तेरह वर्षीय माही इंस्टाग्राम पर घंटो बिताती हैं। उनके तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कई अलग-अलग अकाउंट्स हैं। उन्हें रील बनाना और देखना दोनों बहुत पसंद है। इससे सोशल मीडिया का असर ही कह सकते है जिसके चलते माही बड़े होकर अपने चेहरे पर से तिलों को मिटाना चाहती है। उनका कहना है कि ये दिखने में अच्छे नहीं लगते हैं मुझे साफ और सुंदर चेहरा पसंद है। ऐसे निशान मेरा आत्मविश्वास कम करने का काम करते है। इसलिए मैं बड़े होकर ट्रीटमेंट से इन्हें बिल्कुल खत्म करना चाहती हूं। मैं ऑनलाइन और रियल लाइफ में एक जैसा ही दिखना चाहती हूं।
दरअसल, हम इंटरनेट की ग्लोबल दुनिया में रहते हैं जहां आधी दुनिया ऑनलाइन है। विश्व के किसी भी कोने से लोग एक-दूसरे से परिचय बना रहे हैं। हर कोई खुद को फेसबुक, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, ट्विटर, यूट्यूब के ज़रिये दिखा सकता है। सोशल मीडिया की यह दुनिया एक झूठे आदर्शवाद पर टिकी है जहां चमकता चेहरा, कामयाबी, हंसी, सुडौल शरीर, रोमांचक शौक और परफेक्ट छुट्टियों की अंतहीन दास्तां है। इंटरनेट की इस आभासी दुनिया का चेहरा बहुत से लोगों को बहुत प्रभावित करता है। लोग इस दौड़ में शामिल होने के लिए खुद पर अदृश्य दबाव महसूस करते हैं।
दूसरी तरफ सोशल मीडिया होमोफोबिक और स्त्रीद्वेषी विचारों को भी पोषित करता है। यहां महिलाओं, ट्रांस समुदाय के लोगों के लिए रूढ़िवाद और पूर्वाग्रह स्थापित है जिस वजह से उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। पुरुषवादी मानसिकता शब्दों के ज़रिये उन पर हिंसा करती है। युवा लड़कियों को जहां उनके रंग, रूप और पहनावे के लिए जज किया जाता है वहीं क्वीयर समुदाय के लोगों का उनकी लैंगिक पहचान और जेंडर एक्सप्रेशन के लिए मजाक बनाया जाता है। इस तरह की प्रतिक्रियाएं मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर डालती है।
सर्वे के मुताबिक बीते वर्ष 70 फीसदी एलजीबीटीक्यू+ युवाओं ने उदासी और निराशा की लगातार भावनाओं का सामना किया। स्कूल में एलजीबीटीक्यू+ युवाओं को ज्यादा बुलिंग का सामना करना पड़ता है।
एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों में उदासी और निराशा
यूथ बिहेवियर रिस्क सर्वे के अनुसार पिछले एक दशक से किशोर लड़कियों में उदासी और लगातार निराशा की भावनाओं की दर 36 फीसदी से 57 फीसदी हो गई है। हाल ही मे जारी इस सर्वे के मुताबिक़ पिछले साल तीन में से एक किशोर लड़की ने गंभीरता से सुसाइड करने के बारे में सोचा है। किशोरों में मानसिक स्वास्थ्य को राष्ट्रीय संकट बताया गया है। रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया का उदय किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से जुड़ा है। सोशल मीडिया इन सबकी एक बड़ी वजह है। एलजीबीटीक्यू+ युवाओं में भी मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं।
सर्वे के मुताबिक बीते वर्ष 70 फीसदी एलजीबीटीक्यू+ युवाओं ने उदासी और निराशा की लगातार भावनाओं का सामना किया। स्कूल में एलजीबीटीक्यू+ युवाओं को ज्यादा बुलिंग का सामना करना पड़ता है। विशेषज्ञों का कहना है कि किशोर इन दिनों ज्यादा समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं। वे कम समय दोस्तों और सोने में खर्च करते हैं। अगर सभी ऑनलाइन अपना समय कम व्यतीत करेंगे तो वे कम उत्पीड़न का सामना करेंगे, उन्हें कम बुलिंग का सामना करना पड़ेगा और उनका स्वास्थ्य बेहतर होगा।
दिल्ली की रहने वाली रेवती (बदला हुआ नाम) एक ट्रांस वुमन हैं। सोशल मीडिया पर अपने अनुभवों पर बात करते हुए उनका कहना है, “एक ट्रांस वुमन होने के नाते मेरा वर्चुअल स्पेस का बहुत अच्छा अनुभव तो नहीं रहा है। अगर गलती से भी किसी पब्लिक पोस्ट पर कमेंट कर दिया और वहां बहस हो गई तो सबसे पहले मेरी सेक्शुअलिटी को टॉर्गेट किया जाता है। मेरे दिखने के ढ़ंग और शरीर पर भद्दी बातें कही जाती है। लोगों के इस तरह के कमेंट्स बहुत परेशान करने वाले होते हैं। इस तरह का असर हमारे सेहत और काम दोनों पर पड़ता है। हालांकि ये निराशाजनक भी लगता है कि कम से कम लोग सोशल मीडिया की दुनिया में तो वो व्यवहार न करें जो हमारे साथ पब्लिक स्पेस में करते हैं।”
