नारीवाद नारीवादी आंदोलन की ख़ासियत और इसके बुनियादी मूल्य| नारीवादी चश्मा

नारीवादी आंदोलन की ख़ासियत और इसके बुनियादी मूल्य| नारीवादी चश्मा

फ़ेमिनिज़म या नारीवाद की जब भी बात की जाती है तो इसके बारे जानकारी से ज़्यादा इससे जुड़े मिथ्यों से अक्सर बात की शुरुआत करनी पड़ती है, ये एक अजीब विडंबना है जो दुर्भाग्य से आज भी क़ायम है। आमतौर पर ये माना जाता है कि ‘फ़ेमिनिज़म का मतलब सिर्फ़ पुरुषों की आलोचना करना है।‘ या फिर ‘पितृसत्ता को हटाकर मातृसत्ता लाना है।‘ जो पूरी तरह मिथ्य मात्र है। फ़ेमिनिज़म से जुड़ी ये सभी ऐसी भ्रांतियां है जिसने हमारे समाज में ‘फ़ेमिनिज़म’ शब्द को एक ऐसे टैग के तौर पर प्रसिद्ध कर दिया है जिससे आज हर शख्स अपने आपको बचाने की कोशिश करता है।

इन सभी भ्रांतियों से अलग वास्तव में नारीवाद एक ऐसा दर्शन है, जिसका उद्देश्य है – समाज में नारी की विशेष स्थिति के कारणों का पता लगाना और उसकी बेहतरी के लिए वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करना। नारीवाद ही बता सकता है कि किस समाज में नारी-सशक्तीकरण के कौन-कौन से तरीके या रणनीति अपनाई जानी  चाहिये। लेकिन दुर्भाग्यवश आज भी हमारे समाज में बहुत से लोग यह मानते ही नहीं कि महिलाओं की स्थिति दोयम दर्ज़े की है। महिलायें किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं, इसके बावजूद उन्हें अवसरों से वन्चित कर दिया जाता है। नारीवाद ऐसी परिस्थितियों के विषय में बताता है।

नारीवाद को राजनैतिक आंदोलन का एक ऐसा सामाजिक सिद्धांत भी माना जाता है जो स्त्रियों के अनुभवों से जनित है। हालांकि नारीवाद मूलतः सामाजिक संबंधो से अनुप्रेरित है पर कई स्त्रीवादी विद्वान का मुख्य जोर लैंगिक असमानता और औरतों के अधिकार पर होता है| मौजूदा समय में आज जब हम नारीवादी आंदोलन की बात करते है तो इसके स्वरूप और बुनियादी मूल्यों को लेकर कई भ्रम सामने आने लगते है, जिसकी वजह से कई बार दुनियाभर में औरतों और लड़कियों के ख़िलाफ़ होने वाले अन्यायों पर ज़ोर देने वाले आंदोलन मौजूद हमलोगों को नारीवादी आंदोलन ही लगने लगते है। लेकिन ये ज़रूरी नहीं कि महिला और लड़कियों से जुड़े हर आंदोलन नारीवादी हों। नारीवाद का समाज का विश्लेषण करने का एक ख़ास तरीक़ा है जो कि सामाजिक न्याय की अन्य विचारधाराओं के मुक़ाबले ज़्यादा गहराई में जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि हम उन कुछ बुनियादी मूल्यों पर अपनी समझ बढ़ाए जो किसी भी नारीवादी आंदोलन के बुनियादी मूल्य होते है जो सामाजिक न्याय की नारीवादी कल्पना किसी भी अन्य विचारधारा के मुक़ाबले ज़्यादा गहरी और समावेशी होती है।

