एडिटर्स नोट: जाति की परतें हमेशा महिलाओं के संघर्षों को कई गुना ज़्यादा बढ़ाने का काम करती हैं। जब बात युवा महिलाओं की आती है तो उनके संघर्ष को उजागर करने का कोई स्पेस नहीं होता। ग्रामीण उत्तर भारत के हाशियेबद्ध मुसहर समुदाय की युवा महिलाओं के संघर्ष को उजागर करने की दिशा में है ‘हाशिये की कहानियां‘ अभियान एक पहल है। इसका उद्देश्य ग्रामीण युवा महिलाओं की उन युवा महिलाओं की कहानियों को सामने लाना है, जिनकी तरफ़ अक्सर मुख्यधारा का रुख़ उदासीन होने लगता है। इसी पहल में यह चौथी कहानी है खुशी की। यह लेख स्वाती सिंह ने द रेड डोर एवं क्रिया संस्था द्वारा संचालित यंग विमेन लीडर फ़ेलोशिप के तहत लिखा है।
छोटी सी मुस्कुराती प्रीति की आंखों में कई सारे सपने हैं। वैसे तो उम्र सिर्फ़ नौ साल है, लेकिन उसके अंदर कुछ कर गुजरने की चाह है। उसे नहीं मालूम जाति-धर्म का भेदभाव का क्या होता है। जब मैंने उससे भेदभाव के बारे में जानने की कोशिश की तो उसने बड़ी ही मासूमियत से ज़वाब दिया, “दीदी, हम छोटे है इसलिए गाँव के बाक़ी लोग हमको भगा देते हैं। जब हम बड़े हो जाएंगे तब थोड़े ही कोई ऐसे करेगा।”
प्रीति का ये ज़वाब हमेशा उस दिन की याद दिलाता है, जब उसने अपने पास वाले गाँव में अपनी पहली हूलाहुप की प्रस्तुति दी थी। बनारस ज़िले के गहरपुर ग्राम पंचायत (आराजीलाइन ब्लॉक) में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था, इस कार्यक्रम में बनारस ज़िले के तेंदुई गाँव (सेवापुरी ब्लॉक) की मुसहर बच्चियों ने भी हिस्सा लिया। इस कार्यक्रम में अलग-अलग गाँव की मुसहर बस्ती की बच्चियां हिस्सा ले रही थीं। गाँव की क़रीब सभी जाति की महिलाएं और लड़कियां इस कार्यक्रम में शामिल थीं, लेकिन उन्हें मुसहर समुदाय की बच्चियों की ये प्रस्तुतियां बहुत रास नहीं आ रही थीं। बच्चियों की प्रस्तुति में हिंदी की कविताएं ही थी, जो आमतौर पर प्रिविलेज समुदाय के लोगों के लिए आम बात ही है।
कार्यक्रम के दिन पहले तो बच्चियों के माता-पिता उन्हें भेजने को तैयार नहीं हुए। उन्हें डर था कि ये सभी लड़कियां है और गाँव के किसी कार्यक्रम में कभी गई ही नहीं। ख़ासकर वहां जहां सभी खासकर उनसे तथाकथित ऊंची जाति के लोग हो, ऐसे जगह पर वे कैसे जा सकेगीं। लेकिन कैसे-तैसे करके बस्ती की कुल सात बच्चियों ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया। बनारस ज़िले के गहरपुर गाँव में पहली बार था जब मुसहर बस्ती की लड़कियां गाँव के किसी कार्यक्रम में हिस्सा ले रही थीं।
प्रीति की हूलाहुप परफ़ोर्मेंस , जो गाँव के लिए अचंभा बन गई
इसके बाद प्रीति ने हूलाहुप की अपनी प्रस्तुति दी। प्रस्तुति से पहले कार्यक्रम में हिस्सा ले रही कई अन्य लड़कियों ने पहले ही आवाज़ दी, “इसके बाद हमलोगों को मौक़ा दीजिएगा। हम इससे बेहतर हूलाहुप करेंगें।” छोटी प्रीति ने सात मिनट-तेरह सेकंड तक लगातार जब साइकिल के पुराने टायर के साथ हूलाहुप की प्रस्तुति दी तो चारों तरफ़ तालियों की गूंज और प्रीति का नाम था। इतना ही नहीं सड़कों पर आते-जाते लोग खड़े होकर प्रीति की प्रस्तुति देखने लगे। प्रीति ने बेहद आसानी से सात मिनट-तेरह सेकंड तक बिना रुके लगातार हूलाहुप का एक रिकार्ड बना दिया, जिसे चुनौती देने के लिए किसी की भी हिम्मत नहीं हुई।
