नेटफ्लिक्स में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘कला’ आजकल सुर्ख़ियो में है। आमतौर पर नेटफ्लिक्स में रिलीज़ होने वाली हिंदी फ़िल्मों का मिज़ाज कुछ अलग रंग का ही देखने को मिलता रहा है, जो कई बार सरोकार से अलग भी मालूम होता है। लेकिन इस बीते साल में फ़िल्म कला को देखने के बाद ऐसा लगा जैसे अब नेटफ्लिक्स ने भी भारतीय पितृसत्तात्मक समाज से इसके रंग, लिहाज़ और मिज़ाज में अब संवाद कर लिया सीख लिया है।
अन्विता दत्त के लेखन और निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘कला’ वैसे तो कई मायनों में बेहद ख़ास है। लेकिन इस फ़िल्म की कुछ ऐसी बातें भी है जो इसे मज़बूत और ज़रूरी फ़िल्म बनाती है, ख़ासकर उनलोगों के लिए जो नारीवाद, महिला नेतृत्व, प्रतिनिधित्व और उनके स्पेस की बात करते है। या फिर जो समता और समानता पर विश्वास करते है। अपने इस लेख में हम फ़िल्म की समीक्षा नहीं बल्कि उन वजहों पर बात करते है, जो ये बतलाती है कि ‘फ़िल्म कला क्यों देखनी चाहिए?’
क्योंकि ‘कला लड़का नहीं है’
अक्सर हम तथाकथित प्रोग्रेसिव और बड़े घरों में रहनेवाले लोगों को देखकर ये भ्रम पाल लेते हैं कि इनके घर में लड़का-लड़की में कोई फ़र्क़ नहीं किया जाता होगा। फ़िल्म कला, इस भ्रम को बेहद संजीदगी के साथ मज़बूती से तोड़ती है। फ़िल्म की मुख्य किरदार कला (तृप्ति) का जन्म हिमाचल प्रदेश के एक जानेमाने संगीत घराने में होता है और उसके माता-पिता दोनों ही अपने दौर के प्रसिद्ध संगीतकार होते हैं।
फ़िल्म में दिखाए गए पितृसत्तात्मक समाज की कंडीशनिंग और इसका लड़कियों की ज़िंदगी में दबाव को देखकर हो सकता है आप ये कह दें कि – ‘सालों पहले की बात है। अब सब बदल गया है‘ पर ये बात कितनी सच है आप बेहतर जानते हैं।
लेकिन इसके बावजूद कला की परवरिश उसकी माँ अनचाहे संतान जैसी ही करती है, क्योंकि ‘कला लड़का नहीं है।’ इसलिए उसके जन्म के बाद ही एक़ बार उसकी माँ उसे तकिए से घोंटकर मार देने का भी ख़्याल करती है। उसे खुद की तरह गायिका बनाने का नहीं, बल्कि अपने पिता की तरह गायक बनने का वह नामुमकिन मुक़ाम दिखाती है, जिसे वह कभी हासिल नहीं कर सकती है, क्योंकि कला लड़का नहीं है।
कला एक लड़की है, ये बिल्कुल भी मायने नहीं रखता है। मायने सिर्फ़ एकबात रखती है कि ‘कला लड़का नहीं है।‘ इसलिए कला को बचपन में भी गायिकी की पहली सीख देते हुए माँ ने साफ़ कह दिया – ‘नाम के पहले पंडित लगना चाहिए, बाद में बाई नहीं।‘ कला ख़ूब मेहनत करती है, अपनी माँ को गायिकी से खुश करने की। उनसे प्यार और सम्मान पाने की, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता है। क्योंकि सिर्फ़ ‘कला लड़का नहीं है।‘
अब अगर आज के दौर में हम लड़का-लड़की भेदभाव कि बात करें तो लोग कह देते है कि ये बात अब पुरानी हो गयी है, अब ऐसा नहीं होता है। पर ये एक लड़की ही बेहतर समझ सकती है कि इस दौर के बदलाव की परत कितनी मोटी है। फ़िल्म ‘कला’ ने शुरुआत से लेकर अंत तक अपने इस मूल संदेश को साथ रखा है, जो इस फ़िल्म की ख़ास बातों में से एक है।
“]क्योंकि ‘संस्कार की बेड़ियां कला का दम घोटती हैं’
पितृसत्तात्मक समाज में एक लड़की के रूप में जन्म लेना कितना संघर्षभरा है, इस संघर्ष की परतों को ‘कला’ की कहानी के ज़रिए बखूबी उजागर किया गया है। क्योंकि कला लड़का नहीं थी, इसलिए उसे ज़्यादा मेहनत करनी होगी। उसे हर बार खुद को साबित करना होगा। उसके बावजूद उसे अपने परिवार में और अपने अपनों से वह प्यार कभी नहीं मिलता है, जो वह हमेशा से चाहती है। वह हर बार एक पुरुष गायक से एक कदम ही सही पीछे रह जाती है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि कला लड़का नहीं है।
