स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य कब सुनिश्चित होगी स्वास्थ्य सुविधाओं तक आदिवासी समुदायों की पहुंच

कब सुनिश्चित होगी स्वास्थ्य सुविधाओं तक आदिवासी समुदायों की पहुंच

भारत की आदिवासी जनसंख्या के पांच वर्ष की आयु से कम के लगभग 40 फीसदी बच्चे बौने (स्टंटेड) हैं और उनमें से 16 फीसदी तो गंभीर रूप से बौन हैं। गंभीर तौर पर बौनापन आदिवासी बच्चों में गैर-आदिवासी जनसंख्या से 16 फीसदी ज्यादा है।

भारत में 2011 में हुई जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश की लगभग 8.6% आबादी आदिवासी हैं। भारतीय संविधान जनजातीय समुदायों की विशेष स्थिति को मान्यता देता है। संविधान की पाँचवी और छठी अनुसूची के तहत विशिष्ट राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था के माध्यम से विशेष सुरक्षा और अधिकार प्रदान किए गए हैं। वर्तमान में देश में 705 अनुसूचित जनजातियां हैं और अधिकांश आदिवासी आबादी दूर-दराज इलाकों में रहती है। संविधान द्वारा विशेष संरक्षण और अधिकार देने के बावजूद देश की आबादी का यह एक बड़ा हिस्सा हाशिए पर रहने को मजबूर है। आदिवासी समुदाय न केवल सामाजिक और आर्थिक रुप से मुख्यधारा से बाहर है बल्कि बुनियादी जरूरतों तक उनकी पहुंच नहीं है जिसमें से एक मुख्य जरूरत है स्वास्थ्य संबंधी। 

आदिवासी आबादी का बड़ा हिस्सा रेगिस्तान, पहाड़, जंगल और ग्रामीण इलाकों में रहता है। आजादी के 75 वर्ष बाद तक शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन बिजली, पानी से जुड़ी बुनियादी सुविधाएं सरकारों द्वारा आदिवासी लोगों तक नहीं पहुंची है। यूनिसेफ के अनुसार आदिवासी लोग भारतीय समाज के सबसे कुपोषित भाग है। जागरूकता की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव की वजह से आदिवासी लोग कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करते हुए अपनी जान तक गंवा देते हैं।

आदिवासी समुदाय की आबादी में पर 100,000 पर मुत्यु दर 703 है जो राष्ट्रीय औसत के 256 है। इनमें से केवल 11 फीसदी मामलों का ही इलाज किया जाता है।

आदिवासी समुदाय पर बीमारियों का तिहरा भार 

भारत सरकार की ट्राइबल हेल्थ इंडिया रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी लड़कियां कम उम्र में मातृत्व आयु में प्रवेश करती हैं। कुपोषण, कम उम्र में गर्भधारण, कम वजन और एनीमिया की वजह से आदिवासी महिलाओं में मातृत्व मृत्यु दर अधिक है। आंकड़े के अनुसार 15 से 19 साल की लगभग 50 फीसदी लड़कियों का बॉडी मॉस इंडेक्स 18.5 है। आदिवासी आबादी पर बीमारियों का तिहरा भार है। कुपोषण, मलेरिया और टीबी के अलावा पर्यावरणीय बदलाव और जीवनशैली में परिवर्तन की वजह से कैंसर, हाइपरटेंशन और डायबिटीज से जुड़ी बीमारियां भी तेजी से पैर-पसार रही है। तीसरा समुदाय में तेजी से मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं का भार भी बढ़ रहा है। 

आदिवासी महिलाओं को कम उम्र में शादी, बार-बार गर्भधारण, असुरक्षित प्रसव और यौन संचारित बीमारियों की चपेट में आकर अधिक स्वास्थ्य संबंधी जोखिमों का सामना करना पड़ता हैं। महिलाओं की निम्न सामाजिक स्थिति के कारण उनका उपचार भी तभी संभव हो पाता है जब बीमारी पूरी तरह से शरीर में फैल जाती है। गर्भावस्था के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण प्रसव से पूर्व जरूरी सेवाएं प्रदान करने के प्रयासों में बाधा बनता है क्योंकि आमतौर पर ये ऐसी स्थिति नहीं मानी जाती है जिसके लिए चिकित्सा या उपचार की आवश्यकता हो। रिपोर्ट के अनुसार 27 फीसदी आदिवासी महिलाएं बच्चे को घर में ही जन्म देती हैं। 

तस्वीर साभारः Scroll.in

यूनिसेफ इंडिया पर मौजूद जानकारी के मुताबिक़ भारत के 4.7 मिलियन आदिवासी बच्चे काफी लंबे समय से कुपोषण की चपेट में हैं। अन्य वर्गों के बच्चों की तुलना में आदिवासी वर्ग के बच्चे कुपोषण से ज्यादा पीड़ित हैं। भारत की आदिवासी जनसंख्या के पांच वर्ष की आयु से कम के लगभग 40 फीसदी बच्चे बौने (स्टंटेड) हैं और उनमें से 16 फीसदी तो गंभीर रूप से बौन हैं। गंभीर तौर पर बौनापन आदिवासी बच्चों में गैर-आदिवासी जनसंख्या से 16 फीसदी ज्यादा है। 

वहीं, जनजातीय कार्य मंत्रालय की वेबसाइट पर मौजूद डेटा के अनुसार हर 86 में से एक सिकेल सेल बीमारियों से ग्रसित है। यह लाल रक्त कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन को प्रभावित करता है। आदिवासियों के बीच मलेरिया, निमोनिया, सांस की बीमारी, डायरिया और बुखार आमतौर पर रिपोर्ट की जाने वाली बीमारियां आम है। आदिवासी लोग बड़ी संख्या में सांप-बिच्छु काटने से भी जान गंवाते हैं।

