समाजकानून और नीति शादी के लिए हमेशा लड़के की उम्र लड़की से ज़्यादा ही क्यों होती है?

शादी के लिए हमेशा लड़के की उम्र लड़की से ज़्यादा ही क्यों होती है?

पितृसत्ता के इस नियम के अनुसार ही जब शादी में लड़के की उम्र लड़की से ज़्यादा होती है तो समाज की परवरिश के अनुसार लड़की बहुत स्वाभाविक रूप से लड़के के साथ वैसा ही व्यवहार करती है, जैसा वह खुद से बड़े लोगों के साथ करती है।

शादी के लिए लड़की हमेशा लड़के से छोटी ही होगी। बचपन से ही हमारा समाज शादी से जुड़ा यह नियम हमारे दिमाग़ में फ़िट करता है। अगर कभी किसी शादी में लड़का-लड़की एक उम्र के हो जाएं या लड़की लड़के से उम्र में बड़ी हो जाए तो ऐसा लगता है, जैसे क़यामत आ गई हो। कई बार तो बचपन में दादी-नानी की कहानियों में असफल कहानियों का मूल ही ऐसी शादियाँ होती थी। इसलिए कभी टीवी के ज़रिए तो कभी दादी-नानी की कहानियों में, शादी के लिए लड़का-लड़की की उम्र में निर्धारित ग़ैर-बराबरी को ज़रूरी बताया जाता है। शादी चाहे किसी भी धर्म, जाति या समुदाय की हो यह नियम हर जगह होता है। पर ऐसा होता क्यों है, ये सवाल हमेशा मेरे मन में आता था पर इसका ज़वाब कभी नहीं मिल पाया।

आज जब जेंडर और पितृसत्ता जैसे शब्द , इसके मायने और इसके काम करने की तरीक़े को देखने और समझने की प्रक्रिया में हूं तो यह बात समझ आने लगी कि क्यों हमेशा किसी शादी में लड़की को उम्र में लड़के से छोटा होना ज़रूरी बताया जाता है। इसकी सिर्फ़ एक वजह है, पितृसत्ता की विचारधारा के अनुसार समाज को चलाना, जिसकी नींव है महिला-पुरुष के बीच ग़ैर-बराबरी को बनाए रखना।

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हमारे पितृसत्तात्मक समाज में परिवार का होना और उस परिवार का पितृसत्ता की वैचारिकी के अनुसार होना बहुत ज़रूरी बताया जाता है। अब जैसा कि हम सभी जानते हैं कि उम्र का समाज में किसी के ओहदे से जुड़ा एक ज़रूरी पहलू हो। मान-सम्मान से लेकर ज़रूरत तक सभी उम्र के अनुसार समाज तय करता है। इसलिए तो हम लोगों को बचपन से ही बड़ों का आदर करने, उनका नाम न लेने की बात की जाती है। उन्हें कभी ना, नहीं कहने और सभी बातों को मानने की बात कही जाती है। पितृसत्ता के इस नियम के अनुसार ही जब शादी में लड़के की उम्र लड़की से ज़्यादा होती है तो समाज की परवरिश के अनुसार लड़की बहुत स्वाभाविक रूप से लड़के के साथ वैसा ही व्यवहार करती है, जैसा वह खुद से बड़े लोगों के साथ करती है।

लड़की अगर उम्र में छोटी हो तो वह कभी लड़के का नाम नहीं लेगी, उसकी सारो बातें मानेगी। उसका आदर-सम्मान करेगी। इतना ही नहीं, उम्र की यह निर्धारित ग़ैर-बराबरी संसाधन की सत्ता भी पुरुषों को देती है। चूंकि वह उम्र में बड़ा है, इसलिए उसकी शिक्षा, उसके लिए अवसर, उसकी संसाधनों पर पकड़ और पैसे कमाने की ताक़त महिला से ज़्यादा होगी। ज़ाहिर है जब किसी के पास सत्ता ज़्यादा होगी तो वह ताक़तवर होगा और उसके सामने वाला इंसान बिना कहे ‘कमतर’ और ‘कमजोर’ हो जाता है। इतना ही नहीं, उस ‘कमतर’ इंसान को अपनी स्थिति के अनुसार ही व्यवहार करने के लिए मजबूर किया जाता है।

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शादी के लिए लड़के की उम्र हमेशा लड़की की उम्र से ज़्यादा ही होगी, यह नियम समाज ने बनाया और फिर बेहद चालाकी से इस पूरे नियम में ‘ज़्यादा उम्र वाले लड़के’ के नाम पर इसे सत्ता और क़ाबलियत को जोड़ दिया। इसे सही और समाज में सामंजस्य बनाए रखने के लिए ज़रूरी बताया गया पर जैसे ही कोई लड़की-लड़के से उम्र में बड़ी हो जाए तो उसे समाज ग़लत मानता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह पितृसत्ता के उस नियम के ख़िलाफ़ है जिसे समाज ने महिला-पुरुष के बीच भेद को बढ़ाने के लिए सदियों से बनाया और तैयार किया है।

पितृसत्ता के इस नियम के अनुसार ही जब शादी में लड़के की उम्र लड़की से ज़्यादा होती है तो समाज की परवरिश के अनुसार लड़की बहुत स्वाभाविक रूप से लड़के के साथ वैसा ही व्यवहार करती है, जैसा वह खुद से बड़े लोगों के साथ करती है।

बचपन में अक्सर हम लड़कियां भी अपने पिता जैसे इंसान से शादी की कल्पना करती हैं। वह पिता जो हमारी सुरक्षा करेगा, हमारी ज़रूरतों को समझे और पूरा करे और सबसे ख़ास हमसे उम्र में बड़ा हो। यह कल्पना भी पितृसत्तात्मक समाज के उसी वातावरण की उपज है जिसमें हम बड़े होते हैं। कहने का मतलब यह है कि हमें बचपन से ही आदर्श भी वैसे ही देखने को मिलते हैं जो पितृसत्तात्मक समाज के विचार के अनुसार होते हैं।

अब जब सुरक्षा देने की क्षमता, पेट पालने का हुनर, सही फ़ैसले लेने की क़ाबलियत, ज़्यादा शिक्षा और समझदारी जैसे सारे संसाधन लड़कियों से अधिक उम्र वाले लड़के में दिखायी जाएगी तो हमेशा से ‘सुरक्षा’ के काबिल समाज की तैयार की गई लड़कियों को पितृसत्ता के अधीन बनाए रखने और समाज के मूल्यों को ज़ारी रखने के लिए ऐसे ही ग़ैर-बराबरी वाले रिश्ते को सटीक बताया जाएगा। समाज के ये छोटे-छोटे अनदेखे नियम बहुत मज़बूती से महिला-पुरुष के बीच ग़ैर-बराबरी को बनाए रखने में सदियों से मज़बूती से काम करती आ रहे हैं। इसे उजागर करने और इन नियमों पर बनी व्यवस्थाओं पर सवाल करना बहुत ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि जब तक हम इन सवालों को उठाकर इन व्यवस्थाओं को हटाएंगें नहीं, तब तक जेंडर समानता एक कल्पना होगी और शादी के बहाने पितृसत्ता की सत्ता क़ायम रहेगी। 

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तस्वीर : रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

Comments:

  1. आज समानता की मांग हो रही है कल श्रेष्ठता की मांग होगी हमारे घर मे समानता है भैया भाभी में पर पिताजी पुराने विचारो के है😊😊👍👍

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