संस्कृतिसिनेमा हिंदी टीवी सीरियल्स की प्रासंगिकता और प्रगतिशीलता पर चर्चा क्यों ज़रूरी है

हिंदी टीवी सीरियल्स की प्रासंगिकता और प्रगतिशीलता पर चर्चा क्यों ज़रूरी है

पिछले दिनों 20 साल पहले की लोकप्रिय धारावाहिक 'क्यों कि सास भी कभी बहु थी' मनोरंजन की दुनिया में चर्चा का विषय बना रहा। इस धारावाहिक को पहले की तरह स्टार प्लस चैनल पर दोबारा प्रसारित किया जा रहा है। लेकिन यहां यह सवाल ज़रूरी है कि क्या 20 साल बाद भारत के बदलते सांस्कृतिक और सामाजिक परिदृश्य में ऐसे धारावाहिक प्रासंगिक हैं? क्या महिला सशक्तिकरण और पारिवारिक मूल्यों के दावे करते ऐसे धारावाहिक समाज को एक सकारात्मक दिशा देने में सक्षम हैं?

पिछले दिनों 20 साल पहले की लोकप्रिय धारावाहिक ‘क्योंकि सास भी कभी बहु थी‘ मनोरंजन की दुनिया में चर्चा का विषय बना रहा। इस धारावाहिक को पहले की तरह स्टार प्लस चैनल पर दोबारा प्रसारित किया जा रहा है। किसी ज़माने में सास-बहु धारावाहिकों में नंबर वन रह चुका यह शो एकता कपुर के प्रोडक्शन हाउस बालाजी टेलीफिल्म्स द्वारा निर्मित है। हालांकि, यह पहली बार नहीं जब ऐसे सास-बहु की कहानी पर बने कार्यक्रम दिखाए गए हो। लेकिन यहां यह सवाल ज़रूरी है कि क्या 20 साल बाद भारत के बदलते सांस्कृतिक और सामाजिक परिदृश्य में ऐसे धारावाहिक प्रासंगिक हैं? क्या महिला सशक्तिकरण और पारिवारिक मूल्यों के दावे करते ऐसे धारावाहिक समाज को एक सकारात्मक दिशा देने में सक्षम हैं?

मौजूदा समय में प्राइम टाइम में रात 9 से 10 बजे तक के समय को किसी नए कार्यक्रम के लिए सुरक्षित माना जाता था, लेकिन बालाजी टेलीफिल्म्स की क्योंकि सास भी कभी बहु थी या उसी दौर में प्रसारित कहानी घर-घर की जैसे धारावाहिक प्राइम टाइम के प्रणाली में महत्वपूर्ण बदलाव लाने में कामयाब हुए। हालांकि क्योंकि… के प्रसार के बाद देर रात प्राइम टाइम का समय लोगों के बीच लोकप्रिय और निर्माताओं के लिए एक सुरक्षित समय स्लॉट बन गया। लेकिन बालाजी टेलीफिम्स द्वारा बनाए गए ऐसे कई दूसरे समकालीन धारावाहिकों ने ‘सास-बहु’ परिकल्पना को हिंदी टेलीविज़न की दुनिया में प्रचलित करने के साथ-साथ मनोरंजन और सशक्त महिला किरदारों के नाम पर रूढ़िवादी, दकियानूसी और पितृसत्तात्मक कार्यक्रमों को लोकप्रिय बनाने की नींव भी गढ़ी। टेलीविज़न रेटिंग पॉइंट (टीआरपी) की बात करें, तो अपने समय में सबसे लंबा चलने वाला धारावाहिक क्योंकि लगातार सबसे लोकप्रिय हिंदी साप्ताहिक बना रहा।

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पिछले दिनों 20 साल पहले की लोकप्रिय धारावाहिक ‘क्यों कि सास भी कभी बहु थी’ मनोरंजन की दुनिया में चर्चा का विषय बना रहा। इस धारावाहिक को पहले की तरह स्टार प्लस चैनल पर दोबारा प्रसारित किया जा रहा है। लेकिन यहां यह सवाल ज़रूरी है कि क्या 20 साल बाद भारत के बदलते सांस्कृतिक और सामाजिक परिदृश्य में ऐसे धारावाहिक प्रासंगिक हैं? क्या महिला सशक्तिकरण और पारिवारिक मूल्यों के दावे करते ऐसे धारावाहिक समाज को एक सकारात्मक दिशा देने में सक्षम हैं?

