भारत में संविधान 26 नवंबर, 1949 को पारित हुआ और साल 1950 से पूरे देश में प्रभावी हो गया। संविधान को बनाने में 15 महिलाओं ने बेहद अहम भूमिका निभाई थी लेकिन इनसे बारे में कम ही उल्लेख किया गया है। उन्हीं महिलाओं में से एक का नाम था पूर्णिमा बनर्जी। बता दें कि पूर्णिमा बनर्जी साल 1946 में उत्तर प्रदेश विधान सभा की सदस्य बनीं। फिर 1946 से 1950 तक संविधान सभा का हिस्सा रहीं।
व्यक्तिगत जीवन
पूर्णिमा बनर्जी का जन्म साल 1911 में एक बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता उपेन्द्रनाथ गांगुली पूर्वी बंगाल के एक रेस्तरां के मालिक थे। उनकी मां अंबालिका देवी एक प्रसिद्ध नेता त्रैलोक्यनाथ सान्याल की बेटी थीं। वह मशहूर स्वतंत्रता सेनानी अरुणा आसफ़ अली की बहन भी थीं। पूर्णिमा बनर्जी का नाम रवींद्रनाथ टैगोर ने रखा था। नेहरू परिवार उन्हें ‘नोरा’ के नाम से बुलाता था।
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राजनीतिक सफ़र और स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान
पूर्णिमा समाजवादी विचारधारा में विश्वास रखती थीं। उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी की सचिव रहीं । पूर्णिमा बनर्जी 1930 के दशक के स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे आगे रहा करती थीं। वह ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ जैसे आंदोलन में सक्रियता से शामिल रहीं। इस दौरान उन्हें गिरफ़्तारी का सामना भी करना पड़ा।
भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग’ मसौदा समिति महिला सदस्य पूर्णिमा बनर्जी के सुझाव को मानते हुए ही डाले गए जिससे स्पष्ट हो सके कि संविधान भारत के लोगों के लिए और भारत के लोगों द्वारा बनाया गया है।
स्वतंत्रता आंदोलन में उनके सहयोगियों में सुचेता कृपलानी, विजयलक्ष्मी पंडित, उमा नेहरू, रामेश्वरी नेहरू, हाजरा बेगम जैसी औरतें शामिल थीं। वह साल 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की सदस्य और इलाहाबाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नगर समिति की सचिव बनीं। साल 1941 में उन्हें और सुचेता कृपलानी को एक आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किया गया था। बाद में उन्हें ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ आंदोलन में भाग लेने के लिए फिर से गिरफ्तार कर लिया गया।
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महिला आरक्षण, शिक्षा और आजीविका के अधिकार की पैरोकार
भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग’ मसौदा समिति महिला सदस्य पूर्णिमा बनर्जी के सुझाव को मानते हुए ही डाले गए जिससे स्पष्ट हो सके कि संविधान भारत के लोगों के लिए और भारत के लोगों द्वारा बनाया गया है। वह अक्सर किसान यूनियनों और ग्रामीण भारत से जुड़े मुद्दों को उठाया करती थीं। इसके अलावा उन्होंने महिला आरक्षण पर भी कई बार आवाज उठाई थी। गौरतलब है कि महिला आरक्षण को लेकर आज तक लड़ाई जारी है।
पूर्णिमा बनर्जी ने महिला आरक्षण पर बहस में महिलाओं के पक्ष में कहा था कि महिलाएं भले ही अपने लिए आरक्षित सीट की इच्छा न रखती हों लेकिन महिलाओं द्वारा खाली पद या सीट पर महिलाओं का ही पहला हक होना चाहिए। संविधान सभा में पूर्णिमा बनर्जी के भाषणों में से समाजवादी विचारधारा के प्रति उनकी दृढ़ प्रतिबद्धता नज़र आती थी। वह चाहती थीं कि शिक्षा और आजीविका का अधिकार संविधान के मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा होना चाहिए।
पूर्णिमा समाजवादी विचारधारा में विश्वास रखती थीं। उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी की सचिव रहीं । पूर्णिमा बनर्जी 1930 के दशक के स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे आगे रहा करती थीं। वह ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ जैसे आंदोलन में सक्रियता से शामिल रहीं। उस दौरान उन्हें गिरफ़्तारी का सामना भी करना पड़ा।
वह संविधान में एक नया पैराग्राफ जोड़ना चाहती थीं जो यह सुनिश्चित करे कि राज्यों के शैक्षणिक संस्थानों में दी जाने वाली सभी धार्मिक शिक्षा तुलनात्मक धर्मों के प्राथमिक दर्शन मात्र हो, जो कि विद्यार्थियों के दिमाग को व्यापक बनाने के लिए और समझ विकसित करने के काम आए, न कि इसके द्वारा सांप्रदायिक विशिष्टता को बढ़ावा दिया जाए। उन्होंने इस बात पर बहस की कि यह सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी है कि देश की एकता के लिए एक अनुमोदित पाठ्यक्रम के माध्यम से छात्रों में सभी धर्मों की उचित समझ दी जाए।
वह एक न्यायसंगत मौलिक अधिकार में एक और खंड में संशोधन चाहती थीं, जिसमें सभी राज्य संस्थानों में प्रवेश पाने वाले अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव नहीं करने का आह्वान किया गया था। विधानसभा में अपनी कई बहसों के अलावा वह पहली महिला थीं जिन्होंने 24 जनवरी, 1950 को ‘जन गण मन’ को राष्ट्रगान को रूप में आधिकारिक रूप से अपनाए जाने के बाद गाया था।
संविधान सभा में पूर्णिमा बनर्जी के भाषणों में से समाजवादी विचारधारा के प्रति उनकी दृढ़ प्रतिबद्धता नज़र आती थी। वह चाहती थीं कि शिक्षा और आजीविका का अधिकार संविधान के मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा होना चाहिए।
जीवन के आखिरी पल
24 नवंबर 1949 को संविधान सभा में पूर्णिमा बनर्जी का अंतिम भाषण था। उन्होंने कहा कि संविधान नकारात्मक और सकारात्मक अधिकारों के विचार के साथ लोगों की अपेक्षाओं से कहीं अधिक है। साथ ही कहा था कि उनकी इच्छा एक ऐसी सरकार की होगी जो देश के प्रमुख उद्योगों और खनिज संसाधनों को विदेशी आक्रमण से बचाने के लिए अधिक प्रभावी ढंग से व्यवस्था नियंत्रित कर सके। उनके खराब स्वास्थ्य के कारण 1951 में नैनीताल में उनका समय से पहले निधन हो गया। उनका जीवन छोटा ज़रूर था लेकिन स्वतंत्रता संग्राम से लेकर संविधान सभा तक में उनकी भूमिका हमेशा याद की जाएगी।
तस्वीर साभार : CWDS