आजादी के बाद देश में कई सरकारें आई और गई लेकिन कोई भी आदिवासियों की स्थिति में अधिक बदलाव नहीं ला सका। सरकार और उनकी नीतियों ने इन्हे कभी उतनी प्राथमिकता नहीं दी जितनी उन्हें मिलनी चाहिए। आदिवासी समुदायों को आज भी उनकी भूमि, जंगलों, बुनियादी सेवाओं और समग्र भेदभाव के मामले में हमेशा हाशिए और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। 

हॉस्पिटल और क्लिनिक में भेदभावपूर्ण व्यवहार

आदिवासी समूहों और अन्य वर्ग से आने वाले स्वास्थ्यकर्मियों के बीच संस्कृति में जमीन-आसमान का फर्क होता है, जिसका नतीजा यह है कि स्वास्थ्यकर्मियों की ओर से आदिवासियों के लिए असंवेदनशील, उपेक्षापूर्ण और भेदभावपूर्ण व्यवहार देखने को मिलता है। इसके अलावा कई बार उन्हें भाषा की बाधाओं का भी सामना करना पड़ता है। यह एक मुख्य कारण है कि यह समूह सार्वजनिक या निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के बजाय स्व-चिकित्सा करना या वैद्य के पास जाना पसंद करते हैं। 

स्वास्थय सुविधाओं का अभाव 

तस्वीर साभारः DW

आउटरीच कैंप और मोबाइल स्वास्थ्य इकाइयों के माध्यम से गरीबों तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने के प्रयास अधिकांश असफल हो जाते हैं। दूर-दराज ग्रामीण और जनजातीय क्षोत्रों में बड़ी संख्या में पद खाली पड़े रहते हैं, दवाओं का अभाव और वाहनों के खराब रख-रखाव के कारण वे अक्सर खराब हो जाते हैं। एबुलेंस के अभाव में गर्भवती महिलाएं और आदिवासी बस्तियों के बीमार व्यक्ति आसानी से आपातकालीन चिकित्सा और देखभाल के लिए समय पर हॉस्पिटल या क्लिनिक पहुंचने में असमर्थ होते हैं। साथ ही हॉस्पिटलों में प्रशिक्षित डॉक्टरों, नर्सों और पैरामेडिकल स्टाफ की कमी भी देखने को मिलती है। स्क्रोल में छपी रिपोर्ट के अनुसार चिकित्सा सुविधाओं तक पहुंच बनाने के लिए आदिवासियों को सबसे बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता उनमें से दवाईयों की कमी (56.5 फीसदी) और प्रदाताओं की अनुपलब्धता (54.9 फीसदी) है। इसके अलावा महिला प्रोवाइडर की 45 फीसदी कमी है। इसके बाद आदिवासी लोगों की स्वास्थ्य सुविधाओं की दूरी 42 फीसदी और 40.9 फीसद यातयात की असुविधा जैसी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। 

गरीबी की वजह से इलाज से दूरी

अधिकांश ग्रामीण जनजातीय आबादी गरीबी रेखा से नीचे है, पैसे की कमी इस बात को प्रभावित करती है कि उन्हें कितनी और किस प्रकार की स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त होती है। आय यह निर्धारित करती है कि परिवार अपने एक सदस्य के बीमार पड़ने पर अपना जीवन स्तर को बनाए रखने में सक्षम हैं या नहीं। गरीबी के चलते आदिवासी परिवारों को इलाज के लिए पैसे उधार लेने पड़ते हैं या बीमार व्यक्ति को उसी के हाल पर छोड़ दिया जाता है। कई बार वह डॉक्टर की फीस का भी इंतजाम नहीं कर पाते इसलिए अक्सर बीमारी का इलाज बीच में ही अधूरा छोड़ दिया जाता है। गरीबी की वजह से आदिवासी लोगों की पहुंच निजी अस्पतालों तक नहीं है। बीते वर्ष की ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश की स्वास्थ्य ढांचे का लगभग 62 फीसदी निजी सेक्टर में है और केवल 4 फीसदी आदिवासी लोगों तक ही निजी अस्पतालों की पहुंच हैं। 

भारत सरकार की ट्राइबल हेल्थ इंडिया रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी लड़कियां कम उम्र में मातृत्व आयु में प्रवेश करती हैं। कुपोषण, कम उम्र में गर्भधारण, कम वजन और एनीमिया की वजह से आदिवासी महिलाओं में मातृत्व मृत्यु दर अधिक है।

स्वास्थ्य संबंधी मुद्दो को लेकर जागरूकता की कमी 

स्क्रोल की रिपोर्ट में छपे डेटा के अनुसार आदिवासी समुदाय की आबादी में पर 100,000 पर मुत्यु दर 703 है जो राष्ट्रीय औसत के 256 है। इनमें से केवल 11 फीसदी मामलों का ही इलाज किया जाता है। आदिवासी बहुल इलाकों में बड़ी संख्या में स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा अधूरा है। डॉक्टर, दवाई, और अन्य चीजें नहीं है। साथ ही स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों की जानकारी न होने के कारण अधिकांश लोग बीमार पड़ते हैं और कई बार इलाज मिलने में बहुत देर हो चुकी होती है या डॉक्टरी इलाज में बेहतर तरीके से नहीं होता है। कई आदिवासी समुदाय इन मामलों में चुप रहना पसंद करते हैं। वे शर्मीले होते हैं और बाहरी दुनिया से संपर्क नहीं बना पाते इसलिए देश के नीति-निर्माताओं और नेताओं को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें आदिवासियों के कल्याण की दिशा में किस तरह का काम करना है ताकि वे उनसे बेहतर तरीके से जुड़ सकें।


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