मनोरंजन के लिए दिखाए जा रहे कार्यक्रमों का आंकलन है ज़रूरी 

आज भारत में लैंगिक समानता, समान वेतन, रोज़गार के समान अवसर, समान शिक्षा, लैंगिक हिंसा से छुटकारा या इनसे जुड़ी चुनौतियों की बात हो रही है। सतत विकास लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए सामाजिक बदलाव की ज़रूरत है। दो दशक पहले की तुलना में आज लोगों का संचार माध्यमों तक पहले से कहीं ज्यादा पहुंच है। आज न सिर्फ टीवी बल्कि मनोरंजन के दूसरे माध्यमों के ज़रिए लोग सामाजिक बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही, हम गलत या अनुचित कार्यक्रमों की जवाबदेही मांगने के अपने अधिकार को लेकर जागरूक हुए हैं। मनोरंजन की दुनिया आम जनता से जुड़ने और सकारात्मक सामाजिक बदलाव लाने का एक बहुआयामी और मज़बूत माध्यम है। टेलीविज़न पर हर दिन दिखाए जानेवाले कार्यक्रम न सिर्फ हर समुदाय, जाति, धर्म,वर्ग,उम्र और तबके के लोगों तक पहुंचते हैं, बल्कि कई बार यह सिनेमा से कहीं ज्यादा प्रभावशाली माध्यम बनकर उभरते हैं।

इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि टीवी पर दिखाए जानेवाले कार्यक्रमों की गुणवत्ता और प्रासंगिकता की बात हो। सोचिए कि अगर किसी महिला के दिन की शुरुआत आंगन में लगे तुलसी के पेड़ को पूजते हुए शुरू हो और खत्म रसोई के कामों से या महिलाओं की एकमात्र ज़िम्मेदारी परिवार की देखभाल तय कर दी गई हो। या फिर महिलाओं के जीवन का एकमात्र मकसद शादी, पति की रक्षा और उसका प्यार पाना हो।

अक्सर, भारतीय परंपरा को दिखाने के नाम पर धारावाहिकों में व्यवस्थित पितृसत्तातमक मानदंडों को चमक-धमक के साथ दिखाकर लोकप्रिय बनाया जाता है जिनका पालन करना महिलाओं की ज़िम्मेदारी दिखाई जाती है। पारिवारिक प्यार के नाम पर निश्चित पारिवारिक हाइरार्की यानि अनुक्रम दिखाया जाता है जिसमें घर की कहानी घर के सबसे बुजुर्ग पुरुष और उसके बेटों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। लेखकों के लिए भारतीय परंपरा का सहारा लेना आसान है और जनता के लिए उसे मान लेना सहूलियत। लोगों का ‘सास-बहु’ कांसेप्ट वाले कार्यक्रमों से जुड़ाव होना स्वाभाविक है क्योंकि आज भी अधिकतर घरों में महिलाओं का सबसे आखिर में खाने या घर में सबकी देखभाल करने जैसी चीज़ों को हमारा समाज सामान्य बताता है।

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क्या असर करते हैं धारावाहिकों में गढ़े जा रहे नैरेटिव   

बालाजी टेलीफिल्म्स के धारावाहिकों पर गौर करें, तो लगभग हर धारावाहिक में महिलाओं को हाउसवाइफ दिखाया जाता रहा है और पूरी की पूरी कहानी सिर्फ सास-बहु और पारिवारिक मसलों के आगे-पीछे घुमती नज़र आती है। बात दोबारा शुरू हुए ‘क्योंकि सास भी कभी बहु थी’ की करें, तो पहले ही एपिसोड में परिवार की सबसे बुजुर्ग महिला ‘बा’ को अपने पति के पैर छूते हुए दिखाया जा रहा है। शादी के लिए खाना बना पाने वाली और ससुराल में सभी के अनुसार खुद को एडजस्ट करने वाली लड़कियों को पसंद किए जाने की बात को इस धारावाहिक ने बखूबी दिखाया है।

धारावाहिक के मूल किरदार मिहिर का उसकी होने वाली पत्नी पायल का खाना बनाने नहीं जानने की बात जानकर चौंक जाना। एकल परिवार में पली-बढ़ी पायल से सभी का यह उम्मीद करना कि वह स्वाभाविक रूप से तीन पीढ़ियों की परिवार में एडजस्ट कर लेगी या बा का उससे खाना बनाने सीख लेने की उम्मीद करना; उसी रूढ़िवादी सोच को बढ़ावा देती है जहां किसी महिला के गुणों का आंकलन उसके खाना बनाने की क्षमता से की जाती है। धारावाहिक में पूजा-पाठ न करने वाली, या कई दकियानूसी भारतीय रीति-रिवाजों को न मानने वाली लड़की पायल को बतौर विलन दिखाया जाता है।

अक्सर, हिंदी मनोरंजन की दुनिया में खुद के सपनों और इच्छाओं को महत्व देने वाली, पश्चिमी (वेस्टर्न) कपड़े पहनने वाली या कामकाजी महिला को परिवार से प्यार नहीं करनेवाली बुरी और स्वार्थी औरत के रूप में दिखाया जाता है; जिससे किसी भी लड़के की शादी मुश्किल है। इसके उलट, शादी के लिए योग्य महिला को भारतीय कपड़ों में दिखाया जाता है जो विनम्रता के साथ अपनी खुशियों की परवाह किए बिना सभी के अनुसार एडजस्ट करती है।

