समाजकानून और नीति सेक्सिज़म ‘कूल’ नहीं है: केरल हाई कोर्ट

सेक्सिज़म ‘कूल’ नहीं है: केरल हाई कोर्ट

केरल हाई कोर्ट पिछले हफ्ते एक छात्र आरोन एस. जॉन द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिस पर अपने कॉलेज-टीकेएम कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, कोल्लम में छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार करने और उत्पीड़न करने का आरोप था। आरोप लगने के बाद कॉलेज की आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) ने जॉन के खिलाफ़ जांच शुरू की, जिसमें उसे दोषी पाया गया। आईसीसी की रिपोर्ट के बाद कॉलेज प्रिंसिपल ने उसे 18 महीने के लिए निलंबित कर दिया। आरोन ने हाई कोर्ट में आईसीसी की रिपोर्ट के साथ-साथ कॉलेज के प्रिंसिपल द्वारा उन्हें 18 महीने के लिए निलंबित करने के आदेश को चुनौती दी। 

मामले की गंभीरता को देखते हुए निर्णय देते समय केरल हाई कोर्ट के जस्टिस देवन रामचंद्रन ने छात्रों से जुड़े यौन उत्पीड़न के बढ़ते मामलों को संबोधित करने के लिए लड़कों के पालन-पोषण (खासकर शैक्षणिक संस्थानों के परिसरों के भीतर) के तरीके में बदलाव की ज़रूरत के बारे में कुछ प्रासंगिक टिप्पणियां कीं। जस्टिस रामचंद्रन ने कहा कि एक बच्चे को परिवार के साथ-साथ स्कूल की शुरुआत से ही यह सिखाया जाना चाहिए कि उसे विपरीत लिंग का सम्मान करना चाहिए। साथ ही कहा कि उन्हें सिखाया जाना चाहिए कि पुरुष महिलाओं को धमकाते (बुली नहीं करते) नहीं हैं – यह अमानवीय है; और मर्दाना गुण की अभिव्यक्ति भी नहीं है, बल्कि इसके उलट है । वास्तव में, ये कमजोर पुरुष हैं जो महिलाओं पर हावी होते हैं और उन्हें परेशान करते हैं। यह संदेश सही और स्पष्ट रूप से जाना चाहिए।

जस्टिस रामचंद्रन ने यह इंगित करते हुए आगे कहा, “हमारे देश की शिक्षा प्रणाली बच्चों के चरित्र निर्माण के बजाय उनके शैक्षणिक परिणामों और रोजगार पर अधिक ध्यान केंद्रित करती है, जबकि यह मूल्य शिक्षा पर ध्यान देने का समय है  ताकि हमारे बच्चे बड़े होकर अच्छी तरह से समायोजित वयस्क बन सकें। अच्छे व्यवहार और शिष्टाचार का पाठ पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए; और कम से कम प्राथमिक कक्षा स्तर से; शिक्षकों को छात्रों में गुणों और मूल्यों को स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।”

“ना का मतलब ना है”

विशेष रूप से, अदालत ने लड़कों को सहमति की अवधारणा सिखाने के महत्व पर भी प्रकाश डाला। “लड़कों को पता होना चाहिए कि उन्हें किसी लड़की/महिला की स्पष्ट सहमति के बिना स्पर्श नहीं करना चाहिए। उन्हें ‘नहीं’ का अर्थ ‘नहीं’ समझना चाहिए।” ऐसे समय में जब महिलाओं के साथ शोषण के मामले बढ़ रहे हैं केरल हाई कोर्ट की यह टिप्पणी आज के समय में बढ़ते शोषण के खिलाफ सटीक है। कुछ सालों पहले एक मूवी ‘पिंक’ आई थी जिसमें अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू अहम किरदार में थे। इस मूवी में मना करने के बावजूद लड़कियों के दोस्त ही उनका शोषण करने की कोशिश करते हैं। फिर बाद में वे खुद को जस्टिफाई करने की कोशिश भी करते हैं कि लडकियां खुद अपनी मर्ज़ी से पार्टी करने आई थीं। अमिताभ बच्चन इस मूवी में एक वकील के किरदार में थे। इन्होंने न्यायालय में शोषण करनेवालों के खिलाफ यही टिप्पणी की थी कि महिलाओं द्वारा ‘नहीं’ कहना काफी है। ‘नहीं’ अपने आप में एक पूरा वाक्य है।

