इतिहास फूलो और झानो: भारत की पहली क्रांतिकारी महिलाएं

फूलो और झानो: भारत की पहली क्रांतिकारी महिलाएं

फूलो और झानो पूर्वी भारत, वर्तमान में झारखंड की संथाल जनजाति के मुर्मू कबीले की थी। इन दोनों का जन्म भोगनाडीह नामक गांव में हुआ। भारत पर जब अंग्रेजी शासन था उस दौर में परंपरा और रूढ़िवादी सोच को पीछे छोड़ते हुए फूलो और झानो ने अंग्रेजी शासन के अत्याचारों के ख़िलाफ़ विद्रोह किया।

अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ विद्रोह में हर वर्ग, समुदाय के लोग हिस्सा लेकर देश की आज़ादी की नींव रख रहे थे। ऐसे ही दो नाम हैं फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू। संथाल समुदाय से ताल्लुक रखनेवाली इन दो क्रांतिकारी महिलाओं को अंग्रेज़ों का निडरता से सामना करने के लिए जाना जाता है। आदिवासी समुदाय की इन वीर क्रांतिकारी महिलाओं के योगदान के बारे में इतिहास के पन्नों पर भले ही कम दर्ज हो लेकिन आज भी आदिवासी समुदाय में कहानी-लोकगीतों तक में इन्हें याद किया जाता हैं।

फूलो और झानो पूर्वी भारत, वर्तमान में झारखंड की संथाल जनजाति के मुर्मू कबीले की थीं। इन दोनों का जन्म भोगनाडीह गांव में हुआ था। भारत पर जब अंग्रेज़ी शासन था उस दौर में परंपरा और रूढ़िवादी सोच को पीछे छोड़ते हुए फूलो और झानो ने अंग्रेज़ी शासन के अत्याचारों के ख़िलाफ़ विद्रोह किया। इन दोनों ने अपने भाइयों से प्रेरणा लेकर उनके साथ कंधे से कंधे मिलाकर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी।

1855 में ब्रिटिश सत्ता, साहूकार और जमीदार के ख़िलाफ़ संथाल विद्रोह किया गया। अंग्रेजी हुकूमत से अपना क्षेत्र बचाने के लिए आदिवासी लोगों ने जनयुद्ध किया। फूलो और झानो ने भी इस विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं।

जब अंग्रेज़ आदिवासी लोगों के संसाधनों पर कब्ज़ा करने लगे तो आदिवासियों ने विद्रोह किया जिसका परिणाम हूल क्रांति थी। झारखंड में लंबे समय तक अंग्रेज़ों का पूर्ण अधिकार नहीं हो पाया था। झारखंड में लगातार छिट-पुट विद्रोह होते रहते थे। इन विद्रोहों का दमन अंग्रेज़ी शासन ज़मीदारों के सहयोग से कर देती थी लेकिन क्रांतियां लगातार होती रहीं। इससे क्रांतियों की श्रृंखला बनती रही। अंग्रेज़ों की पराधीनता को अस्वीकार कर आदिवासियों ने अपने जंगल-जमीन को बचाने के लिए क्रांति की। संथाल विद्रोह होने का भी यही मूल कारण था। 

संथाल विद्रोह में योगदान

1855 में ब्रिटिश सत्ता, साहूकार और जमीदार के ख़िलाफ़ संथाल विद्रोह किया गया। अंग्रेजी हुकूमत से अपना क्षेत्र बचाने के लिए आदिवासी लोगों ने जनयुद्ध किया। फूलो और झानो ने भी इस विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं। कान्हो, चंद, भैरव और सिदो संथाल विद्रोह का नेतृत्व किया था। फूलो और झानों इन्हीं की जुड़वा बहनें थी। उन्होंने अपने भाइयों के साथ मिलकर अंग्रेजों से लोहा लिया था।

