संस्कृतिसिनेमा महिला अधिकार की आड़ में पितृसत्ता को पोसते टीवी सीरियल

महिला अधिकार की आड़ में पितृसत्ता को पोसते टीवी सीरियल

महिला सशक्तिकरण और महिला अधिकारों की बात करनेवाले ये सीरियल मुख्य रूप से एकमात्र ढोंग है। ये महिलाओं को पितृसत्ता की नयी बेड़ियों में जकड़ने का काम ही कर रहे हैं।

आर्थिक स्वावलंबन के बिना महिला सशक्तिकरण अधूरा और असंभव है। जब तक महिलाओं को अपनी ज़रूरतों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ेगा तब तक उन्हें हिंसा, उपेक्षा और भेदभाव का सामना करना पड़ेगा। शहरी क्षेत्रों में धीरे-धीरे ही सही महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने की दिशा में आगे बढ़ रही हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी महिलाओं का आर्थिक रूप आत्मनिर्भर होना एक बड़ी चुनौती है। पितृसत्ता की मज़बूत पकड़ के बीच शिक्षा और जागरूकता का अभाव उन्हें अभी भी आगे बढ़ने के रास्ते में मुश्किलें बढ़ा रहा है। इन्हीं विषयों के साथ जब हम लोगों ने ग्रामीण स्तर पर महिला-बैठक का आयोजन करना शुरू किया, तो सबसे पहले बात आज़ादी और समानता पर चली। महिलाओं से जब मैंने सवाल किया कि आपके अनुसार आज़ादी क्या है या आज़ाद होने के आपके मायने क्या है? तो अधिकतर महिलाओं ने एक सुर में ज़वाब दिया, “हम लोग जैसे चाहे वैसे रहे और जिससे चाहे शादी कर सकें।”

महिलाओं के ज़वाब आश्चर्यजनक थे। जब मैंने उनके इस विचार के पीछे मूल स्रोत पर चर्चा की तो मालूम चला कि गाँव की जिन मध्यमवर्गीय महिलाओं के साथ हम लोग बैठक कर रहे थे, उनमें से अधिक के यहाँ टीवी है और उनके प्रिय सीरियल हैं, ‘अनुपमा और इमली।’ इन दिनों ये कुछ ऐसे टीवी सीरियल हैं जो महिलाओं के बीच तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे हैं। दोनों की सीरियल में मुख्य किरदार महिलाएं हैं। महिला सशक्तिकरण और महिला अधिकारों की बात करनेवाले ये सीरियल मुख्य रूप से एकमात्र ढोंग है। ये महिलाओं को पितृसत्ता की नयी बेड़ियों में जकड़ने का काम ही कर रहे हैं।

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‘अनुपमा’ एक मध्यमवर्गीय महिला की कहानी है, जिसने अपनी आधी से अधिक ज़िंदगी अच्छी हाउसवाइफ़ बनने में गुज़ार दी। बहु-बेटों और लंबे-चौड़े परिवार के साथ रहनेवाली अनुपमा ने अपनी ज़िंदगी में वही सब झेला जो पितृसत्ता में ‘अच्छी महिला’ बनने के लिए हर महिला को झेलना पड़ता है। उसके पति ने उसके साथ बुरा बर्ताव किया और किसी और से शादी कर ली। इसके बाद अनुपमा को तलाक़ दे दिया। तलाक़ के बाद अनुपमा अपनी पहचान बनाने की तरफ़ आगे बढ़ती है और उसे अपने कॉलेज के एक दोस्त से मुलाक़ात होती है।

तमाम उतार-चढ़ाव वाले इस पूरे सीरियल में अनुपमा एक सांस में लंबे-लंबे महिला-अधिकार की बात करने वाले डायलॉग बोलती सुनाई पड़ती है, लेकिन सीरियल में चलने वाले अधिकतर एपिसोड महिला-अधिकार और सशक्तिकरण को सिर्फ़ डायलॉग तक ही सीमित रखा गया है। वहीं सीरियल ‘इमली’ में भी गांव की लड़की इमली का सफ़र ज़बरन विवाह के साथ शुरू होता है और वह शहर पहुंचती है। ढ़ेरों संघर्षों के बाद उसने पत्रकारिता की पढ़ाई की, लेकिन घर में आधा से ज़्यादा एपिसोड अच्छी पत्नी और बहु बनने के ही दर्शाए जा रहे है। इमली का ज़्यादा संघर्ष ख़ुद के पति को अपनी सौतेली बहन से बचाने में ही दिखाई पड़ता है। इन सबके बावजूद अनुपमा और इमली गाँव की महिलाओं और किशोरियों के लिए किसी आदर्श से कम नहीं है।

महिला सशक्तिकरण और महिला अधिकारों की बात करनेवाले ये सीरियल मुख्य रूप से एकमात्र ढोंग है। ये महिलाओं को पितृसत्ता की नयी बेड़ियों में जकड़ने का काम ही कर रहे हैं।

सामान्य परिवार से शुरू हुए ये सीरियल शुरुआत में तो महिलाओं से जुड़े अलग-अलग मुद्दों पर शुरू हुए, लेकिन अब वे सभी महिलाओं को पितृसत्ता की बताई अच्छी औरत के रूप में ढलने की तरफ़ बढ़ने लगे। इन सीरियल के समीक्षक इसके बारे में जो भी कहे, लेकिन गांव की महिलाओं का इनका प्रभाव उन्हें फिर से अपने अस्तित्व को पितृसत्तात्मक मापदंडों में समेटने का ही संदेश देता है। जब-जब इन सीरियल की नायिकाएं अपने करियर की तरफ़ कदम बढ़ाती हैं तो घर में परेशानियां शुरू होने लगती हैं और नायिकाएं अपने काम की बजाय परिवार का चुनाव करती हैं।

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ये सीरियल बेहद प्रभावी तरीक़े से घर-घर में महिलाओं तक पहुंच रहे हैं और उन तक समय के साथ बदलते पितृसत्ता के मूल्यों को मज़बूत करने का काम कर रहे हैं। जहां शिक्षा और जागरूकता का अभाव है वे महिलाएं इन कहानियों और किरदारों को अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार ढाल लेती हैं। मनोरंजन के नाम पर बनने वाले ये सीरियल महिलाओं के मनोरंजन की बजाय उनके वैचारिकी को प्रभावित करते है। यह वैचारिकी अपने अस्तित्व को हमेशा पुरुषों में तलाशने का काम करती है। ऐसे कई टीवी सीरियल हैं जो शादी को तमाम समस्याओं का हल और एक महिलाओं के लिए शादी होना सबसे ज़रूरी बताते हैं।

महिला अधिकार की पैरवी करने का आवरण ओढ़े ये सीरियल वास्तव में महिलाओं प्रभावी तरीक़े से पितृसत्ता के उन्हीं दीवारों में सिमटे रहने की प्रेरणा दे रहे हैं। ये लगातार महिलाओं की सफलता और उनके अस्तित्व को पुरुषों के होने और उनके हक़ में होने से ही स्वीकार करते हैं, इसलिए ज़रूरी है महिलाओं से चर्चा की जाए और उनकी समझ बनाने में मदद की जाए वरना ऐसे टीवी सीरियल महिलाओं को आगे बढ़ने के विचार और उनके बुनियादी अधिकार से दूर रखेंगें। 

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तस्वीर साभार : Boston.Com

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