बालाजी टेलीफिम्स द्वारा बनाए गए ऐसे कई दूसरे समकालीन धारावाहिकों ने ‘सास-बहु’ परिकल्पना को हिंदी टेलीविज़न की दुनिया में प्रचलित करने के साथ-साथ मनोरंजन और सशक्त महिला किरदारों के नाम पर रूढ़िवादी, दकियानूसी और पितृसत्तात्मक कार्यक्रमों को लोकप्रिय बनाने की नींव भी गढ़ी।

औरतों को एक दूसरे के खिलाफ दिखाने की पितृसत्तात्मक सोच का भी यहां भरपूर इस्तेमाल किया गया। इस सोच के आधार पर तुलसी के किरदार और पायल को एक-दूसरे के खिलाफ़ दिखाया गया है। धारावाहिकों में यह समस्या नहीं कि किसी महिला को कामकाजी या हाउसवाइफ दिखाया जा रहा हो। लेकिन सिर्फ महिला के पहनावे, भाषा या रोज़गार की बुनियाद पर किसी महिला को अच्छी या बुरी का खिताब दे दिया जाना दकियानूसी सोच का परिणाम है।

हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक कंडीशनिंग ही ऐसी है कि हम इन्हीं पहलुओं को देखकर किसी महिला को आंकते हैं। धारावाहिकों में ऐसी सेक्सिस्ट सोच को रोज दिखाने से यह धारणा और भी मज़बूत होती चली जाती है। धीरे-धीरे यह वह साधन बन जाता है जिससे समाज में महिलाओं के खिलाफ शोषण और अन्याय को कायम रखा जाता है। साथ ही, कभी महिला का स्वभाव, उसका पहनावा या कभी उसके दफ्तर आने-जाने के समय को हिंसा की वजह बताई जाती है। 

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टीआरपी का असर

टेलीविज़न की दुनिया में बदलाव आने के बाद एक ओर जहां महिला किरदारों को जगह मिल रही थी जो अपनेआप में एक महत्वपूर्ण कदम था। वहीं, दूसरी ओर परिवार के नाम पर दिखाए जाने वाले ऐसे धारावाहिक वास्तविकता से कोसों दूर थे। न सिर्फ इन धारावाहिकों में अमीर स्वर्ण लोगों को दिखाया जाता है बल्कि जिस मध्यम वर्ग दर्शक के लिए ये धारावाहिक बनाने का दावा करते हैं, वहां उनके रोज़मर्रा के जीवन की मुश्किलों या समस्याओं का कोई ज़िक्र तक नहीं होता। टीआरपी यह तय करती है कि कार्यक्रम कितना लोकप्रिय है उसके बलबूते पर कार्यक्रम सालों चलते जाते हैं।

आज के दौर की बात करें, तो सास-बहु कांसेप्ट या महिलाओं पर दिखाए जा रहे भद्दे मज़ाक पर बनी हज़ारों धारावाहिक और कॉमेडी शोज़ लोकप्रिय हुए हैं। एक तरफ आज नागिन, नज़र या ये रिश्ता क्या कहलाता है जैसे धारावाहिक सालों चल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर दिल संभल जा ज़रा, कश्मीर या तम्मना जैसे अनेक तर्कसंगत कहानियां दिखाने की कोशिश करती धारावाहिकें अच्छे टीआरपी रेटिंग न होने की वजह से नहीं चल सके।

धारावाहिकों में पितृसत्ता को नए रंग-रूप में पड़ोसने के कारण आम तौर पर जनता इन्हें प्रगतिशील ही मानती है और यह समझना मुश्किल हो जाता है कि यह किस हद तक हमारी विचारधारा को प्रभावित करती है। उदहारण के लिए, ग्लोबल जर्नल फॉर रिसर्च एनालिसिस में कामकाजी महिलाओं पर भारतीय टेलीविजन धारावाहिकों के प्रभाव पर एक शोध प्रकाशित किया गया। इस शोध अनुसार 47 प्रतिशत कामकाजी महिलाओं ने सीधा या मासूम होना, 17 फीसद महिलाओं ने पारम्परिक कपड़े, 17 फीसद महिलाओं ने त्याग की भावना और 9 फीसद महिलाओं ने दूसरों पर निर्भरता को अच्छी महिला समझे जाने के लिए ज़रूरी बताया। शोध में शामिल हुई 53 फीसद महिलाओं ने माना कि धारावाहिकों में दिखाई जा रही अच्छी और आदर्श महिला उनकी पसंदीदा चरित्र है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि आज भारतीय टेलीविजन पर प्रगतिशील होने का दावा कर रहे दैनिक कार्यक्रमों को पुनर्जागरण की आवश्यकता है जिससे सही मायनों में सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव आए।

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