ये अपने आप में इस गाँव के इतिहास का एक नया अध्याय जैसा रहा। बता दें कि बेहद सीमित संसाधनों में हमलोगों ने इन बच्चों के साथ शिक्षा और खेलकूद का ये कार्यक्रम शुरू किया और हूलाहुप जैसे गेम के लिए साइकिल के पुराने टायर जैसे देशी साधन का इस्तेमाल करना शुरू किया।
बनारस ज़िले के सेवापुरी ब्लॉक के तेंदुई गाँव की मुसहर बस्ती में रहने वाली प्रीति का घर गाँव के सबसे बाहरी हिस्से में है, जो हिस्सा जहां किसी योजना, सूचना, अवसर और सुनिश्चित मानवाधिकार भी कल्पना समझी जाती है। प्रीति के पिता मज़दूरी का काम करते है, जिससे परिवार का पेट पालना अपने आप में एक चुनौती है। ग़रीबी, जातिगत भेदभाव, हिंसा और मौलिक अधिकारों से दूर मुसहर बस्ती में लड़कियों का शिक्षा से जुड़ना या अपने विकास की तरफ़ आगे बढ़ना आज भी असंभव जैसा है, क्योंकि उत्तर भारत में मुसहर समुदाय में सर्वाधिक बाल विवाह के केस देखे जाते है। बाल-विवाह की इस समस्या की वजह से समुदाय में लड़कियों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजा जाता है। यही वजह है कि प्रीति को भी दो साल पहले तक स्कूल जाने का मौक़ा नहीं मिला। इसके बाद जब उसकी बस्ती में पाठशाला कार्यक्रम की शुरुआत हुई तब प्रीति ने पढ़ाई करना शुरू किया और पिछले एक साल से अब प्रीति रोज़ सरकारी स्कूल में पढ़ने जाती है।
खेल के ज़रिये कैसे प्रीति ने किया स्पेस क्लेम
पाठशाला कार्यक्रम से जुड़ने के बाद ही प्रीति ने हूलाहुप खेल सीख़ा। कविता-पहाड़े याद करने के लिए रचनात्मक गतिविधि के प्रयोग के तहत बच्चों को अलग-अलग खेल करवाया जाता, जिसमें एक हूलाहुप भी था। प्रीति को शुरुआत में साइकिल के टायर से ये खेल करने में काफ़ी अजीब लगा, लेकिन धीरे-धीरे उसे ये गेम अच्छा लगने लगा।
ग़ौरतलब है कि वह समाज जो लड़कियों को हमेशा लड़कों से कमतर समझता है और इस भेदभाव की परत तब और मोटी और क्रूर हो जाती है जब लड़कियां दलित या हाशियेबद्ध समुदाय से आती हैं। आज़ादी के इतने साल बाद, आज भी मुसहर जाति के लोग हाशिए में रहने को मजबूर है। ऐसे में जब हम इन्हें मुख्यधारा से जोड़ने की बात करते है तो हमें हर स्तर पर काम करने की ज़रूरत होती है। प्रीति की प्रस्तुति ने न केवल कार्यक्रम के मंच पर बल्कि जातिगत भेदभाव से भरे लोगों के विचारों के बीच अपनी जगह को बेहद मज़बूती से क्लेम किया। अक्सर कहा जाता है कि अगर हम समाज में कोई बदलाव लाना चाहते है ख़ासकर जब वो बदलाव हाशिएबद्ध समुदाय को मुख्यधारा से जोड़ने का है तो उसके लिए सार्वजनिक सांस्कृतिक कार्यक्रम एक सशक्त माध्यम है।
