प्रिया शर्मा
किराने की दुकान जाना हो, स्कूल, ऑफ़िस, कॉलेज, मंदिर या मॉल। मुझे घर से बाहर कदम रखने से पहले सौ चीजों के बारे में सोचना पड़ता है क्योंकि मेरा शहर मेरे बारे में नहीं सोचता। मेरा नाम प्रिया शर्मा है और मैं एक विकलांग लड़की हूं। मुझे पढ़ने का बेहद शौक़ है, आगे जाकर मैं पीएचडी करना चाहती हूं। लेकिन जब समाज में अपने लिए न के बराबर व्यवस्थाएं देखती हूं तो कभी-कभी लगता है, मैं कर पाऊंगी न?
“मैं कमजोर नहीं हूं, यह दुनिया मुझे कमज़ोर बनाना चाहती है”
मुझे सेरिब्रल पालसी है; एक ऐसी बीमारी जो हमारे मस्तिष्क और नर्वस सिस्टम को प्रभावित करती है। मैंने हमेशा से ही व्हीलचेयर का इस्तेमाल किया है। यह मेरी कमज़ोरी नहीं है, पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि यह दुनिया मुझे कमज़ोर बनाना चाहती है।
मुझे आज तक किसी भी स्कूल/ कॉलेज में विकलांगों के लिए व्यवस्था नहीं दिखी है। स्कूल/कॉलेज छोड़ भी दें तो ज़्यादातर सार्वजनिक स्थलों पर व्हीलचेयर के लिए न तो कोई रैम्प होता है और न ही कोई लिफ़्ट। हर जगह बस बहुत सारी सीढ़ियां होती हैं। किसी भी सार्वजनिक स्थान का उदाहरण ले लीजिए, कोई गार्डन, कोई ऐतिहासिक जगह, कोई सिनेमा हॉल, कोई रेलवे स्टेशन ,कोई बस स्टॉप, कोई धार्मिक जगह, कोई भी घूमने-फिरने की जगह; ये सभी जगहें बहुत कम या न के बराबर ही डिसेबल्ड फ्रेंडली मिलेंगी।
मैं कभी स्कूल/ कॉलेज नहीं जा पाई। कैसे जाती? स्कूल में मेरे जैसे विकलांग बच्चों के लिए कोई जगह ही नहीं दिखी। जिस उम्र में बाक़ी बच्चे जीवनभर की दोस्तियां बना रहे थे, मैं अकेले अपने घर में बंद थीं। घर से पढ़कर मैंने दसवीं, बारहवीं, बीए, एमए यहां तक कि NET भी क्वॉलीफाई किया है। लेकिन परीक्षा देने के लिए परीक्षा केंद्र तक तो जाना ही पड़ता था। इतना बुरा लगता था, जब परीक्षा देने जाओ और 4-5 लोग आपको उठाकर क्लास में लेकर आएं मानो मैं कोई मरीज हूं। बाक़ी छात्रों से अलग, मेरी असली परीक्षा तो तब शुरू होती थी जब मैं परीक्षा केंद्र से बाहर निकलती थी।
“मेरा नाम प्रिया शर्मा है और मैं एक विकलांग लड़की हूं। मुझे पढ़ने का बेहद शौक़ है, आगे जाकर मैं पीएचडी करना चाहती हूं। लेकिन जब समाज में अपने लिए न के बराबर व्यवस्थाएं देखती हूं तो कभी-कभी लगता है, मैं कर पाऊंगी न?”
‘दिव्यांग’ शब्द का मतलब है एक दिव्य शरीर। यह नाम हमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर 2015 में दिया था और हमें ‘विकलांग’ से ‘दिव्यांग’ बनाया था। उनका मानना है कि हमारे पास एक दिव्य शरीर है, एक दिव्य सोच है, जो हमें सामान्य लोगों से अलग करती है। हमें सम्मानित करते हुए हमें ‘विकलांग’ से ‘दिव्यांग’’ बनाया, हमें बहुत अच्छा लगा, लेकिन नाम के साथ हमारी परिस्थितियां भी बदलती, तो हम सच में सम्मानित महसूस करते।
यहां तक पहुंचने के लिए मैंने जिन तमाम मुसीबतों का सामना किया है, उनका सामना देश के अन्य विकलांग व्यक्तियों ने भी किया होगा। हमेशा, हर जगह किया होगा। जब हम दिव्यांग हैं हमारे पास एक दिव्य शरीर है, एक दिव्य सोच है तो हमें ऐसी परेशानियां क्यों झेलनी पड़ती हैं? छोटी सी छोटी चीज़ के लिए भी मुझे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। बहुत बुरा लगता है, क्या इसलिए हम दिव्यांग हैं? इस बात की सजा मिलती हैं क्या हमें? माफ कीजिए पर नाम बदल देने से कुछ पेंशन या आरक्षण देने से हमारी स्थिति नहीं बदलेगी।
अब बदलाव ज़रूरी है
नेताओं और प्रशासन को विकलांग व्यक्तियों की परेशानियां शायद सिर्फ़ विकलांगता दिवस के दिन नज़र आती हैं, पूरे साल नहीं। हर सार्वजनिक स्थल तक की पहुंच होना हमारा अधिकार है। शिक्षा का समान अवसर होना हमारा अधिकार है। मुझे सिर्फ सम्मान नहीं चाहिए, मैं चाहती हूं हमारी स्थिति बदले, हमें हमारे अधिकार मिलें।
यहां तक पहुंचने के लिए मैंने जिन तमाम मुसीबतों का सामना किया है, उनका सामना देश के अन्य विकलांग व्यक्तियों ने भी किया होगा। हमेशा, हर जगह किया होगा। जब हम दिव्यांग हैं हमारे पास एक दिव्य शरीर है, एक दिव्य सोच है तो हमें ऐसी परेशानियां क्यों झेलनी पड़ती हैं?
मेरे अकेले बोलने से शायद मेरी आवाज़ फिर एक बार अनसुनी कर दी जाएगी। इसलिए मैंने Change.org हिंदी पर एक ऑनलाइन मुहिम शुरू की है। मैं चाहती हूं कि मेरा राज्य, राजस्थान अब मुझे और मेरे जैसे विकलांग व्यक्तियों को अनदेखा न करे। इस मुहिम द्वारा मैं राज्य सरकार से मांग कर रही हूं कि राज्य के सभी सार्वजनिक स्थलों को वह डिसेबल्ड फ्रेंडली बनाए और इन सब खर्चों के लिए एक विकलांग कोष बने। यही होगा हमारे लिए असली सम्मान और तब कहलाएंगे हम सही अर्थों में ‘दिव्यांग’।
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