बीते 3 फ़रवरी को असम पुलिस ने बाल विवाह के ख़िलाफ़ राज्यव्यापी कार्रवाई के अभियान की शुरुआत की और अब तक 3000 से अधिक पुरुषों को बाल विवाह के अपराध में कथित संलिप्तता के आरोप में गिरफ़्तार किया जा चुका है। गिरफ़्तार आरोपियों में ऐसी शादी करवाने वाले पंडित और मौलवी भी शामिल है। मीडिया को जानकारी देते हुए पुलिस अधिकारियों ने बताया कि उनके पास 8,000 आरोपियों की लिस्ट है, जिसके आधार पर आने वाले समय में भी ये अभियान ज़ारी रहेगा।
वहीं राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत विश्व शर्मा ने कहा कि 2026 के विधानसभा चुनाव तक सरकार की ये मुहिम ज़ारी रहेगी। राज्य सरकार के अनुसार, 14 साल से कम उम्र की लड़कियों से शादी करने वालों के खिलाफ यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया जाएगा और जिन्होंने 14-18 साल में लड़कियों से शादी की है उनके खिलाफ बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (Prohibition of Child Marriage Act 2006) के तहत मामले दर्ज किए जाएंगे। असम के सीएम हेमंत विश्व शर्मा ने कार्रवाई को सही ठहराते हुए कहा कि राज्य में पिछले साल 6.2 लाख से अधिक गर्भवती महिलाओं में 17 फ़ीसद नाबालिग थीं।
बाल विवाह के ख़िलाफ़ असम सरकार की कार्रवाई के ख़िलाफ़ क्यों है महिलाएं?
असम में बाल-विवाह के ख़िलाफ़ सरकार की इस सख़्त कार्रवाई के विरोध में अब महिलाएँ बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर रही है। वे सरकार से सवाल कर रही हैं कि ‘बाल विवाह के ख़िलाफ़ अचानक जागी सरकार ने सिरे से हमारे परिवार के पुरुषों को गिरफ़्तार करना शुरू कर दिया है, वो पुरुष जिनकी कमाई से हमारा पेट पलता था। लेकिन अब हमारे और बच्चों के पास आय का कोई साधन नहीं है।‘
इस सख़्त कार्रवाई को देखने से ऐसा लग रहा है जैसे महिला अधिकार और सुरक्षा की दिशा में सरकार ने मानो अब असम की तस्वीर बदलने का अब ठान ही लिया है। लेकिन ये तस्वीर कितनी सकारात्मक या नकारात्मक होगी, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। ऐसे में जब हम मौजूदा हालात का विश्लेषण करते है तो इसमें महिलाएँ ज़्यादा ख़तरे में ही नज़र आती है। जब असम के धुबरी जिले के पास मानकचर में रहने वाली माफ़िदा ख़ातून के सुसाइड करने की खबर सामने आती है। माफ़िदा ने ये कदम असम सरकार की तरफ़ से बाल विवाह के ख़िलाफ़ चलाए जा रहे अभियान से तंग आकर उठाया है और माफ़िदा जैसी कई ऐसी महिलाएँ है जो सुसाइड करने को मजबूर की जा रही है।
हमें समझना होगा कि सामाजिक बदलाव की दिशा में कभी भी सख़्त क़ानूनी कार्रवाई एकमात्र उपाय नहीं हो सकता है।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, धुबरी जिले की जहीरा बेगम ने कहा कि उनका 19 वर्षीय बेटा अपने साथ कॉलेज में पढ़ने वाली एक लड़की को घर ले आया था, लेकिन अभी तक उनकी शादी नहीं हुई थी। लड़की के पिता ने पुलिस को इसकी सूचना दी और अब मेरे बेटे और पति दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया है।
महिलाओं की सामने आती इन समस्याओं से साफ़ ज़ाहिर है कि भले ही इनके अधिकार के बचाव के नामपर ये कार्रवाई की जा रही है, लेकिन वास्तव में ये उनके लिए किसी सजा से कम नहीं है। क्योंकि बालवधूएँ वैसे ही शिक्षा और विकास के बुनियादी अवसरों से दूर हो चुकी है और वे अपने दो वक्त के खाने के लिए भी परिवार के पुरुष सदस्यों पर पूरी तरह आश्रित हैं, ऐसे में अगर सरकार सीधी कार्रवाई पुरुषों पर करती है तो व्यवहारिक रूप से यातनाएँ महिलाओं और बच्चों को झेलनी पड़ेगी।
क्या क़ानूनी दंड मात्र से ख़त्म हो जाएगा बाल विवाह?
असम सरकार ने सीधेतौर पर सख़्ती से क़ानूनी रुख़ अपनाया है, लेकिन जब हम किसी भी सामाजिक कुप्रथा को रोकने का प्रयास करते हैं तो उसके लिए सख़्त क़ानूनी दंड काफ़ी है? ये सोचने वाली बात है। या फिर हम सिरे से सामाजिक स्तर पर जागरूकता का प्रसार करने और सामाजिक चेतना का विकास करने की ज़िम्मेदारी से खुद को दूर कर रहे है? हमें समझना होगा कि सामाजिक बदलाव की दिशा में कभी भी सख़्त क़ानूनी कार्रवाई एकमात्र उपाय नहीं हो सकता है और अगर ऐसा किया जाता है तो अन्य सामाजिक समस्याओं को बढ़ावा देंगी।
क़ानूनी दंड से सामाजिक व्यवस्था में सुधार एक पितृसत्तात्मक राजनीति की परिचायक है, जो पुरुषों के द्वारा, पुरुषों को ध्यान में रखकर पुरुषों के लिए चलायी जाती है और जिसमें सबसे ज़्यादा हिंसा का शिकार महिलाएँ होती है, जिसका जीवंत उदाहरण हम असम में देख सकते है। जहां बाल-विवाह से किशोरियों को शिक्षा के अवसर दूर कर दिया और पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के तहत उन्हें कभी भी आर्थिक स्वावलंबन नहीं सिखाया जाता है, क्योंकि उनके भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी पुरुषों की होती है और महिलाएँ परजीवी लता की तरह उनपर आश्रित और अब सरकार का पुरुषों पर कार्रवाई करना सीधेतौर पर महिलाओं पर तिहरी हिंसा है।
असम में चलाए जा रहे इस सरकारी अभियान के तहत अब सरकार अस्थायी जेल की तैयारी भी साथ-साथ कर रही है, जिससे वे 8,000 आरोपियों को सजा दिला सकें। लेकिन इन 8,000 आरोपियों के घर की महिलाओं के लिए सरकार के पास क्या प्लान है, इसका कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं है। हो सकता है आने वाले समय में असम में लोग बाल-विवाह करने से डरे, लेकिन इन 8,000 आरोपियों के परिवार की हज़ारों महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा का सवाल आज भी अधूरा है।
तस्वीर : रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए