जेंडर असमानता अपने समाज की एक कड़वी सच्चाई है, वो सच्चाई जिससे हर इंसान कभी न कभी दो-चार ज़रूर होता है। पारिवारिक स्तर पर नहीं तो सामाजिक स्तर पर ही सही, लेकिन ऐसा होता ज़रूर है, क्योंकि अपने समाज की संरचना ही जेंडर असमानता वाले मूल्यों के साथ हुई है। पितृसत्ता जेंडर असमानता की जड़ है। पितृसत्ता का मतलब है ‘पुरुष की सत्ता।‘ ये एक सामाजिक व्यवस्था है जिसमें पुरुष को हमेशा बेस्ट माना जाता है। इस व्यवस्था में फ़ैसले लेने और रिसोर्स पर पुरुषों का नियंत्रण होता है। लेकिन इन नियंत्रण का रूप कई बार ऐसा होता है कि उनकी पहचान कर पाना मुश्किल होता है, जिसकी वजह से हम इस नियंत्रण से पुरुषों को मिलने वाले विशेषाधिकार और अन्य जेंडर के लोगों के साथ होने वाले दमन को नहीं देख पाते है। इसलिए अगर हमें पितृसत्ता को चुनौती देनी है तो इसके लिए इसकी जड़ों और प्रभावों को पहचानना बेहद ज़रूरी है। आज के अपने इस लेख में हमलोग पितृसत्ता के उन नियंत्रण के बारे में बात करेंगें, जो समाज में जेंडर असमानता को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाते है –
धर्म, शिक्षा और पद पर नियंत्रण पुरुष का
हम किसी भी धर्म के मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च या अन्य धार्मिक स्थल को देखे, वहाँ हमेशा सबसे ज़्यादा सत्ता और नियंत्रण पुरुषों के पास होती है। हमेशा मंदिर में पुरुष ही पुजारी होता है, मस्जिद में पुरुष की क़ाज़ी होता है, चर्च का फादर भी पुरुष होता है। ज़ाहिर है जब किसी जगह पर पूरा नियंत्रण पुरुष के पास होता है तो उसका जगह के नियम भी पुरुष के हक़ के लिए बनाए जाते है।
इसी तरह अगर हम शिक्षा के क्षेत्र को देखें तो ज़्यादातर किताबें पुरुषों द्वारा ही लिखी गयी, क्योंकि शिक्षा का अवसर मिलने का अधिकार उन्हें हमेशा से रहा है और जब ये अवसर पुरुषों को ज़्यादा मिले है तो इससे जुड़े पद (डॉक्टर, इंजीनियर, पायलट, वकील, पुलिस व अन्य) भी पुरुषों को ही ध्यान में रखकर तैयार किए गए है।
‘काम’ का भेद और नियंत्रण का खेल
घर में काम करने के लिए महिलाओं को पैसे नहीं मिलते है और बाहर काम पर भी अक्सर उन्हें पुरुषों की अपेक्षा कम पैसे मिलते है, भले ही वो एक जैसा ही काम हो। हमारे परिवारों में आदमी घर के काम नहीं करते है, क्योंकि आदमियों का घर का काम करना समाज अच्छा नहीं मानता है। पर जैसे ही वही काम घर से बाहर करने की बात आती है तो वो काम पुरुष करता है और समाज को कोई परेशानी नहीं होती।
ठीक उसी तरह, पुरुष घर में खाना नहीं बनाते है, लेकिन होटल में खाना बनाने का काम अक्सर पुरुष करते है, क्योंकि इसके लिए उन्हें पैसे दिए जाते है। समाज की इसी सोच की वजह से महिलाओं को हमेशा ऊँचे पदों से भी दूर रखा जाता है। इसका सीधा उदाहरण है – महिला प्रधान। जब कोई महिला प्रधान होती है तो उसे उतना सम्मान नहीं दिया जाता पुरुषों को दिया जाता है और अधिकतर जगहों में महिला प्रधान के काम उनके पति ही करते है। इस तरह पितृसत्ता के तहत हर वो काम जिसमें आमदनी होती है, जिससे पैसे कमाए जाते है उसपर पुरुषों का नियंत्रण होता है और महिलाओं का शोषण होता है, जिसका फ़ायदा भी पुरुषों को मिलता है।
‘यौनिकता’ का फ़ैसला पुरुषों के हाथ
