सुप्रीम कोर्ट ने बीते बुधवार को एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि नाबालिग बच्चे के खिलाफ यौन उत्पीड़न की जानकारी होने के बावजूद उसके खिलाफ रिपोर्ट न करना एक गंभीर अपराध है और यह अपराधियों को बचाने का प्रयास है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी पोक्सो अधिनियम से जुड़े एक मामले के फैसले में आई। साल 2019 में एक एफआईआर अज्ञात व्यक्ति(यों) के खिलाफ नाबालिग आदिवासी लड़कियों के साथ यौन अपराध करने के आरोप में दर्ज की गई थी, जो कि इन्फैंट जीसस इंग्लिश पब्लिक हाई स्कूल, राजुरा के गर्ल्स हॉस्टल में रहने वाली छात्रा थीं। इस मामले में छात्रावास के अधीक्षक और चार अन्य को गिरफ्तार कर यौन हिंसा के अपराध में आरोपी बनाया गया था।
जांच के दौरान यह भी पाया गया कि 17 नाबालिग लड़कियों के साथ आरोपियों ने बलात्कार किया था। प्रतिवादी उक्त गर्ल्स हॉस्टल में भर्ती लड़कियों के इलाज के लिए नियुक्त मेडिकल प्रैक्टिशनर था और सर्वाइवर्स को जांच के लिए उसके पास ले जाया गया था। जांच से पता चला कि प्रतिवादी को यौन हिंसा की घटनाओं के बारे में सर्वाइवर्स ने खुद जानकारी दी थी। दरअसल, कुछ सर्वाइवर्स ने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज अपने बयानों में विशेष रूप से इसका खुलासा भी किया कि डॉक्टर्स को यौन हिंसा के बारे में पूरी जानकारी थी।
पॉक्सो अधिनियम की धारा 19(1) के प्रावधानों के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जो कि पोक्सो अधिनियम के तहत अपराध के बारे में जानकारी प्राप्त करता है तो वह ऐसा करने पर, विशेष किशोर पुलिस इकाई को ऐसी जानकारी या स्थानीय पुलिस को इसकी जानकारी उपलब्ध कराएगा। यह उस जानकारी प्राप्त करने वाले पर एक कानूनी दायित्व है। प्रतिवादी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया और चुप रहा इसीलिए उसके खिलाफ भी चार्जशीट में आरोप लगाया गया।
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस सी.टी. रविकुमार की बेंच ने टिप्पणी की कि जानकारी होने के बावजूद एक नाबालिग बच्चे के खिलाफ यौन हमले की सूचना न देना एक गंभीर अपराध है और अक्सर यह यौन हमले के अपराध के अपराधियों को बचाने का एक प्रयास है।
हालांकि, पिछले साल बॉम्बे उच्च न्यायालय ने डॉक्टर के खिलाफ विधिक कार्यवाही को अचानक यह कहते हुए रद्द कर दिया कि डॉक्टर के खिलाफ अपराध साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है। महाराष्ट्र सरकार ने हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा अपील पर सुनवाई करते हुए कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 59 के आलोक में, प्रतिवादी के खिलाफ कार्यवाही को अचानक समाप्त करने के लिए हाई कोर्ट उचित नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस सी.टी. रविकुमार की बेंच ने पिछले साल के बॉम्बे हाई कोर्ट के उक्त फैसले को रद्द करते हुए जिसमें चिकित्सक के खिलाफ विधिक प्राथमिकी को रद्द कर दिया गया था, टिप्पणी की कि जानकारी होने के बावजूद एक नाबालिग बच्चे के खिलाफ यौन हमले की सूचना न देना एक गंभीर अपराध है और अक्सर यह यौन हमले के अपराध के अपराधियों को बचाने का एक प्रयास है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पॉक्सो अधिनियम के तहत अपराध के कमीशन की तत्काल और उचित रिपोर्टिंग बेहद ज़रूरी है और हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इसके तहत किसी भी अपराध के कमीशन के बारे में जानने में विफलता अधिनियम के उद्देश्य को विफल कर देगी। पॉक्सो अधिनियम की धारा 19 (1) के तहत, एक व्यक्ति विशेष किशोर पुलिस इकाई या स्थानीय पुलिस को अपराध होने या होने की संभावना की जानकारी देना कानूनी दायित्व के अधीन है।पॉक्सो अधिनियम की धारा 21 के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो धारा 19 की उपधारा (1) या धारा 20 के अधीन किसी अपराध के किए जाने की रिपोर्ट करने में विफल रहेगा या जो धारा 19 की उपधारा (2) के अधीन ऐसे अपराध को अभिलिखित करने में विफल रहेगा, तो वह 6 माह के कारावास की अवधि से या जुर्माने के दंड से दंडित किया जाएगा।
विधायिका ने यह अधिनियम बनाते समय धारा 21 के तहत दायित्व के निर्वहन में विफलता को दंडनीय माना है। अगर विधायिका के उद्देश्य को देखा जाए तो निश्चित रूप से, ऐसे प्रावधानों को पॉक्सो अधिनियम के प्रावधानों का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए ही अधिनियम में शामिल किया गया है और इस प्रकार यह सुनिश्चित करने के लिए कि छोटे/निविदा उम्र के बच्चों का दुरुपयोग नहीं किया जा रहा है और साथ ही उनके बचपन और किशोरावस्था को शोषण से बचाया जा सके।
घटना की जानकारी न देने पर सजा क्यों?