ब्यूटी स्टैंडर्स और डिजिटल स्पेस
सोशल मीडिया भले ही आधुनिकता का प्रतीक हो लेकिन ख़ासतौर पर महिलाओं के लिए यह स्पेस ब्राह्मणवादी रूढ़िवादी सोच से ही भरा है। तथाकथिक सुदंरता के पैमानों को इन प्लेटफॉर्म ने बखूबी स्थापित करने का काम किया है कई शोध बताते हैं कि सोशल मीडिया एक तरह की बॉडी इमेज को बढ़ावा देने का काम करता है। ऑनलाइन प्रोफाइल पर युवतियां खुद को ख़ास बॉडी इमेज जैसा ही दिखाना चाहती है। इन फोटो को अक्सर अवास्तविक रूप से एडिट किया जाता है।
जीक्यू मैंगजीन में प्रकाशित लेख के मुताबिक़ डलहौजी यूनिवर्सिटी के फिलिप जॉय और मैथ्यू न्यूमर ने अपनी रिसर्च में पाया कि गे पुरुषों पर हेल्दी खाना खाने और एक परफेक्ट बॉडी रखने की सामाजिक मांगों की वजह से चिंता और अवसाद से जुड़ी है। सोशल मीडिया पर यह दवाब अधिक रहता है।
दिल्ली की रहने वाली रेवती (बदला हुआ नाम) एक ट्रांस वुमन हैं। सोशल मीडिया पर अपने अनुभवों पर बात करते हुए उनका कहना है, “एक ट्रांस वुमन होने के नाते मेरा वर्चुअल स्पेस का बहुत अच्छा अनुभव तो नहीं रहा है। अगर गलती से भी किसी पब्लिक पोस्ट पर कमेंट कर दिया और वहां बहस हो गई तो सबसे पहले मेरी सेक्शुअलिटी को टॉर्गेट किया जाता है।
परफेक्ट होने का दबाव
माही जैसा सोचती है वैसा सोचने वाली वह अकेली नहीं है। कई अध्ययनों में यह स्पष्ट हुआ है कि सोशल मीडिया के इस्तेमाल से लड़कियों ने अपनी बॉडी इमेज पर नकारात्मक प्रभाव को स्वीकारा है। द गार्डियन में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक़ मनोवैज्ञानिकों ने पाया है कि जिन लड़कियों ने 11 से 13 साल की उम्र के बीच सोशल मीडिया पर अपना समय बढ़ाया वे एक साल बाद अपने जीवन से कम संतुष्ट थीं। शोधकर्ता के अनुसार जो लड़कियां सोशल मीडिया पर ज्यादा समय व्यतीत करती है उनमें अवसाद होने का ज्यादा जोखिम रहता है जिसकी वजह ऑनलाइन बुलिंग और कमजोर नींद है। एक अन्य शोध के अनुसार सोशल मीडिया पर ज्यादा उपस्थिति बॉडी इमेज के साथ-साथ खाने-पीने से जुड़े डिसऑर्डर से भी संबंधित है।
सेल्फी पोस्ट करने से मूड पर पड़ता है असर
साइंस डॉयरेक्ट में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक़ सेल्फी लेने और पोस्ट करने वाली कॉलेज जाने वाली महिलाओं का मूड खराब होता है और वे कम आकर्षक महसूस करती हैं। इसमें दिलचस्प बात यह है कि ये नकारात्मक परिणाम तस्वीर के रीटेक और रीटच करने के बाद भी सामने आए हैं। पिक्चर परफेक्टः द डॉयरेक्ट इफैक्ट ऑफ मैनिप्युलेटेड इंस्टाग्राम फोटोज ऑन बॉडी इमेज इन एडोलसेंट गर्ल्स नामक अध्ययन के मुताबिक़ इंस्टाग्राम पोस्ट के बदलाव का किशोरियों पर नकारात्मक असर पड़ता है। इस अध्ययन के अनुसार इंस्टाग्राम के फोटो इन दिनों आसानी से मैनिप्युलेटेड हो जाते है। जिसमें आसानी से आई बैग्स, रिकल्स और अशुद्धताओं को दूर करना और पैरों और कमर को पतला करना शामिल है। परिणाम से पता चला है कि इस तरह के बदलाव सीधे तौर पर खुद के वास्तविक शरीर की बनावट को कमत्तर करने का काम करते है।
सोशल मीडिया पर पितृसत्तात्मक व्यवहार की वजह से किशोर महिलाओं और ट्रांस समुदाय के लोगों को ख़ासतौर पर उत्पीड़न और ऑनलाइन हिंसा का सामना करना पड़ता है। सामाजिक सकीर्णता के कारण उन पर तथाकथित सुंदरता और स्वीकार्यता को पाने का दवाब बनता है। यह दवाब उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। क्योंकि किशोर सोशल मीडिया की तस्वीरों को वास्तविक मानकर उसी रूप को अपने जीवन में उतारना चाहते हैं।