घर की दहलीज़ को रुक जाए वह नारीवादी आंदोलन नहीं

हम सभी बदलाव चाहते है लेकिन हमेशा पड़ोसी के घर में। यही वजह है कि कई सामाजिक न्याय की विचारधाराएँ समानता के उद्देश्य को अपनाती हैं, लेकिन समस्या यह है कि वे हमेशा घर की दहलीज़ पर आकर रुक जाती हैं। वे इसबात पर विश्वास करती हैं कि घरों के बीच आपसी समानता और न्याय की स्थिति ही सामाजिक न्याय का सबसे गहरा स्तर है। वे निजी जगहों और रिश्तों में होने वाली असमानता, हिंसा और भेदभाव को अनदेखा कर देते हैं। कुछ अन्य विचारधाराओं का मानना है कि असमानता और भेदभाव हमारे मन में होती है, जिस तरह हम खुद को, अपने अधिकारों को, दुनिया में अपनी जगह को और क्या प्राकृतिक और क्या साधारण है, इन सब को देखते है। इसलिए नारीवादी आंदोलन के लिए ज़रूरी है कि हम न्याय, समता और समानता जैसे मूल्यों कि बात घर में भी करें।

बदलाव के लिए क़ानून-नीति की नहीं बल्कि संस्थानों में बदलाव की बात ज़रूरी है

नारीवाद पितृसत्ता और जेंडर आधारित भेदभाव को समाज में असमानता की सबसे गहरी परत मानता है। इसलिए नारीवादी मानते हैं कि क़ानून और नीतियों के स्तर पर समानता काफ़ी नहीं है इसलिए सार्वजनिक संस्थानों में जेंडर भेदभाव ख़त्म करना काफ़ी नहीं है। इसलिए सिर्फ़ क़ानून बनाने की बजाय नारीवादी आंदोलन संस्थानों में बदलाव की बात करता है।

निजी स्पेस में सत्ता का विश्लेषण है ज़रूरी  

नारीवादियों ने दरवाज़ा खोला और परीक्षण किया कि सबसे निजी और अंतरंग जगहों पर सत्ता किस तरह काम करती है जिसके आधार पर लोग अपने रोज़मर्रा के जीवन जीते हैं। नारीवादी सार्वजनिक और निजी दोनों दायरों में पितृसत्तात्मक सत्ता का विश्लेषण करते हैं, जैसे कि विवाह और परिवार में, वंश और जाति जैसे सामाजिक समूहों में, नस्ल और जातीय समूहों में, धार्मिक संस्थानों में। नारीवादी जानते हैं कि औरतें खुद के दमन में हिस्सेदार होती हैं और अक्सर पुरुषों की सत्ता को बनाए रखती हैं, क्योंकि उन्होंने भी अपने बारे में उन्हीं विचारों को आत्मसात कर लिया है और फिर पुरश सत्ता को बनाए रखने के लिए उन्हें पुरस्कृत भी किया जाता है। वे विश्लेषण करते हैं कि किस तरह पितृसत्तात्मक सत्ता अलग-अलग तरह की असमानताओं को जन्म देती हैं, निजी और सार्वजनिक, दोनों स्तरों पर ऐसे ग़लत तरीक़ों में जो उत्पादक और प्रजननशील, दोनों तरह के कामों का जेंडर के आधार पर बँटवारा करते हैं, घरेलू हिंसा में, असमान विरासत क़ानूनों में, लड़का और लकड़ी के बीच भेदभाव में और किसके पास आवाज़ और निर्णय लेने की शक्ति है – यह निर्धारित करने में।

ये ज़रूरी नहीं कि महिला और लड़कियों से जुड़े हर आंदोलन नारीवादी हों। नारीवाद का समाज का विश्लेषण करने का एक ख़ास तरीक़ा है जो कि सामाजिक न्याय की अन्य विचारधाराओं के मुक़ाबले ज़्यादा गहराई में जाता है।

अपना शरीर, अपने अधिकार की बात

नारीवाद शरीर और यौनिकता को सत्ता की जगह मानता है, जहां भेदभाव, कलंक, वर्चस्व और हिंसा होती है। नारीवादी मानते हैं कि सामाजिक न्याय तब तक नहीं मिल सकता जब तक हमारे शरीर पर हमारे नियंत्रण में और यौनिकता की अभिव्यक्ति में असमानताएँ मौजूद हैं या जब हमें इन पर अपने अधिकारों की माँग करने पर कलंक या हिंसा का सामना करना पड़े। इसलिए ये नारीवादी आंदोलन एक ज़रूरी पहलू है जो अपने शरीर पर अपने अधिकार की बात करता है।


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