मेरा दिल्ली के एक छोटे से क्षेत्र से आना जहां से किसी लड़की का निकलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था। खानदान की पहली ऐसी लड़की बनना जिसने पोस्ट ग्रैजुएशन की या यूं कह सकते हैं कि जो एक पढ़ी-लिखी लड़की बनी। ऐसे समुदाय से आना जिसे हम दलित कहते हैं। हम किस समुदाय से आते हैं इसे हर वक्त याद दिलाने में यह समाज कोई कसर नहीं छोड़ता। ऐसे में इस परिस्थिति में पढ़ना और आगे बढ़ना दूसरी बात है।
ऐसे ही एक संघर्ष की कहानी मैंने इन दिनों समझने की कोशिश की जिसके बारे में न तो मैंने कभी अपनी स्कूल की किताबों में पढ़ा और नहीं किसी के मुंह से सुना। यह कहानी मेरे लिए, मेरे समाज के लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं। जब हमारे संविधान की रचना हो रही थी तब उसमें सिर्फ 15 महिलाएं शामिल थीं। लेकिन क्या आपको पता है इन 15 महिलाओं में से दलित समुदाय से आनेवाली एकमात्र युवा महिला भी थी, जिनका नाम दक्षिणायनी वेलायुधन था। यह दलित समुदाय की पहली महिला थीं जिन्होंने ग्रेजुएशन किया था और अपने जीवन में कई ऐसी चीज़ें की जो किसी दलित महिला द्वारा पहली बार की गई थीं।
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दक्षिणायनी वेलायुधन केरल की रहने वाली थीं। इनका जन्म 4 जुलाई 1912 में कोच्चि के एक छोटे-से द्वीप मुलावुकड में हुआ था। उस समय में इस इलाके के दलित परिवारों में लड़कियों के नाम कुछ इस तरह के रखे जाते थे जैसे अज़हाकी, पूमला, चक्की, काली, कुरुम्बा, थारा, किलिपक्का लेकिन उनके माता-पिता ने उनका नाम दक्षिणायनी रखा जिसका अर्थ है दुर्गा या दक्ष की बेटी।
जब हमारे संविधान की रचना हो रही थी तब उसमें सिर्फ 15 महिलाएं शामिल थीं। लेकिन क्या आपको पता है इन 15 महिलाओं में से दलित समुदाय से आने वाली एकमात्र युवा महिला भी थी, जिनका नाम दक्षिणायनी वेलायुधन था। यह दलित समुदाय की पहली महिला थीं जिन्होंने ग्रेजुएशन किया था और अपने जीवन में कई ऐसी चीज़ें की जो किसी दलित महिला द्वारा पहली बार की गई थीं।
दक्षिणायनी ने साल 1935 में विज्ञान से बीए की शिक्षा पूरी की। उनकी पढ़ाई कोच्चिन राज्य की सरकार द्वारा दी जानेवाली स्कॉरलशिप से पूरी हुई थी। उस समय जाति प्रथा अपनी चरम सीमा पर थी। इस बात को आज भी नकारा नहीं जा सकता कि जाति आज भी समाज में मौजूद है। इसी जाति व्यवस्था का गहरा प्रभाव उनके जीवन में था। पढ़ाई के दौरान उन्हें अपनी जाति के कारण भेदभाव और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा।
वह पूरे विज्ञान विभाग में अकेली छात्रा थीं जिसे एक उच्च जाति के शिक्षक एक प्रयोग दिखाने से मना कर दिया। यहां तक कि प्रयोग में इस्तेमाल होनेवाली चीज़ों को भी छूने से मना कर दिया था। वेलायुधन ने इस प्रयोग को दूर से देखकर सीखा। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने हाई स्कूल में बतौर शिक्षिका भी काम किया। यहां भी जातिवादी समाज के उत्पीड़न का सामना उन्हें करना पड़ा। लेकिन उन्होंने इस व्यवस्था को चुनौती देने की ठान ली थी।