महिलाएँ क्या पहनेंगीं, क्या काम करेंगीं, कितनी पढ़ाई करेंगीं, किससे रिश्ते बनाएँगीं, कैसे रिश्ते बनाएँगी, कब बाहर जाएँगी, कब वापस आएँगीं, यौन सुख में उनकी भूमिका क्या होगी जैसी ढ़ेरों बातों का फ़ैसला करने का अधिकार पुरुषों के हाथ में होता है। पितृसत्ता के तहत समाज अपनी पूरी ताक़त महिला को अन्य पुरुषों से सुरक्षित कर अपने पसंद के पुरुष को सुपुर्द करने में लगाता है। ग़ौरतलब है कि इस सुरक्षित रखने की प्रक्रिया में महिलाओं की यौनिकता पर ख़ास नियंत्रण रखा जाता है, जिससे महिलाएँ अपनी ज़िंदगी और इच्छाओं से जुड़े एक भी फ़ैसले न ले सकें।
पितृसत्ता के तहत समाज अपनी पूरी ताक़त महिला को अन्य पुरुषों से सुरक्षित कर अपने पसंद के पुरुष को सुपुर्द करने में लगाता है।
महिलाओं की ‘गतिशीलता’ पर पुरुषों का नियंत्रण
आधुनिकता के दौर में ऊपरी रूप से जेंडर समानता के पैरोकार अक्सर ये कहते हैं कि मैने तो अपने घर की महिलाओं को स्कूटी दी है, जिससे वे आसानी से कहीं आ जा सके। लेकिन वो स्कूटी कितनी दूर जाएगी, कब जाएगी, किस रास्ते जाएगी, क्यों जाएगी, कितने बजे जाएगी और कितने बजे आएगी, जैसे सारे फ़ैसले पर पुरुषों का नियंत्रण होता है। इसी तरह पर्दा प्रथा, घर के अंदर रहना, महिला व पुरुष के बीच कम से कम संपर्क होना, ये सभी बातें महिलाओं की गतिशीलता पर पुरुषों के नियंत्रण को दर्शाती है। जैसे अगर किसी औरत को कहीं बाहर जाना है तो उसके साथ पुरुष ज़रूर जाएगा, फिर भले ही वो उसका छोटा भाई ही क्यों न हो। इसी नियंत्रण की वजह से महिलाओं को कहीं आने जाने, अकेले सफ़र करने और बाहर जाने की पाबंदियाँ लगायी जाती है।
‘संसाधन’ पर पुरुषों का नियंत्रण
बात सम्पत्ति की हो या अवसर की, उनपर हमेशा पुरुषों का कंट्रोल होता है। भले ही भारत सरकार ने अब बेटियों को भी पैतृक सम्पत्ति पर आधा हिस्सा दिया है, लेकिन सच्चाई ये है कि बेहद कम ही बेटियाँ पैतृक सम्पत्ति में अपना हिस्सा लेती है, क्योंकि हमेशा से पिता की सम्पत्ति बेटे को ही मिलती आयी है और जो अलिखित लेकिन सबसे मज़बूत नियम है। इसी तरह सभी आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं पर अधिकतर पुरुषों का नियंत्रण होता है। बात फिर शिक्षा की हो, रोज़गार की हो या फिर सूचनाओं के साधन की हो हर जगह पुरुषों का वर्चस्व होता है।
पितृसत्ता को चुनौती देनी है तो इसके लिए इसकी जड़ों और प्रभावों को पहचानना बेहद ज़रूरी है।
‘परिवार’, पुरुषों के नियंत्रण की इकाई
किसी भी समाज में परिवार उसकी पहली ईकाइ माना जाता है। अब अगर हम अपने घर की व्यवस्था को देखे तो यही पाते हैं कि परिवार में सभी छोटे-बड़े फ़ैसलों पर पुरुषों का नियंत्रण होता है, जिनके आगे हमेशा परिवार की महिला सदस्यों को कमतर आंका जाता है। इतना ही नहीं, शादी-ब्याह में भी लड़की पक्ष को हमेशा लड़के पक्ष से कमतर आंका जाता है।
‘प्रजनन’ की बात और नियंत्रण पुरुष के पास
किसी इंसान को कब शादी करनी है, कैसे शादी करनी है, क्यों शादी करनी है, बच्चे करने है या नहीं, कब करने है, कितने बच्चे करने है – ऐसे सभी फ़ैसले हमारे समाज में आज भी पुरुष करते है। प्रजनन को लेकर सारा नियंत्रण हमेशा पुरुषों का होता है, यही वजह है कि अगर बात गर्भनिरोध की आती है तो पूरा समाज हमेशा महिलाओं का मुँह निहारता है, क्योंकि गर्भनिरोध की ज़िम्मेदारी महिलाओं की समझी जाती है। इसका परिणाम ये होता है कि महिलाएँ ज़्यादातर नसबंदी, गर्भनिरोधक गोलियाँ जैसे उपाय करती है, लेकिन वहीं सरकार की तरफ़ से ज़्यादा सुविधाएँ देने के बावजूद भी पुरुष नसबंदी का स्तर काफ़ी कम है। इस तरह पितृसत्ता के माध्यम से पुरुष महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर अपना नियंत्रण रखते है।