भारतीय चिकित्सा जगत में डॉ. सुनीति सोलोमन वह नाम हैं जिनके योगदान ने खतरनाक वायरस से लोगों की जान बचाई। सुनीति सोलोमन एक भारतीय चिकित्सक और माइक्रोबायोलॉजिस्ट थीं। उन्होंने अपने पेशेवर जीवन का तीन दशक से भी अधिक समय एचआईवी वायरस के अनुसंधान और सेवाओं में दिया। साल 1986 में सुनीति सोलोमन ने ही देश में एचआईवी संक्रमण का पहला मामला सामने लाने का काम किया था। उन्होंने यह उस समय किया था जब भारत में एड्स को सेक्स वर्कर्स या ट्रांस समुदाय की समस्या के तौर पर देखा जाता था। डॉ. सोलोमन के प्रयासों ने ही सरकार और चिकित्सा समुदाय एचआईवी वायरस को समझने के लिए प्रेरित किया था।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
डॉ. सुनीति सोलोमन का जन्म 1938 में एक मराठी परिवार में चेन्नई में हुआ था। वह अपने परिवार के आठ बच्चों में अकेली लड़की थी। वह पढ़ाई में बहुत होशियार थी। उनकी दवाइयों में रूचि बचपन में स्वास्थ्य अधिकारियों को देखकर हुई थी। उन्होंने अपनी मेडिसिन की शिक्षा मद्रास मेडिकल कॉलेज से की थी। उसके बाद मे पेथोलॉजी में ट्रेनिंग के लिए विदेश चली गई थी। साल 1973 तक वे इग्लैंड, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में रही और उसके बाद भारत वापिस लौट आई थी। कॉलेज के दौरान ही उनकी मुलाकात अपने पति विक्टर सोलोमन से हुई थी। उनके पति भी एक सर्जन थे।
साल 1993 में उन्होंने वाई.आर. गायतोंडे सेंटर फॉर एड्स रिसर्च एंड एजुकेशन की स्थापना की थी। यह भारत में पहली जगह थी जहां एचआईवी की जांच और इलाज एक साथ संभव हुआ।
पेशेवर जीवन
डॉ. सुनीति सोलोमन ने अपने करियर की शुरुआत लंदन के किंग्स कॉलेज हॉस्पिटल में जूनियर फिजिशन के तौर पर की थी। भारत लौटने के बाद उन्होंने मद्रास मेडिकल कॉलेज में एक माइक्रोबायोलोजिस्ट के रूप में काम किया और वह प्रोफेसर के पद तक पुहंची। यहीं उन्होंने एचआईवी वायरस की खोज की। अस्सी के दशक में जब विदेशों में एड्स एक भीषण रूप लेता जा रहा था तब डॉ. सुनीति ने भारत में इसपर काम करने का सोचा। वह जानना चाहती थी भारत में भी क्या इस बीमारी ने किसी को नुकसान पहुंचाया है। उन्होंने विज्ञान के अलग-अलग जर्नल्स से इसकी जानकारी हासिल की थी। वे उस समय प्रोफेसर के पद पर काम करती थी। उन्होंने अपनी विद्यार्थी सेल्लपन निर्मला को रिसर्च टॉपिक के लिए एचआईवी के बारे में जांच करने को कहा। उन्होंने पहला सुझाव लोगों की खून के सैंपल इकठ्ठा करने के लिए कहा। यह वो समय था जब अमेरिका में 1982 में एड्स की औपचारिक जांच होनी शुरू हो गई थी।
चुनौतियों का डटकर किया सामना
बीबीसी के लेख के मुताबिक़ भारत में उन दिनों मीडिया में इसे पश्चिम की समस्या कहकर नकारा जा रहा था। फ्री सेक्स और होमोसेक्शुअलिटी को इसकी वजह बताया जा रहा था। भारतीयों को हेट्रोसेक्शुअल, एक शादी करने वाला और ईश्वर से डरने वाले के तौर पर चित्रित किया गया था। हालांकि डॉ. सोलोमन के नेतृत्व में भारत में इस दिशा में काम शुरू हो गया था। उन्होंने अपने स्तर पर भारत में विशेष तौर पर सेक्स वर्कर्स के साथ रिसर्च करनी शुरू की। इसके बाद उन्होंने भारत के दूसरे अलग-अलग ज्यादा खतरे वाली जगहों पर अपनी शोध करने की सोची।
उन्होंने अपनी विद्याथी निर्मला को 200 लोगों के खून के सैम्पल लेने के लिए कहा। लेकिन चेन्नई में ऐसी जगह ढूढ़ना भी मुश्किल था। इसके बाद उन्होंने मद्रास जनरल हॉस्पिटल में सेक्स के जरिये फैलने वाली बीमारियों का इलाज कराने वाली महिलाओं से बातचीत की। जहां उन्हें एक सेक्स वर्कर मिली जिसके ज़रिये उन्हें सेक्स वर्कर्स का ठिकाना पता चला। उस समय इस दिशा में काम करना बहुत मुश्किलों से भरा था।