अंग्रेजों के आदिवासी के क्षेत्र और जमीन पर नज़र से बचाने के लिए आदिवासियों ने इकठ्ठा होकर विद्रोह किया। इन दोनों बहनों ने आदिवासी महिलाओं को सशस्त्र क्रांति में भाग लेने के लिए तैयार किया। अपने भाई के संदेशों को दूसरे क्रांतिकारियों तक पहुंचती थी। वे साहूकारों और जमीदारो की हरकतों पर नज़र रखती थी। वे हाथ में कुल्हाड़ी ले कर चलती थी। रास्ते में आने वाले जमीदारों और साहूकारों से भी संघर्ष करती थी। अंग्रेजी सेना की टुकड़ियों पर नज़र रख उनके बारे में सारी सूचना क्रांतिकारियों तक पहुंचती थी। दूर फंसे क्रांतिकारियों तक रसद पहुंचने का कार्य भी ये दोनों करती थी। साथ ही क्रांतिकारियों को हथियार पहुंचने की भी जिम्मेदारी इन्हीं पर थी। फूलो और झानो के सहयोग के बिना यह आंदोलन सफल नहीं हो सकता था। उन्होंने अपने कार्यों द्वारा संगठन को मजबूती प्रदान की।

इन दोनों ने अपने संदेशों के माध्यम से लोगों को इस आंदोलन से जोड़ा। महिलाओं को जमीदार और अंग्रेजी शासन के अत्याचार के ख़िलाफ़ जागरूक किया। महिलाओं के संगठन को नेतृत्व प्रदान किया। फूलो और झानो ने संथाल महिलाओं और पुरुषों में अंग्रेजों की दमनकारी नीति के खिलाफ़ संघर्ष करने के लिए पारंपरिक धनुष, तीर, भाले के उपयोग के बारे में जानकारी दी। फूलो और झानो खुद हाथों में तलवार और कुल्हाड़ी लेकर संगठन का नेतृत्व करती थी। उनके इन्हीं कार्यों का परिणाम था कि भोगनाडीह में महाजनों सूदखोरो के अत्याचारों के खिलाफ शुरू हुआ विद्रोह देखते ही देखते पूरे संथाल में फैल गया।

1857 की क्रांति के दो साल पहले 1855 का हूल आंदोलन एक संगठित विद्रोह था। यह प्रथम जनक्रांति थी। जिसे अंग्रेजी सरकार को दबाने में काफी समय लग गया। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ यह पहली संगठित लड़ाई लड़ी गई। कार्ल मार्क्स ने भी अपनी किताब नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री में हूल क्रांति को प्रथम जन क्रांति कहा है। आजादी की लड़ाई का प्रथम विद्रोह। जिसमें फूलो और झानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और लड़ते लड़ते शहीद हो गई।

आदिवासी लोगों की गैर-आदिवासी लोगों को जमीन हस्तांतरण को प्रतिबंध करने के लिए अंग्रेजों द्वारा अधिनियम लाए गए। छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (1908) और संथाल परगाना काश्तकारी अधिनियम (1912) बना। फूलो और झानो के संघर्ष, सजगता से ही ऐसे प्रयास किए गए।

एक लेख के मुताबिक फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू अपने भाइयों के साथ युद्ध में कूद गई और शहीद होने से पहले 21 ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला। अंग्रेजों से विद्रोह करते हुए बड़ी संख्या में आदिवासियों ने अपनी जान गंवानी पड़ी थी। लेकिन विशाल अंग्रेजी सेना के विरूद्ध फूलो और झानो जैसी वीर आदिवासी योद्धा अपनी आखिरी सांस तक लड़ती रहीं। इस विद्रोह के बाद आदिवासी जमीन संरक्षण को लेकर कुछ अधिनियम बनें। आदिवासी लोगों की जमीन को गैर-आदिवासी लोगों के हस्तांतरण को प्रतिबंध करने के लिए अंग्रेजों द्वारा अधिनियम लाए गए। छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (1908) और संथाल परगाना काश्तकारी अधिनियम (1912) बना। फूलो और झानो के संघर्ष, सजगता से ही ऐसे प्रयास किए गए।

आदिवासी इतिहास में इन दोनों बहनों का योगदान अविस्मरणीय माना जाता है। झारखंड के छोटा नागपुर की शोधकर्ता वासवी कीरो ने अपनी किताब अलगुलान ओरथेन (क्रांति की महिला) में उन महिलाओं का नाम दर्ज किया हैं जिन्होंने आजादी और आदिवासी पहचान के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की थी। 1855-56 के विद्रोह में दोनों बहनों ने क्रांति की मशाल की आग को तेज करने का श्रेय जाता हैं। फूलो और झानो वे आदिवासी वीरांगना हैं जिन्होंने आदिवासी स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को बनाया और वीरता के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया।


स्रोतः

  1. Youth Ki Awaaz
  2. Adivasi Resurgence
  3. Tribal Darshan
  4. Parbhat Khabar

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