संस्कृतिसिनेमा तारक मेहता का उल्टा चश्मा हमारे जातिवादी समाज के चश्मे की तरह उल्टा क्यों? 

तारक मेहता का उल्टा चश्मा हमारे जातिवादी समाज के चश्मे की तरह उल्टा क्यों? 

‘तारक मेहता का उलटा चश्मा’ इस शो का नाम सुनते ही हंसी आने लगती है न! इस शो की कहानी आधारित है मुंबई की गोकुलधाम सोसाइटी पर। इस सोसाइटी में जेठालाल और दया, भिंडे और माधुरी, रोशन सिंह और रोशन, बबिता और मिस्टर अय्यर, डॉ हाथी और कोमल, तारक और अंजलि, पत्रकार पोपटलाल और अब्दुल भाई और चंपक चाचा और टप्पू सेना और जेठालाल के कर्मचारी नट्टू काका और बागा जैसे कई किरदार हैं। इस शो के ये सभी किरदार जिस गोकुलधाम सोसाइटी में रहते हैं उसे सभी ‘छोटा भारत’ कहते हैं। शो में दिखाया गया है कि यहां एक-दूसरे की संस्कृति और परंपराओं का सम्मान करते हुए सभी लोग खुशी से रहते हैं।

पिछले 13 सालों से यह शो चल रहा है और अब तक इस शो ने लगभग 3600 से अधिक एपिसोड पूरे कर लिए हैं। शायद ही कोई ऐसा हो जिसे इस शो के बारे में नहीं पता होगा। घर-घर में मशहूर इस शो को लेकर बहुत से सवाल मेरे मन में उठते रहे हैं। बचपन से इस शो को देख रही हूं। तब शायद एक बचपना था और समाज के प्रति मेरा कोई नज़रिया नहीं था। लेकिन अब बड़े होने के बाद और इस समाज के नज़रिए को समझने के बाद मुझे इसमें बहुत सी असमानताएं दिखती हैं धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, नस्ल आदि के आधार पर जिनका अनुभव मैंने अपने जीवन में भी किया है। 

अगर मैं बात करूं तारक मेहता का उल्टा चश्मा कि तो यह चश्मा सच में समाज के चश्मे की तरह ही उल्टा है। वह समाज जहां हर वर्ग, जाति के लिए कोई जगह नहीं है। अब आप कहेंगे गोकुलधाम सोसाइटी को तो छोटा हिंदुस्तान या भारत कहकर संबोधित किया जाता है, ऐसे में सबके लिए यहां कैसे कोई जगह नहीं है। लेकिन इस छोटे भारत की अवधारणा में कुछ तबकों का तो नाम-ओ-निशान ही नहीं है और उनके परिवार की कहानी तक नहीं है। जैसे शो में एक भी मुस्लिम परिवार नहीं है। सिर्फ़ अब्दुल की कहानी है और वह भी उस सोसाइटी में नहीं रहता सिर्फ़ काम करता है। उसकी दुकान भी सोसाइटी के बाहर है। इस शो में जितने भी किरदार हैं, जिनकी भी कहानी दिखाई जाती है वे सभी तथाकथित उच्च जाति और मध्यवर्गीय परिवार से आते हैं। ग़रीब परिवार, मजदूर वर्ग, दलित-बहुजन जाति आदि का इस शो से कोई लेना-देना नहीं और उनके परिवार की कहानी तक नहीं है।

यह कैसी विविधता है जहां देश के आधे सच तक को नहीं दिखाया जाता। सिर्फ़ कुछ वर्ग को दिखाकर भारत की एकता और विविधता को कैसे दिखाया जा सकता है। यह तो वही दोहरा व्यवहार है जो यह जातिवादी समाज हमेशा करता आया है जिसके तहत हाशिए के लोगों को हमेशा से ही अनदेखा किया गया है।

इतना ही नहीं जब भी कुछ लोग को दिखाया गया जैसे नट्टू काका, बागा और सब्जी बेचनेवाली या कोई घरेलू कामगार उन सब के लिए एक अलग लेंस का इस्तेमाल किया गया। जैसे कभी सब्जी बेचने वाली आती है तो उसके लिए कहा जाता है कि वह चालाक है, महंगी सब्जी बेचती है। शो में घरेलू कामगारों के प्रति भी ऐसे ही नज़रिया देखने को मिलता है। इतना ही नहीं नट्टू काका अगर अपनी सैलरी बढ़ाने की बात करें तो उसे भी एक मज़ाक के तौर पर दिखाया जाता है। शो के दौरान किसी गरीब बच्चे का जन्मदिन मनाकर या किसी की मदद करके उस तबके को सहनुभूति के नज़रिए से दिखाया जाता है। 

गरीबों, ज़रूरतमंदों की मदद करनी चाहिए, जैसी बातें शो में दिखाई जाता हैं लेकिन इन तबकों के किरदार, कहानी या उनकी बातों को कभी मुख्य किरदार के रूप में शामिल नहीं किया गया। अगर उनकी कहानी शो में शामिल की गई होती तो उनकी ज़िंदगी कैसी होती है, ये किरदार क्या काम करते हैं और उनका व्यवहार क्या है और समाज का उनके प्रति क्या नज़रिया है यह देखने को मिलता। 