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वह जिस पुलाया समुदाय से आती थीं वहां के लोग मुख्य रूप से खेतिहर मजदूर का काम करते थे। उन पर कड़े प्रतिबंध लगाए जाते थे। उन्हें सार्वजनिक सड़क पर चलने और सार्वजनिक कुएं से पानी खींचने पर रोका जाता था। पुलाया महिलाएं ऊपरी वस्त्र नहीं पहन सकती थीं। उन्हें अपने स्तनों को ढकने के लिए मोतियों के हार पहनने की अनुमति थी।
हर स्तर पर इतने संघर्षों के बाद भी दक्षिणायनी वेलायुधन पहली महिला थीं जिन्होंने पूरे कपड़े पहने। यह बात सुनने में बहुत अज़ीब और बहुत ही भयानक लगती है कि एक समुदाय को अपने ऊपरी हिस्से को इस जातिवादी व्यवस्था ने ढकने का अधिकार छीन लिया था। लेकिन इसी चलन को तोड़ते हुए उन्होंने न सिर्फ़ ऊपर के कपड़े पहने बल्कि अपनी पढ़ाई भी पूरी की और 32 वर्ष की उम्र में वह संविधान सभा की पहली युवा दलित महिला बनीं। संविधान सभा की बैठकों में उन्होंने अपने ज़ोरदार तर्क रखे। उन्होंने कहा था कि संविधान का काम इस बात पर निर्भर करेगा कि भविष्य में लोग किस तरह का जीवन जीएंगे और समय के साथ ऐसा कोई भी समुदाय इस देश में न बचे जिसे अछूत कह कर पुकारा जाए।
दक्षिणायनी जिस पुलाया समुदाय से आती थी वहां के लोग मुख्य रूप से खेतिहर मजदूर का काम करते थे। उन पर कड़े प्रतिबंध लगाए जाते थे। उन्हें सार्वजनिक सड़क पर चलने और सार्वजनिक कुएं से पानी खींचने पर रोक जाता था। पुलाया महिलाएं ऊपरी वस्त्र नहीं पहन सकती थीं। उन्हें अपने स्तनों को ढकने के लिए मोतियों के हार पहनने की अनुमति थी।
साल 1945 में राज्य सरकार द्वारा दक्षिणायनी को कोच्चिन विधान परिषद के लिए नामित किया गया था। इसके बाद साल 1946 में परिषद द्वारा भारत की संविधान सभा के लिए चुना गया था। 1946-1952 तक उन्होंने संविधान सभा और एक सांसद के रूप में काम किया। संसद में उन्होंने शिक्षा के मामलों में विशेष रूप से अनुसूचित जातियों के मामलों में विशेष रुचि ली। दक्षिणायनी 1946-49 तक ‘डिप्रेस्ड क्लासेज यूथ्स फाइन आर्ट्स क्लब’ की अध्यक्ष और मद्रास में द कॉमन मैन की संपादक भी रही। इसके बाद वह महिला जागृति परिषद की संस्थापक अध्यक्ष बनीं। 66 साल की उम्र में साल 1978 में उन्होंने आखिरी सांस ली।
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उनके काम और उपलब्धियों के बारे में पढ़ने के बाद बेहद खुशी मिलती है लेकिन उनके संघर्षों को देखकर उतना ही मन विचलित हो उठता है। पहला होना बहुत बड़ी बात है। दक्षिणायनी वेलायुधन का पूरा जीवन इसी ‘पहले’ होने के संघर्ष में ही गुज़रा। ऐसी न जाने कितने लोगों की कहानियां हैं जो हाशिये के समुदाय से आते हैं, जो शुरू से इतिहास रचते आ रहे हैं लेकिन उनका जिक्र नहीं होता, न ही उनके बारे में इतना लिखा जाता है।
दक्षिणायनी वेलायुधन के जीवन को देखा जाए तो जाति प्रथा ने उनके जीवन को कितना संघर्षमय बना दिया। लेकिन सच यही है कि जाति प्रथा आज भी हमारे समाज में मौजूद है। चाहे लोग कितना भी इतिहास को छिपाने की कोशिश करें या हाशिये के लोगों को दर किनारे करें, चाहे किताबों के पन्ने न बोले लेकिन उनका संघर्षमय जीवन जरूर बोलता है।