विजय मदनलाल चौधरी के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सजा की अवधि न केवल अपराध की गंभीरता का सूचक है और इसका निर्णय समग्र कारकों द्वारा किया जाना है, विशेष रूप से उस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए जिसमें विशिष्ट अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में विधायिका द्वारा अपराध को पहचाना गया था। इस संदर्भ में, यह नोट करना भी प्रासंगिक है कि बच्चों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, जिसे भारत द्वारा 11.12.1992 को अनुसमर्थित किया गया था, राज्य को समुचित राष्ट्रीय, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय उपाय करने के लिए कहता है जो कि बच्चे को किसी भी गैरकानूनी यौन गतिविधि में शामिल होने के लिए, बच्चे के उत्प्रेरण या जबरदस्ती से रोकने के लिए, सेक्सवर्क या अन्य गैरकानूनी यौन प्रथाओं आदि में बच्चों का शोषणकारी उपयोग करने से बचाने के लिए ज़रूरी हैं। इस कन्वेंशन के अनुच्छेद 3 (2) और 34 ने राज्य पर एक विशिष्ट कर्तव्य रखा है जोकि बच्चे को सभी प्रकार के यौन शोषण और दुर्व्यवहार से बचाए।
यौन हिंसा की जांच में चिकित्सक की भूमिका
कोर्ट ने कहा कि पॉक्सो अधिनियम के तहत अपराध के कमीशन की शीघ्र और उचित रिपोर्टिंग अत्यंत महत्वपूर्ण है और हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इसके तहत किसी भी अपराध के कमीशन के बारे में जानने में इसकी विफलता अधिनियम के उद्देश्य को विफल कर देगी। पॉक्सो एक्ट के तहत आने वाले मामले में जल्द रिपोर्ट किए जाने के कारण सर्वाइवर और आरोपी की मेडिकल जांच से कई अहम सुराग मिलेंगे। पोक्सो अधिनियम की धारा 27 उस बालक की चिकित्सीय परीक्षा जाँच के लिए प्रावधान निर्धारित करता है जिसके साथ यौन हिंसा हुई है। पोक्सो अधिनियम की धारा 27 (1) में प्रावधान है कि उस बच्चे की चिकित्सा जांच, जिसके संबंध में उक्त अधिनियम के तहत कोई अपराध किया गया है, इस बात के बावजूद कि अधिनियम के तहत अपराध के लिए प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है या शिकायत दर्ज नहीं की गई है, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 164A के अनुसार की जाएगी।
एक तो हमारे समाज में यौन हिंसा के सभी केस रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं और अगर कुछ केस रिपोर्ट कर भी दिए जाते हैं तो फिर उनकी जांच में आनेवाली रुकावटें उन्हें विफल कर देती हैं। इससे पीड़ित और उनके घरवालों का मनोबल टूटता है। ऐसे में न्यायालय का यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण है।
इस प्रासंगिक स्थिति में, सीआरपीसी की धारा 53 A का उल्लेख करना भी प्रासंगिक है जो एक चिकित्सक द्वारा बलात्कार के आरोपी व्यक्ति की जांच के लिए अनिवार्य है। यह भी एक तथ्य है कि पक्षों के कपड़े भी बलात्कार के मामलों में बहुत विश्वसनीय सबूत पेश करते हैं। हम उपरोक्त प्रावधानों का उल्लेख केवल इस तथ्य पर जोर देने के लिए करते हैं कि POCSO अधिनियम के तहत किसी अपराध के होने की त्वरित रिपोर्टिंग से संबंधित सर्वाइवर की तत्काल जांच की जा सकेगी और साथ ही, अगर यौन हिंसा किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा की गई थी, तो यह जांच एजेंसी को बिना समय बर्बाद किए जांच शुरू करने और आखिरकार अपराधी की गिरफ्तारी और चिकित्सा परीक्षण सुनिश्चित करने में सक्षम बनाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि यौन अपराधों के संबंध में चिकित्सा साक्ष्य का बहुत अधिक पुष्टिकारक महत्व है।
सुप्रीम कोर्ट की दो पीठ बेंच ने शंकर किसनराव खाड़े के मामले में कहा था कि अगर अस्पताल, चाहे सरकारी हो या निजी स्वामित्व वाले या चिकित्सा संस्थान जहां बच्चों का इलाज किया जा रहा है, को पता चलता है कि भर्ती किए गए बच्चे यौन शोषण के सर्वाइवर हैं, तो इसकी सूचना तुरंत निकटतम किशोर न्याय बोर्ड/एसजेपीयू और किशोर न्याय बोर्ड को दी जाएगी। एसजेपीयू के परामर्श से, बच्चे के हितों की रक्षा करने वाले कानून के अनुसार उचित कदम उठाने चाहिए। किसी के द्वारा अपराध की सूचना न देना, यह जानने के बाद कि 18 वर्ष से कम आयु के नाबालिग बच्चे के साथ कोई यौन उत्पीड़न किया गया था, एक गंभीर अपराध है और रिपोर्ट न करके वे अपराधियों को कानूनी सजा से बचा रहे हैं और इसलिए सामान्य आपराधिक कानून के तहत उत्तरदायी ठहराया जा सकता है और कानून के अनुसार उनके खिलाफ त्वरित कार्रवाई की जा सकती है।
एक तो हमारे समाज में यौन हिंसा के सभी केस रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं और अगर कुछ केस रिपोर्ट कर भी दिए जाते हैं तो फिर उनकी जांच में आनेवाली रुकावटें उन्हें विफल कर देती हैं। इससे पीड़ित और उनके घरवालों का मनोबल टूटता है। ऐसे में न्यायालय का यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण है। इससे यौन हिंसा के मामलों को दबाने वालों के दिल में एक डर बैठेगा और वे भविष्य में ऐसा करने से पहले ज़रूर सोचेंगे।