प्रिंस और आंचल की शादी में बहुत अड़चनें आई थीं जिसकी एक वजह यह थी कि दोंनो की जातियां अलग-अलग थीं। उनके अनुसार परिवार के सदस्यों के लिए यह एक बहुत बड़े सदमे की तरह था कि वे अलग जाति में शादी कर रहे हैं। उन्हें शादी के लिए बहुत विरोध का सामना करना पड़ा। वे बताते हैं, “समाज से पहले हमारे परिवार ने ही हमारे लिए कई अड़चनें पैदा की थीं।” अंतरजातीय या अंतरधार्मिक शादी करनेवाली दंपत्तियों को अक्सर अपनी शादी के फैसले पर न केवल नकारात्मक प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ता है बल्कि कई बार इन मामलों में हिंसा और हत्या तक का सामना इन युगलों को करना पड़ता है।
दरअसल भारतीय समाज में शादी एक बहुत बड़ा और चिंता का विषय है। घर-परिवार से लेकर राजनीतिक पार्टियां, सरकारों तक को यह जानना होता है कि दो व्यस्क इस जातिवादी औऱ पितृसत्तात्मक समाज के तमाम सामाजिक नियमों से शादी कर रहे हैं या नहीं। भारत का संविधान हर व्यक्ति को स्वतंत्रता का अधिकार देता है जिसके तहत वह अपनी मर्जी से कही भी रह सकता है, कुछ भी खा सकता है, किसी से भी शादी कर सकता है। ऐसे में यह सरकारों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह अपनी नीतियों के तहत इस संवैधानिक अधिकार को सुनिश्चित करने का काम करें न कि उन पर निगरानी रखकर उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन करें। लेकिन हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने एक ऐसी समिति का गठन किया है जिसका काम केवल राज्य में अंतरजातीय और अंतरधार्मिक शादी करनेवाली महिलाओं और परिवार के बारे में जानकारी रखना और आवश्यकता पड़ने पर परामर्श देना होगा।
द हिंदू में प्रकाशित जानकारी के अनुसार महाराष्ट्र सरकार ने अंतरजातीय और अंतरधार्मिक शादी करनी वाली दंपत्ति और इस मामले परिवार से अलग रहने वाली महिलाओं और उनके परिवार की जानकारियों के डेटा के लिए एक समिति का गठन किया है। राज्य के महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा जारी सरकारी संकल्प (आदेश) में कहा गया है कि अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह-परिवार समन्वय समिति की अध्यक्षता राज्य के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के तहत होगी।
सरकारी संकल्प पत्र में कहा गया है कि ऐसे विवाहों में शामिल महिलाएं जो अपने परिवार से अलग हो गई हैं उनके लिए यह पैनल जिला स्तर पर निगरानी करेगी ताकि आवश्यकता पड़ने पर उन्हें सहायता दी जा सके। साथ ही कहा गया है कि यह समिति महिलाओं और उनके परिवारों के लिए परामर्श प्राप्त करने और मुद्दों को हल करने के लिए एक मंच की तरह होगी। यह समिति जिला अधिकारियों के साथ मिलकर नियमित रूप से मीटिंग करेगी और रजिस्टर्ड और बिना रजिस्ट्रेशन के अंतरधार्मिक और अंतरजातीय शादियों, पूजा स्थलों पर होनेवाली शादियों और घर से भागकर की गई शादी की जानकारी जुटाएगी।
भारत का संविधान हर व्यक्ति को स्वतंत्रता का अधिकार देता है जिसके तहत वह अपनी मर्जी से कही भी रह सकता है, कुछ भी खा सकता है, किसी से भी शादी कर सकता है। ऐसे में यह सरकारों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह अपनी नीतियों के तहत इस संवैधानिक अधिकार को सुनिश्चित करने का काम करें न कि उन पर निगरानी रखकर उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन करें। लेकिन हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने एक ऐसी समिति का गठन किया है जिसका काम केवल राज्य में अंतरजातीय और अंतरधार्मिक शादी की महिलाओं और परिवार के बारे में जानकारी रखना और आवश्यकता पड़ने पर परामर्श देना होगा।
