में जेंडर बाइनरी में खुद को नहीं देखती है?

ऐसी महिलाओं की सूची लंबी है, जो किन्हीं कारणों से व्रत के बताए नियमों पर खरी नहीं उतरती है और व्रत नहीं कर सकती है। ऐसे में वे सभी महिलाएँ समाज की बतायी गयी सौभाग्यवती अच्छी महिलाओं के ढाँचे से बाहर हो जाती है और उन्हें वंचित होने का एहसास करवाती है। विशेषाधिकार और वंचित होने का ये एहसास महिलाओं को हमेशा आपस में बाँटने में अहम भूमिका अदा करता है और इस दिन को हर उस महिला के लिए बुरा दिन बन जाता है, जो इस व्रत को करने में असमर्थ होती है, क्योंकि उन्हें इस दिन वंचित होने का एहसास करवाया जाता है।

और पढ़ें : करवा चौथ का ‘कड़वा-हिस्सा’ है ये अनछुए पहलू

तब तो विदेशों में रहने वाले पतियों की उम्र कम हो जानी चाहिए?

बात चाहे हरितालिका तीज़ की हो या फिर करवा चौथ की। दोनों ही त्योहार पति की लंबी उम्र के लिए होते है, अगर सालभर में एकदिन महिला के व्रत करने से पति की उम्र बढ़ती है तो बाक़ी अन्य धर्म, क्षेत्र और सात समंदर पार बसने वाले वो सारे देश जहां ऐसे व्रत-पूजन का नामोंनिशान नहीं है, वहाँ के पतियों क्या? उनकी उम्र तो कम हो जानी चाहिए, क्योंकि उनकी पत्नियाँ व्रत नहीं करती है उनकी लंबी उम्र के लिए। ये एक तार्किक पहलू है, जिसपर हम महिलाओं को सोचने की ज़रूरत है और सोचिए अपने बारे में भी कि जब आपके लिए किसी ने व्रत नहीं रखा और तब भी आप सालों-साल से दूसरों के लिए व्रत करने के लिए सक्षम है तो उन्हें भी आत्मनिर्भर होने दीजिए।

कठिन व्रत मतलब महिला घर संभाले, रोज़गार नहीं

जब भी किसी व्रत-पूज़न के बारे में पढ़ो या जानने की कोशिश करो तो हर व्रत में कुछ न कुछ दावे ऐसे ज़रूर होते है, जिसमें उस व्रत को दूसरे व्रत से कठिन होने के कुछ तत्व ज़रूर होते है। जैसे – हरितालिका तीज को करवा चौथ से कठिन व्रत बताया जाता है। जी मान लिया कि तमाम नियमों को ध्यान में रखते हुए ये व्रत करवा चौथ से ज़्यादा कठिन है, लेकिन इसका मतलब क्या? साफ़ है – महिलाएँ इन व्रत को करने के लिए घर संभालने न की रोज़गार करें और पैसे कमाए। क्योंकि कामकाजी महिला के लिए एक से बढ़कर एक कठिन व्रत करने के लिए न तो क्षमता होगी और न ही संभावना।

महिलाओं को हमेशा त्याग की मूर्ति बनाए रखने की साज़िश की जाती है, जिसमें ये व्रत-पूजन अहम भूमिका अदा करते है और ये महिलाओं को हमेशा त्याग की पीड़ा का एहसास होने की बजाय महान महसूस करवाने की फ़िराक़ में होते है। कभी सुपर विमेन तो कभी अखंड सौभाग्य को प्राप्त करने के पीछे कठिन व्रत करती महिलाएँ। मैं ये नहीं कहती कि ये व्रत-पूजन नहीं करने चाहिए, बिल्कुल ये निजी आस्था का विषय है। लेकिन हमें ये ज़रूर तय करना होगा और ठहरकर सोचना होगा कि क्या हम उन्हीं पितृसत्तात्मक मूल्यों को बोने और पोसने का काम तो नहीं कर रहे है, जिसे सदियों से महिलाओं ने ढोया है। और अगर हम सामाजिक बदलाव की बात करते है तो उसकी शुरुआत कहाँ से होगी और इसमें इन व्रत-पूजन की भूमिका क्या होगी?  

और पढ़ें : धर्म-संस्कृति के नाम पर आखिर कब तक होगी महिला हिंसा ?


तस्वीर साभार : inextlive.com

Comments:

  1. Geetika says:

    Ek bat mention n ki chahe vidhwa ho ya talakshuda ya pati Zinda Umar chahe jitni hoti chali jaye aap ye vrat n chor skti kabhi b iska udyapan hota hi n h chahe kitne b bimar q na ho mar hi q na rhe ho vrat n chor skte agar mahila ne vrat ek bar utha liya to zindagi bhar karna hi padega jab tak mar na jao

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