हो सकता बहुत लोगों को इन बच्चियों की कार्यक्रम में भगीदारी आम बात लगे, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। क्योंकि सच्चाई यही है कि आज भी गाँव की बस्तियाँ, वहाँ की गालियाँ वहाँ रहने वाले लोगों की जाति से जानी जाती है। इतना ही नहीं, गाँव चाहे जो भी हो उत्तर भारत में आज भी गाँव में मुसहर बस्तियां हमेशा गाँव के बाहरी हिस्सों पर है, जहां तक सभी योजनाएं पहुंचते-पहुंचते सरकारें बदल जाती हैं। ये समाज की एक कड़वी सच्चाई है, ऐसे में उस समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाली बच्चियां जब पूरे आत्मविश्वास के साथ उसी गाँव के मंच से अपनी कला का प्रदर्शन करें तो ये न केवल समाज में उनका स्पेस क्लेम करता है बल्कि आनेवाले समय में नये रास्ते और बहुत-सी रूढ़िवादी धारणाओं को तोड़ने में भी मदद करता है।
खेल ने कैसे प्रीति को एक उम्मीद दी
हूलाहुप अब प्रीति का सबसे पसंदीदा गेम बन चुका है। गाँव के अलग-अलग कार्यक्रम में लोग प्रीति की प्रस्तुति का इंतज़ार करते हैं। जब मैंने इस गेम के बारे में प्रीति से पूछा तो उसने ज़वाब दिया, “दीदी हम हूलाहुप किए इसीलिए सबलोग हमको जानता है और अपनी गोद में भी उठाया, माला पहनाया। इसलिए हमको ये गेम अच्छा लगता है।”
हूलाहुप को ओलंपिक गेम के रिदम जिमनास्ट श्रेणी में शामिल किया गया और जब हम हूलाहुप गेम को भारत के संदर्भ में तलाशने की कोशिश करते हैं तो गूगल पर इसके प्लेयर के रूप में केरल की रहने वाली सिर्फ़ ग्यारह वर्षीय दीक्षिता का नाम आता है। उनका नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकार्ड में दर्ज़ है। चूंकि भारत में अभी इस खेल की लोकप्रियता अन्य राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेल की तरह नहीं है, जिसकी कई वजहें हो सकती हैं। इन सबके बीच जब हम सीमित संसाधन और बुनियादी ज़रूरतों से दूर जीवनयापन करने को मजबूर प्रीति जैसी बच्चियों की प्रतिभागियों और इन्हें सामने लाने के लिए प्रभावी मंच की उपलब्धता और उस तक प्रीति की पहुंच कितनी सुनिश्चित होगी, यह कह पाना मुश्किल है।
बेशक प्रीति को अभी समाज में जाति-धर्म के भेद समझ न आते हो, लेकिन वो अपने साथ होने वाले तिरस्कार को ज़रूर महसूस करती है और अब हूलाहुप उसे इस तिरस्कार से दूर करने का एक ज़रिया बन चुका है, जिसे वह हर दिन और बेहतर और मज़बूत करने के लिए काम कर रही है।
प्रीति की ये दमदार प्रस्तुति इस बात का भी उदाहरण है कि गाँव में आज भी कितनी दबी प्रतिभाएं हैं जिन तक समाज के विकास की पहुंच नहीं बन पाई है। जाति, वर्ग और धर्म जैसे अलग-अलग भेदों की मार झेलते समाज के अलग-अलग वर्गों में बहुत ही प्रतिभाएं उभर ही नहीं पातीं। इसलिए ज़रूरी है कि गाँव की ऐसी अद्भुत प्रतिभाओं को उजागर कर उन्हें और निखारा जाए, जो आने वाले समय में देश को एक नयी दिशा देने में मदद करेंगी। मुसहर समुदाय में तमाम दुख और संसाधन से वंचित ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर लोगों के बीच प्रीति का हूलाहुप के प्रति रुझान एक उम्मीद जगाता है, जो आनेवाले समय में निश्चित ही एक बदलाव का एक मज़बूत आधार बनेगा।