इस मामले की चारों तरफ आलोचना के बाद सरकार ने संशोधन किया है। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ख़बर के अनुसार सरकार द्वारा गठित यह पैनल अब केवल अंतरधार्मिक शादी के मामलों को ट्रैक करेगा। विपक्ष और अन्य संगठनों की ओर से होने वाली आलोचना के बाद सरकार ने यह फैसला लिया है। लेकिन यहां सवाल ये है कि क्या निजता, पसंद और अधिकार केवल जाति तक ही सीमित है। संशोधन के बात यह सवाल भी उठता है कि इस मामले को महिला सुरक्षा के नाम पर अब पूरी तरह से धार्मिक एजेंडा बना दिया गया है। ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि भारत के कई राज्य लव-जिहाद का हवाला देते हुए इससे जुड़े कानून भी ला चुके हैं। इस तरह के फैसले अधिकतर भाजपा शासित राज्यों में हुए हैं।
शादी को लेकर क्या सोचते हैं लोग
भारत में जाति, धर्म और शादी के मामले पर आम लोगों के विचार पूरी तरह से बंटे हुए दिखते हैं। वे इस पर क्या राय रखते हैं उसे लेकर हमने कुछ महिलाओं से बात की। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रहने वाली 50 वर्षीय प्रीति शर्मा का अंतरजातीय एवं अंतरधार्मिक शादी के मामले पर कहना है, “आजकल बच्चे बाहर पढ़ते हैं, नौकरी करते हैं। काफी वक्त एक-दूसरे के साथ बिताते है इस वजह से इंटरकास्ट मैरज की संख्या ज्यादा बढ़ गई है। हमारे जमाने में ये सब नहीं होता था। मेरे बड़े बेटे ने खुद हमारी जाति से अलग जाति में शादी की है। अब बच्चों की मर्जी के सामने वैसे भी हम क्या कर सकते हैं।”
वह आगे कहती हैं, “अपने धर्म से अलग शादी का मामला मैंने तो कभी अपनी जान-पहचान में सुना नहीं। यह हमारी समाज के हिसाब से बहुत बोल्ड फैसला है। अगर दो लोग बहुत सक्षम हैं और ऐसी शादी के बाद ख़ासतौर से परिवार-समाज की तरफ से आने वाली परेशानियों का सामना कर सकते हैं तो लड़के-लड़कियां शादी करते भी हैं। लेकिन मुझे ऐसा लगता है शादी अपनी जाति-धर्म में ही हो तो ज्यादा बेहतर है उससे परिवार में आपसी समझ ज्यादा बनती है। इससे अलग माँ-बाप को एक वक्त बाद में बच्चों की खुशी में ही अपनी खुशी ढूढ़ लेते हैं।” प्रीति शर्मा की राय भारत के अधिकांश तथाकथित उच्च जाति से आनेवाले लोगों की राय है। बात जब हम इंटरकास्ट मैरेज की करते हैं तो इस देश में सबसे अधिक संघर्ष उन लोगों को करना पड़ता है जिनका एक साथी दलित, बहुजन तबके से आता हो।
वर्तमान में जम्मू में अपने पति के साथ रहने वाली खुशबू ने अंतरजातीय शादी की है। इस मामले पर उनका कहना है, “ये अपने आप में बहुत बेतुकी बात है कि सरकारें हमारे निज़ी फैसलों के बारे में इस तरह से जानकारी इकठ्ठा कर निगरानी करेंगी। हमारे समाज और परिवार में शादी से जुड़े ऐसे फैसले लेना और उनपर अमल करना बहुत संघर्षपूर्ण है। परिवार में बहुत तनाव और असहमतियों के बाद अलग जाति में शादी के फैसले को स्वीकार किया जाता है। मुझे ऐसे लगता है कि इस तरह की जानकारी, डेटा लेकर सरकार पैनल और परामर्श देने का काम करेगी वह ऐसे मामलों को और जटिल करना है। ऐसे मामलों में जानकारियां लीक होने से लोग डरते हैं। हमारे मामले में बहुत लोगों को पता ही नहीं है कि मेरे और मेरे पति की अलग-अलग जाति है। हमने इंटरकास्ट शादी की है और जब सरकार ऐसा करेंगी तो यह बहुत गलत है। भारतीय संविधान हमें यह अधिकार देता है कि हम अपनी पसंद से शादी कर सकते हैं, किसी भी धर्म और जाति में। सरकारों को बल्कि उस रूढ़िवादी सोच को बदलने पर ध्यान देने की ज़रूरत है जो अंतरजातीय और अंतरधार्मिक शादी को एक विचित्र बात मानती है।”
