मनुष्य और वन्यजीव के बीच टकराव जानवरों के लिए बड़ा संकट है। वनों की कटाई, जंगलों में बढ़ती मनुष्य की मौजूदगी उनके लिए बड़ा खतरा बन चुका है। जीव-जंतुओं के पर बढ़ते खतरे और उनकी खत्म होती प्रजातियों को बचाने के लिए कई लोग काम कर रहे हैं। उन्हीं लोगों में से एक हैं वन्यजीव जीवविज्ञानी डॉ. पूर्णिमा देवी बर्मन। डॉ. पूर्णिमा देवी बर्मन आज किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं। पक्षियों ख़ासकर सारस पक्षी का संरक्षण कर उन्होंने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई है। उनके काम का यूएन भी लोहा मान चुका है। बीते साल ही उन्हें पर्यावरण के क्षेत्र में यूएन के सर्वोच्च सम्मान ‘चैंपियन ऑफ अर्थ’ से नवाज़ा गया है। इस लेख के ज़रिये विस्तार से बात करते हैं उनके काम के बारे में।
पूर्णिमा देवी बर्मन का जन्म असम के कामरूप क्षेत्र के पब मजीर गांव में हुआ था। बचपन में ही वह अपने माता-पिता और भाई-बहन से अलग अपने दादा-दादी के साथ रहने चली गई थीं। उनके दादा-दादी ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे रहते थे। किसानी उनका पेशा था। पूर्णिमा भी उनके साथ खेतों में जाया करती थीं। यहीं से उनका प्रकृति से जुड़ाव बढ़ गया। अपने दादा-दादी से उन्होंने खेती, पशु-पक्षियों और परंपराओं के बारे में जाना। वहां उन्होंने सारस और पक्षियों की कई अन्य प्रजातियों को देखा। उनकी दादी ने उन्हें पक्षियों से जुड़े लोकगीत सिखाए। बस वहीं से पक्षियों को लेकर उनके मन में बहुत जुड़ाव पैदा हो गया था।
शिक्षा और काम की शुरुआत
पूर्णिमा देवी बर्मन ने गुवाहाटी विश्वविद्यालय से जीव विज्ञान विषय में अपनी एमएससी की डिग्री पूरी की और साल 2007 में पीएचडी के लिए नामांकन कराया और अपना शोध शुरू किया। उसी दौरान उन्होंने ध्यान दिया कि इस क्षेत्र में सारस विलुप्त होने की कगार पर हैं। अपने शोध के दौरान उन्हें पक्षियों और लोगों को लेकर उनकी सोच के बारे में गहराई से जानने को मिला। इसी वजह से उन्होंने अपनी थीसिस जमा करने में भी देरी की।
सारस पक्षी पूर्वोत्तर क्षेत्र में ‘हरगिला’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपने काम को सफल बनाने के लिए पूर्णिमा ने एक टोली बनाई और इसका नाम ‘हरगिला आर्मी’ रखा। इस समूह की ख़ासियत यह है की इसमें केवल महिलाएं ही हैं। और पूर्णिमा देवी बर्मन इस समूह का नेतृत्व करती हैं। आज के समय में उसमें 10,000 से ज्यादा महिलाएं शामिल हैं।
शोध के दौरान वह असम के ग्रामीण इलाकों में गई जहां उन्होंने देखा कि एक पेड़ का मालिक उस पेड़ को काट रहा था जिस पर सारस पक्षी के घोंसले बने थे, उन घोसलों से बच्चे गिर रहे थे। जब उन्होंने मालिक से पेड़ काटे जाने का कारण पूछा पूर्णिमा को पता चला कि यह इस पक्षी की बदबू के कारण लोग इसे बुरा मानते हैं। वहां के लोगों के अनुसार इस पक्षी का आना अपशगुन माना जाता है।
बनाई दस हज़ार महिलाओं की ‘हरगिला आर्मी’
पूर्णिमा देवी ने सारस संरक्षण के काम से हजारों महिलाओं को सशक्त बनाया, उद्योग का निर्माण किया और उनकी आजीविका में भी सुधार का काम किया। इंसान और वन्यजीव के बीच के संघर्ष को हल करने के लिए उन्होंने ज़मीनी स्तर से काम किया। इसी का परिणाम है कि वह अपने क्षेत्र में सारस को बचाने में सफल रही। सारस दुनिया में पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियों में से एक है। उनके प्राकृतिक आवास खत्म होने के कारण उनकी संख्या कम हो रही है।
