भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ को उनके समावेशी फैसलों के लिए जाना जाता है, जैसे कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को खत्म करना, जिसने साल 2018 में समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था, महिला सैन्य अधिकारियों को 2020 में स्थायी कमीशन और कमांड पोस्टिंग प्राप्त करने में सक्षम बनाना, सबरीमाला मंदिर की प्रथा को जिसमें महिलाओं के प्रवेश पर बैन था को असंवैधानिक घोषित करना, 2022 में 24 सप्ताह की गर्भावस्था तक प्रत्येक महिला के लिए कानूनी और सुरक्षित अबॉर्शन को उनका अधिकार घोषित किया, आदि। भारत आखिरकार सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ के रूप में एक बेहतर न्यायपालिका की उम्मीद करता है। आखिरकार कई सालों बाद भारत के पास एक ऐसे चीफ जस्टिस हैं जो एक लैंगिक रूप से संवेदनशील सोच रखने के साथ-साथ जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं और संवैधानिक मूल्यों और लोकतंत्र के समर्थक भी हैं।
पिछले साल दिल्ली में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (एनएलयू) के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि छात्रों को कानूनी पेशे को अधिक समावेशी और सुलभ बनाने का प्रयास करना चाहिए। इस समारोह के कार्यक्रम में बोलते हुए, उन्होंने कानून स्नातकों को कानून से निपटने के दौरान नारीवादी सोच को शामिल करने की सिफारिश की। इस बात के लिए उन्हें बहुत अधिक ट्रोल भी किया गया। वर्तमान सीजेआई ने कई मंचों पर नारीवाद को कानून में शामिल करने और न्यायिक दृष्टिकोण को आकार देने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार पहली बात जो जज को समझने की जरूरत है वह यह है कि कानून केवल पहले से मौजूद लैंगिक वास्तविकताओं पर काम नहीं करता है बल्कि कानून इसमें योगदान देता है।
आज के अशांत समय में जहां दुनिया में कई जगहों पर महिलाओं के अधिकारों पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं और इससे हमारा देश भी अछूता नहीं रहा है। ऐसे में अधिकारों के संरक्षक के रूप में न्यायपालिका की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। जब एक महिला कोर्ट में कदम रखती है, तो उसे अदालत प्रणाली में पुरुष आधिपत्य की भावना के कारण उत्पीड़न का सामना भी करना पड़ता है। ऐसे में न्यायपालिका को अपने भीतर यह देखने की आवश्यकता है कि समस्या कहां उत्पन्न हुई है जिससे कि उस महिला को न्याय के हाल में भी इस प्रकार के उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है।
आज के अशांत समय में जहां दुनिया में कई जगहों पर महिलाओं के अधिकारों पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं और इससे हमारा देश भी अछूता नहीं रहा है। ऐसे में अधिकारों के संरक्षक के रूप में न्यायपालिका की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
कोई भी गाड़ी कैसे चल रही है इसका पूरा दारोमदार उसके इंजन पर होता है। अगर इंजन अच्छा होगा तो गाड़ी भी बढ़िया चलेगी। भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय न्याय के घर में इंजन का कार्य करता है। यह कार्यालय अत्यधिक अधिकार रखता है। इस कार्यालय को चलाने वाले व्यक्ति का दृष्टिकोण अन्य वकीलों और न्यायाधीशों के दृष्टिकोण को प्रभावित करता है और उन्हें समान रूप से आकार देने में मदद कर सकता है। आठवें डॉ एलएम सिंघवी मेमोरियल लेक्चर में भाषण देते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि हमारा संविधान खुद एक नारीवादी संविधान है। इसने कई पश्चिमी लोकतंत्रों से पहले भारत की महिलाओं, गरीबों और समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों को वोट देने का अधिकार दिया है।
एक नारीवादी के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश के आदर्शों को प्रतिबिंबित करने वाले मामले
चूंकि न्यायपालिका अपने सार में न्यायाधीशों के इर्द-गिर्द घूमती है, इसलिए उनकी अवधारणाएं और विश्वास महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं कि उनके सामने आनेवाले मुद्दों का निर्णय कैसे किया जाता है। कई असहमत मतों, अच्छी तरह से तैयार किए गए निर्णयों और प्रेरक और सहानुभूतिपूर्ण टिप्पणियों के साथ, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने निर्णयों के माध्यम से, मौलिक अधिकारों, गोपनीयता, लैंगिक संवेदनशीलता, और महिलाओं के अधिकारों और LGBTQ+ के महत्वपूर्ण मुद्दों पर टिप्पणियां की हैं।
धारा 377
जस्टिस चंद्रचूड़ सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का हिस्सा थे, जिसने धारा 377 को हटाकर समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने सहमति वाले फैसले में कहा था कि एक सौ अड़तालीस साल की अवधि एलजीबीटी+ समुदाय के लिए इनकार के अपमान को झेलने की अवधि के तौर पर बहुत लंबी है ।
सबरीमाला फैसला
सबरीमाला के फैसले में, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ भी उस खंडपीठ का हिस्सा थे, जिसने कहा था कि मंदिर में महिलाओं को प्रवेश से वंचित करने की प्रथा असंवैधानिक थी।
स्थायी आयोग
सेना में महिलाओं को एक स्थायी कमीशन देने का निर्देश देनेवाले एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में, जस्टिस चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि कमांड असाइनमेंट से महिलाओं का पूर्ण बहिष्कार अनुचित और संविधान का उल्लंघन था। एक कदम आगे बढ़ते हुए, जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में लैंगिक भूमिका रूढ़िवादिता के बारे में बात करते हुए कहा कि सेना में सच्ची समानता लाने के लिए मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता है।
धारा 497 को ख़त्म करना
व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर करने और आईपीसी की धारा 497 को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल दिया कि पितृसत्तात्मक सामाजिक मूल्यों और कानूनी मानदंडों को हमारे देश की महिलाओं द्वारा संवैधानिक अधिकारों के प्रयोग में बाधा डालने की अनुमति नहीं है।
सुरक्षित और कानूनी अबॉर्शन की हकदार हैं सभी औरतें
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने महिलाओं के प्रजनन और शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार के संबंध में एक महत्वपूर्ण फैसला दिया, जहां यह कहा कि सभी महिलाएं, चाहे विवाहित हो या अविवाहित, सुरक्षित और कानूनी रूप से अबॉर्शन की हकदार हैं।
टू-फिंगर परीक्षण को ख़त्म करना
महिलाओं के अधिकारों से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने हाल ही में बलात्कार के मामलों में टू-फिंगर टेस्ट को खारिज कर दिया और कहा कि यह पितृसत्तात्मक और सेक्सिस्ट है। टू-फिंगर टेस्ट नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और यह इस गलत धारणा पर भी आधारित है कि एक यौन सक्रिय महिला का बलात्कार नहीं किया जा सकता है।