भारत के रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज में शादी की जिम्मेदारी परिवार और माता-पिता की मानी जाती है। यही वजह है कि हमारे देश में बड़ी संख्या इन्हीं नियमों का पालन किया जाता है। अंतरजातीय और अंतरधार्मिक मामलों को लेकर बात करें तो यह बहुत कम देखने को मिलता है। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-2015-16 के अनुसार भारत में केवल 12.6 फीसदी अंतरजातीय और 2.6 फीसदी अंतरधार्मिक शादी होती है। इसका मतलब यह है कि सामाजिक तौर पर भारत में ऐसी शादियों का चलन न के बराबर है। संरचनात्मक तौर पर भारत में अंतरधार्मिक शादियों को तो चलन बिल्कुल नहीं है।
यह पैनल कैसे असंवैधानिक है
भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां सभी लोगों को संविधान के तहत जीवन जीने के अधिकार प्राप्त है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता दी गई है। भारतीय संविधान के तहत अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ जीने का अधिकार जीवन एवं व्यक्तिगत आजादी के मौलिक अधिकार का हिस्सा है। इसमें किसी भी तरह से धर्म और जाति का बंधन नहीं होता है। इस तरह से शादी का फैसला एक व्यक्ति का निजी फैसला होता है और सरकार का काम उनकी निजी जीवन में ताका-झांकी और उसे नियंत्रित करने का नहीं है। लॉ इनसाइडर.कॉम के एक लेख के अनुसार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या निजी स्वतंत्रता से वंछित नहीं किया जा सकता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता दी गई है। भारतीय संविधान के तहत अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ जीने का अधिकार जीवन एवं व्यक्तिगत आजादी के मौलिक अधिकार का हिस्सा है। इसमें किसी भी तरह से धर्म और जाति का बंधन नहीं होता है। इस तरह से शादी का फैसला एक व्यक्ति का निजी फैसला होता है और सरकार का काम उनकी निजी जीवन में ताका-झांकी और उसे नियंत्रित करने का नहीं है।
अंतरधार्मिक विवाह के मुद्दे पर होती राजनीति
मीडिया में प्रकाशित कई ख़बरों के अनुसार भारत में अंतरधार्मिक शादी करने वाले जोड़ों को धमकियों का सामना करना पड़ता है। टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित ख़बर के अनुसार लखनऊ में पारिवारिक रजामंदी होने के बावजूद प्रशासन ने एक अंतरधार्मिक शादी को रुकवा दिया था। भारत सरकार का डेटा ही इस बात को साफ करता है कि भारत में अंतरधार्मिक शादियां बहुत कम होती हैं बावजूद इसके वर्तमान में इसे एक गंभीर मुद्दा बनाकर राजनीति की जा रही है।
भारत के मौजूदा परिदृश्य में अंतरधार्मिक विवाह एक राजनीतिक मुद्दा है। हिंदू वोट बैंक की बात करनेवाली पार्टियां और मौजूदा केंद्र सरकार ने इस विषय को ज्यादा तूल दी है। यही वजह की देश में कई जगहों पर हिंदू-मुस्लिम शादी को दो व्यस्कों के संवैधानिक अधिकार न मानकर इसे एक साजिश और ‘लव-जिहाद’ जैसे नाम दिए गए हैं। कई राज्यों में इसको लेकर कानून तक बना दिए गए हैं। लगातार अंतरधार्मिक शादी करनेवाले लोगों को चेतावनी-धमकियां दी जा रही हैं। ऐसे में महिला सुरक्षा के नाम पर गठित किया गया यह पैनल एक राजनीतिक एजेंडे को पूरा करता ही नज़र आता है।