यह मूल्य शिक्षा पर ध्यान देने का समय है

हमारे देश की शिक्षा प्रणाली इस प्रकार की है कि यह केवल विद्यार्थियों के शैक्षणिक परिणामों और रोज़गार पर केंद्रित होती है। बच्चे पूरे साल स्कूल और संस्थान में किस प्रकार का व्यवहार दिखाते हैं या करते हैं उस पर कोई इतना ध्यान नहीं देता। सबका ध्यान केवल उनके साल के आखिर के शैक्षिक परिणाम पर होता है। बच्चा अंत में जितने अच्छे नंबर लता है उसे उतना ही अच्छा माना जाता है, जबकि यह धारणा और तरीक़ा बिलकुल गलत है। स्कूल लेवल से ही बच्चों की सोच का विकास होता है। वहां पर बच्चा जैसा सीखता है या व्यवहार करता है वही वह अपनी पूरी ज़िंदगी में अपनाता है। इसी को ध्यान में रखते हुए अदालत ने कहा कि यह मूल्य शिक्षा पर ध्यान देने का समय है – ताकि हमारे बच्चे बड़े होकर अच्छी तरह से समायोजित वयस्क बन सकें। अदालत ने शिक्षा के क्षेत्र में आधिकारिक नीति निर्माताओं और उसे प्रभावित करने वालों को प्रारंभिक स्तर से ही इस पर ध्यान देने के निर्देश भी दिए। जिसमें सचिव, सामान्य शिक्षा विभाग एवं सचिव, उच्च शिक्षा विभाग; साथ ही सीबीएसई, आईसीएसई और अन्य जैसे शिक्षा बोर्ड भी सम्मिलित हैं। 

न्यायालय ने अपनी टिप्पणियों में यह भी कहा कि हमें अपने लड़कों को स्वार्थी और हकदार होने के बजाय निस्वार्थ और विनम्र होना सिखाना चाहिए। वे लड़के जो लड़कियों का उत्पीड़न करते हैं अगर उनके मानसिक रूप को समझा जाए तो समझ आएगा कि ज़्यादातर लड़के लड़कियों का शोषण इसीलिए करते हैं क्योंकि वे ऐसा करना अपना हक़ समझते हैं।उन्हें बचपन से ही लड़कियों पर वरीयता प्राप्त कराई जाती है। घर से यह सिखाया जाता है कि लड़के लड़कियों से आगे हैं। लड़कियां कमज़ोर हैं। वे अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकती हैं। उन्हें समय से पहले घर आ जाना चाहिए। लड़के देर रात तक बाहर रह सकते हैं। अगर लड़का किसी लड़की का शोषण कर दे या कोई गलत काम कर दे तो ज़्यादा बुरा नहीं लगता है क्योंकि मानसिक व्यथा यह कहती है कि घर की इज़्ज़त तब डूबती है जब लड़की कोई ऐसा गलत काम कर दे। वे लड़के हैं ऐसा कर सकते हैं। उससे उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता है या कम फ़र्क़ पड़ता है। इन्हीं मनोभावों के कारण लड़के स्वार्थी और हक़दार बनते हैं। इसी पर कार्य करने की आवश्यकता है। घरों से, स्कूल-कॉलेज से ही हमें उन्हें यह सिखाना होगा कि वे स्वार्थी नहीं हैं और न ही वे लड़कियों के हक़दार हैं।

लैंगिक रूढ़िवादिता को समझने की ज़रूरत

लड़के, बहुत कम उम्र से ही, अक्सर कुछ निश्चित सेक्सिस्ट रूढ़ियों के साथ बड़े होते हैं – ये रूढ़ियाँ साथियों और अन्य सामाजिक प्रभावों द्वारा प्रबलित होती हैं। जस्टिस देवन रामचंद्रन ने कहा कि चूंकि यौन उत्पीड़न के अधिकांश आरोप लड़कों के खिलाफ नहीं लगते हैं, तो यह आत्मनिरीक्षण करना आवश्यक है कि जिस तरह से लड़के लैंगिक रूढ़िवादिता के साथ बड़े होते हैं, उन मुद्दों को कैसे संबोधित किया जाए। एक लड़के द्वारा महिला का आदर और सम्मान करना पुराने जमाने की बात नहीं है; इसके विपरीत, यह हर समय के लिए एक गुण है। स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों के खिलाफ यौन उत्पीड़न के बढ़ते मामले हमें, एक समाज के रूप में, बहुत बारीकी से सोचने और आत्मनिरीक्षण करने के लिए प्रेरित करते हैं।

मध्ययुग के धर्मशास्त्री इब्न क़य्यम अल-जौज़ियान का हवाला देते हुए जस्टिस रामचंद्रन ने जोर देकर कहा, “लिंगवाद को महिलाओं के सम्मान के साथ बदलने की जरूरत है। मर्दानगी की पुरातन अवधारणा बदल गई है – इसे और अधिक बदलने की जरूरत है। सेक्सिज्म स्वीकार्य या ‘कूल’ नहीं है। सम्मान एक अनिवार्यता है जिसे बहुत कम उम्र में विकसित करने की आवश्यकता है। एक महिला के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, इससे उसकी परवरिश और व्यक्तित्व के बारे में जानकारी मिलती है।”


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