जहां गोकुलधाम जो कि इनका छोटा भारत है, उस छोटे भारत में छोटे लोग भी नहीं आते। अगर आते भी हैं तो उनके प्रति जो असली समाज का व्यवहार और नज़रिया है, उसे ही बखूबी बढ़ावा दिया जाता है। इतना ही नहीं जब भी मैं शो को देखती हूं तो शो में हमेशा एक ही तरह के खाने को दिखाया जाता है। यह खाना हमेशा शाकाहारी होता है, शो में कभी भी मांसाहारी खाने तक की बात नहीं होती और न ही कभी दिखाया जाता है। 

जहां गोकुलधाम के मर्द कमाने का काम करते हैं वहीं ज्यादातर औरतें घर संभालती हैं। शो में महिलाओं को लेकर बड़ी-बड़ी बातें होती हैं। जैसे महिलाएं आदिशक्ति हैं, अन्नपूर्णा हैं। सोसाइटी में महिला मंडल है लेकिन यह मंडल सिर्फ़ चारदीवारी में सिर्फ़ किटी पार्टी करता है। गोकुलधाम की ज्यादातर औरतें अपने घर के मर्दों की अनुमति के बिना कुछ नहीं करती नज़र आती। सभी किरदारों को घर के अंदर खाना बनाने, बच्चे को संभालने और परिवार का ख्याल रखने की ज़िम्मेदारी रखते हुए ही दिखाया गया है जो कि इस पितृसत्तात्मक समाज में एक ‘आदर्श औरत’ के काम हैं।

हां शो की किरदार माधुरी अपने अचार, पापड़ का काम ज़रूर करती है लेकिन उसकी डिलिवरी करने भी उसके पति ही जाते हैं। इतना ही नहीं किसी की पत्नी कहीं चली जाती है तो बेचारे परिवारवाले ‘असहाय’ हो जाते हैं, फिर एक-दूसरे के घर आकर खाना खाते हैं। खुद खाना तक नहीं बना सकते हैं। शो की एक भी महिला किरदार कामकाजी नहीं है। इतना ही नहीं जब भी जेठा लाल बबिता के साथ हमेशा फ्लर्ट करता नज़र आता है। इसे शौ में एक मज़ाक के तौर पर दिखाया जाता है। बबिता का पति उसे जेठालाल से बचाने की कोशिश करता है लेकिन डर के मारे कुछ बोल नहीं पाता।  

क्या सिर्फ़ उच्च जाति और मध्यवर्गीय परिवारों पर ही शो लिखे जाने चाहिए? क्या हाशिये के तबकों और उनके परिवार की कहानी कोई मायने नहीं रखती? आज के जो शो हैं वे सिर्फ़ एक जाति, धर्म, लिंग पर क्यों आधारित हैं? कब तक कॉमेडी के नाम पर हम समाज की असमानताओं और रूढ़िवादी सोच के ऊपर हंसते रहेंगे?

शो में कई गंभीर मुद्दों को लेकर मज़ाक उड़ाया जाता है। जैसे दया का पढ़ा-लिखा न होना, भिड़े की गरीबी, डॉक्टर हाथी और उसके बेटे वजन, अय्यर का रंग। लेकिन आज तक कभी इस शो को इस नज़रिए से नहीं देखा गया। कभी इस पर सवाल नहीं उठाए गए। यह धारावाहिक कॉमेडी नहीं बल्कि समाज की रूढ़िवादी सोच को बढ़ावा दे रहा है और शो के माध्यम से इन विचारों को एकता, विविधता का प्रतीक बताया जा रहा है। मेरे बहुत से सवाल हैं शो बनानेवाले से कि यह कैसी विविधता है जहां देश के आधे सच तक को नहीं दिखाया जाता। सिर्फ़ कुछ वर्ग को दिखाकर भारत की एकता और विविधता को कैसे दिखाया जा सकता है। यह तो वही दोहरा व्यवहार है जो यह जातिवादी समाज हमेशा करता आया है जिसके तहत हाशिए के लोगों को हमेशा से ही अनदेखा किया गया है। इसी सोच का पालन इस शो में भी इतने सालों से किया जा रहा है।

क्या सिर्फ़ उच्च जाति और मध्यवर्गीय परिवारों पर ही शो लिखे जाने चाहिए? क्या हाशिये के तबकों और उनके परिवार की कहानी कोई मायने नहीं रखती? आज के जो शो हैं वे सिर्फ़ एक जाति, धर्म, लिंग पर क्यों आधारित हैं? कब तक कॉमेडी के नाम पर हम समाज की असमानताओं और रूढ़िवादी सोच के ऊपर हंसते रहेंगे? कब तक उन कहानियों को हम देखते रहेंगे जो हमारी नहीं हैं, जिनमें हमारा प्रतिनिधित्व नहीं है, जिनका हमारी असल जिंदगी से कुछ लेना-देना नहीं है?


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