उन्होंने 100 लोगों के ब्लड सेंपल लिए और जिसमें से छह एचआईवी पॉजिटिव आए। डॉ. सोलोमन ने बाद में दोबारा परीक्षण के लिए सैंपल जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी, बाल्टीमोर में भेजें। वह परिणाम की दोबारा पुष्टि चाहती थी। वह भारत का पहला रिपोर्टिड एड्स पॉजिटिव का केस था। इसके बाद भारत सरकार, प्रधानमंत्री, इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च को जानकारी दी गई।
तमाम चुनौतियों और एड्स को लेकर लोगों की सोच के बावजूद डॉ. सोलोमन ने एचआईवी वायरस की खोज में अपना कार्य जारी रखा। उन्होंने विरोध और असहयोग के बावजूद अपना काम जारी रखा। आउटलुक में छपे लेख के अनुसार उनके सहयोगी और करीबी मित्र डॉ. एसपी त्यागराजन के मुताबिक़ डॉ. सोलोमन का अपने मरीजों के प्रति दृष्टिकोण बहुत ही अनूठा था। उस समय जब एचआईवी से संक्रमित लोगों को बहिष्कृत कर दिया जाता था उस समय वे उन्हें लगे लगाकर, उनसे बात करके उनकी मदद करती थी।
अस्सी के दशक में जब विदेशों में एड्स एक भीषण रूप लेता जा रहा था डॉ. सुनीति ने भारत में इसपर काम करने का सोचा। वह जानना चाहती थी भारत में भी क्या इस बीमारी ने किसी को नुकसान पहुंचाया है। उन्होंने विज्ञान के अलग-अलग जर्नल्स से इसकी जानकारी हासिल की थी।
एड्स रिसर्च सेंटर की स्थापना
डॉ. सोलोमन ने जीवन भर एचआईवी संक्रमित रोगियों के लिए काम किया। साल 1988 से 1993 तक डॉ. सोलोमन ने एमएमपी में स्थापित भारत के पहले एड्स संसाधन समूह की स्थापना की थी। यह भारत में एड्स रिसर्च और सेवाओं के लिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में पहला समूह था। साल 1993 में उन्होंने वाई.आर. गायतोंडे सेंटर फॉर एड्स रिसर्च एंड एजुकेशन की स्थापना की थी। यह भारत में पहली जगह थी जहां एचआईवी की जांच और इलाज एक साथ संभव हुआ।
डॉ. सोलोमन इसके अलावा डॉक्टरों और छात्रों को भी एचआईवी और उसके इलाज के बारे में शिक्षा प्रदान करती थी। चेन्नई में उन्हें एड्स डॉक्टर के नाम से जाना जाता था। उन्होंने एड्स सोसायटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया। एड्स जैसी घातक बीमारी के निवारण और इसके बारे में वह लगातार जानकारी जुटाती रहीं। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय अनुसंधान अध्ययनों में भी सहयोग किया। उन्होंने यूएस नैशनल इंस्टीट्यट ऑफ मेंटल हेल्थ में एचआईवी/एसटीडी रोकथाम ट्रायल, अमेरिका के ही एचआईवी प्रिवेशन ट्रायल नेटवर्क के साथ काम किया। उन्होंने दक्षिण भारत में स्वास्थ्य देखभाव में एचआईवी को लेकर रूढ़ियों को दूर करने का भी काम किया। उन्होंने एचआईवी महामारी, रोकथाम, देखभाल और सामाजिक रवैये को लेकर बहुत से लेख भी लिखे हैं।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार
डॉ. सुनीति सोलोमन ने राष्टीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत सारे सम्मान प्राप्त किए थे। साल 2005 में तमिलनाडु स्टेट एड्स कंट्रोल सोसायटी की ओर से लाइफटाइम अचीवमेंट दिया गया। 2006 में अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी ने उन्हें सम्मानित किया। साल 2009 में भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय महिला जैव वैज्ञानिक पुरस्कार दिया गया। साल 2010 में नैशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज की फैलोशिप हासिल की। साल 2017 में भारत सरकार की ओर से मरणोपरांत पद्म श्री दिया गया था।
डॉ. सुनीति सोलोमन की मृत्यु 28 जुलाई 2015 में उनके गृहनगर चेन्नई मे हुई थी। वे कैंसर से पीड़ित थी। डॉ. सोलोमन एक दूरदर्शी और कोमल स्वभाव की महिला थी। उनकी दूरदर्शिता की वजह से ही भारत में उस समय एड्स बीमारी को लेकर खोज शुरू हो पाई थी। सामाजिक रूढ़िवाद को तोड़ते हुए वह अपने काम पर लगी रही। उन्होंने अपना पूरा जीवन लोगों के कल्याण के लिए समर्पित किया।
स्रोतः