कला को बचपन में भी गायिकी की पहली सीख देते हुए माँ ने साफ़ कह दिया – ‘नाम के पहले पंडित लगना चाहिए, बाद में बाई नहीं।‘
इसलिए उसे संस्कार और सलीके में रहना होगा। शादी से ही उसकी ज़िंदगी सेटेल हो सकती है। उसका अपना घर उसका ससुराल ही हो सकता है। इसलिए उसे हमेशा पाबंदियों में रहना चाहिए। एक लड़की होने के नाते कैसे समाज का पूरा सिस्टम महिलाओं के ख़िलाफ़ काम करता है और उसे मानसिक रूप से इतना थका देता है कि कई बार ये जानलेवा भी हो जाता है, इन पहलू को फ़िल्म में उतनी ही सहजता से फ़िल्माया गया है, जितनी सहजता से ये सब आज भी हमारे समाज में क़ायम है। फ़िल्म में दिखाए गए पितृसत्तात्मक समाज की कंडीशनिंग और इसका लड़कियों की ज़िंदगी में दबाव को देखकर हो सकता है आप ये कह दें कि – ‘सालों पहले की बात है। अब सब बदल गया है‘ पर ये बात कितनी सच है आप बेहतर जानते हैं।
क्योंकि ‘आगे बढ़ने की क़ीमत अदा करती औरतों का ‘संघर्ष’ नहीं ‘कला’ समझा जाता है’
आगे बढ़ती औरतें हर किसी को ख़ूब भाती है। पर उसके पीछे ये भी कहा जाता है कि यह पोजिशन तो उसने अपना चरित्र दिखाकर ही मिला होगा।‘ लेकिन आगे बढ़ने के बनाए गए मर्दवादी सोच वाले रास्ते में औरतों को हर कदम पर इसकी क़ीमत अदा करनी होती है। उसका संघर्ष अपने हुनर को दिखाने या क़ाबिलियत को संवारने का नहीं बल्कि अपनी जगह बनाने के लिए भोग की वस्तु बनने ये मर्दवादी यथार्थ को दिखाता है।
कला एक लड़की है, ये बिल्कुल भी मायने नहीं रखता है। मायने सिर्फ़ एकबात रखती है कि ‘कला लड़का नहीं है।‘
कला की कहानी के ज़रिए भी आगे बढ़ने की आस रखने वाली औरतों के संघर्ष को संवेदनशीलता से दिखाया गया है, जहां पहले तो उसे बचपन से ही अपनी माँ की हर उस पितृसत्तात्मक मर्दवादी सोच का सामना करना पड़ता है, जो उसके गायिका होने के सपने को कुचलने में ज़रा भी संकोच नहीं करती है। क्योंकि उसका मानना होता है कि अच्छे घर की लड़कियाँ ये सब काम नहीं करती। वहीं दूसरी तरफ़, कला को बतौर युवा महिला गायिका उसे अपनी जगह बनाने के लिए स्थापित पुरुष गीतकार की यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है।
क्योंकि ‘कला – नारी, नायिका, नज़रिए और नेतृत्व की बेजोड़ पेशकश है’
पितृसत्तात्मक समाज के घिनौने सच और एक महिला की संघर्षपूर्ण ज़िंदगी के बीच। सिक्के के दूसरे पहलू की तरफ़ फ़िल्म कला की सबसे अच्छी बात की ‘कला’ का नज़रिया। जैसा कि हम जानते है नारीवाद, महिला नेतृत्व, प्रतिनिधित्व और उनके स्पेस की बात तब तक अधूरी होती है जब तक ये लेख, किताब, शोधपत्र और भाषणों के साथ-साथ सरोकार और व्यवहार में भी लागू हो।
कला ने बचपन से ही इस मर्दवादी समाज में महिला होने की पीड़ा को जिया था, इसलिए वह न केवल अपना स्पेस मज़बूती से क्लेम करती है, बल्कि सालों से आ रहे मर्दवादी चलन को कभी फ़ीमेल सेकेटरी के ज़रिए तो कभी महिला फ़ोटोग्राफ़र को वरीयता देने के ज़रिए और महिला-पुरुष मेहनताना के बीच होने वाले भेदभाव के विपरीत मेल सिंगर से ज़्यादा फ़ीस लेकर अपने महिला केंद्रित विचारों को व्यवहार में लाती है। ये सब उस दौर में एक पूरे दौर को चुनौती देने से कम नहीं था। इस फ़िल्म का लेखन और निर्देशन एक महिला ने किया है, शायद यही वजह है कि इस फ़िल्म के न केवल पोस्टर, गीत पर इसके मूल और मर्म में महिला की ही कहानी है। सालों बाद ‘कला’ जैसी फ़िल्में फ़िल्मायी जाती है, जिसे देखा जाना चाहिए।