सबसे पहले तो पूर्णिमा देवी ने समुदाय में फैली हुई भ्रांतियों को खत्म करने की कोशिश की और लोगों को जागरूक किया। गांव की महिलाओं का धार्मिक रीति-रिवाजों और संस्कृति से अधिक जुड़ाव होता है इसलिए उन्होंने इस काम के लिए महिलाओं को चुना। सारस पक्षी पूर्वोत्तर क्षेत्र में ‘हरगिला’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपने काम को सफल बनाने के लिए पूर्णिमा ने एक टोली बनाई और इसका नाम ‘हरगिला आर्मी’ रखा। इस समूह की ख़ासियत यह है की इसमें केवल महिलाएं ही हैं और पूर्णिमा देवी बर्मन इस समूह का नेतृत्व करती हैं। आज के समय में उसमें 10,000 से ज्यादा महिलाएं शामिल हैं।
हरगिला आर्मी की महिलाएं तरह-तरह की गतिविधियों से लोगों को जागरूक करती हैं। वे गीत, सामूहिक नाच और नुक्कड़ नाटकों से जागरूकता फैला रही हैं और अपने लक्ष्यों की तरफ आगे बढ़ रही हैं। वे बीमार या चोटिल सारसों का इलाज भी करती हैं। सितंबर और अक्टूबर के दौरान जब इन पक्षियों के बच्चों का जन्म होता है तब पूरे समुदाय में जश्न का माहौल होता है। अब स्कूल के बच्चों को भी हरगिला के बारे में पढ़ाया जाता है।
सारस को बचाने के लिए उनके अनुकूल पारिस्थितिक तंत्र की उपस्थिति बहुत जरूरी थी जिसके लिए पूर्णिमा देवी ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर काम किया। इस अभियान में उन्होंने महिलाओं के सशक्तीकरण और स्थानीय संरक्षण के मुद्दे को साथ जोड़ा। अगर हवा के दिनों में विशेषतौर पर मानसून के दिनों में पक्षियों के बच्चे अगर पेड़ों से गिर जाते हैं तो ग्रामीण ही इनका इलाज करते हैं।
जब से स्थानीय स्तर पर पूर्णिमा ने पक्षियों के संरक्षण की शुरुआत की है तब से पक्षियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई। साल 2007 में अभियान शुरू होने पर कामरूप ज़िले में 28 घोंसलों के साथ संरक्षण कार्यक्रम शुरू हुआ था। साल 2019 में यह संख्या 220 घोंसले और लगभग 600 हरगिला पक्षी तक पहुंच गई। आसपास के कई इलाकों में और घोंसलों की पहचान हो रही है। पूर्णिमा देवी के प्रयासों ने असम के गांवों में सारस पक्षी के लिए बनी अपशगुन वाली छवि को मिटाया है। साथ ही गांवों में उन पेड़ों को काटने का चलन भी खत्म कर दिया गया जिनपर पक्षियों के घोंसले बने होते हैं।
संरक्षण की कोशिश आज है एक आंदोलन
ज़मीनी स्तर पर हो रहा वन्यजीव संरक्षण का काम आज एक आंदोलन का रूप ले चुका है। आज बड़ी संख्या में संरक्षण के काम में शामिल महिलाएं अलग-अलग कपड़े बनाती हैं। इन कपड़ों पर पक्षियों का रूपांकन होता है, जिससे जागरूकता बढ़ाने में मदद मिलती है और इन्हें बनानेवाली महिलाओं की कमाई भी हो जाती है। इस तरीके से संरक्षण का यह काम आर्थिक रूप से महिलाओं को आत्मनिर्भर बना रहा है।
पूर्णिमा देवी के प्रयासों ने उन्हें साल 2017 में व्हिटली अवार्ड (ग्रीन ऑस्कर) और साल 2018 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा नारी शक्ति पुरस्कार जीता है। इसके अलावा उनकी विशाल सूची में 2016 से यूएनडीपी इंडिया बायोडायवर्सिटी अवार्ड और 2016 में आरबीएस अर्थ हीरो अवार्ड शामिल हैं। पूर्णिमा देवी बर्मन के इस काम के लिए संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित कर चुका हैं। साल 2022 में डॉ. बर्मन को यूएन एनवायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) के तहत ‘चैंपियन ऑफ द अर्थ अवॉर्ड’ (एंटरप्रेन्योरियल विजन कैटेगिरी) से सम्मानित किया गया। साल 2015 में वह कंजर्वेशन लीडरशीप प्रोग्राम के तहत लीडरशीप अवॉर्ड से सम्मानित हुई। साल 2017 में नार्थ ईस्ट में फिक्की एफएलओ वीमन अचीवर पुरस्कार से नवाजा गया।
डॉ. पूर्णिमा देवी बर्मन ने सारी चुनौतियों को पार करते हुए वह कर दिखाया जिसके लिए सरकारें न जाने कितनी योजनाएं लाकर भी सफल नहीं हो पातीं। संरक्षण में महिलाओं के महत्व को पहचानते हुए उन्होंने हरगिला सेना को बनाया। उन्होंने यह साबित करके दिखाया कि महिलाएं एकजुट होकर कैसे बदलाव ला सकती हैं।
स्रोतः