“मेरा नाम जमुना टुडू है” वह कांपती आवाज़ में कहना शुरू करती हैं। वह आगे कहती हैं, “मैंने जंगलों को जीवित रखने के लिए लगभग अपनी जान देकर कीमत चुकाई है।” ये शब्द थे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री को ग्रहण करते हुए झारखंड की पर्यावरणविद् जमुना टुडू के। एक साधारण ग्रामीण महिला जिनकी असाधारण निर्भीकता और प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता ने अच्छे-अच्छे वन माफियाओं को चुनौती दी। जमुना, जिन्हें शायद बड़े-बड़े डिग्रीधारक पर्यावरणविदों की तरह बंद कमरे में ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा करना न आता हो पर वह आज जंगलों में रहकर दुनिया को पेड़ों से प्यार करना ज़रूर सिखा रही हैं।
इस सफ़र की शुरुआत होती है आज से ठीक 25 साल पहले 1998 में जब वह ब्याह कर अपने ससुराल मुटूरखाम आईं। उस वक्त गांव से लगे जंगलों में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई चल रही थी। साल और सागौन के पेड़ों के लिए लोकप्रिय मुटूरखाम जंगलों को लकड़ी तस्करों ने तबाह कर दिया था। स्थानीय लोगों को चुप रहने के लिए लगातार धमकियां भी दी जा रही थीं। प्रकृति के बीच पली-बढ़ी जमुना के लिए यह देखना असहनीय था।
मुटूरखाम के हरे-भरे जंगल जिनके लिए वह इतनी दूर ब्याहने को भी राज़ी हो गई थी, उन्हें काटकर खत्म किया जा रहा था। उन्होंने लोगों को पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए समझाया पर सब बेअसर रहा। पेड़ जिन्हें वह अपना परिवार, अपना भाई मानती थीं उन्हें खत्म किया जा रहा था। जमुना खुद को अकेला महसूस करने लगीं। पूरे मुटूरखाम में कोई भी उनका साथ देने वाला, हिम्मत बंधाने वाला नहीं था जो पेड़ों को बचा लेता। आखिरकार जमुना ने खुद वन माफिया से लड़ने का निर्णय किया। यहीं से शुरू होती है जमुना की यात्रा।
वन संरक्षण के लिए बनाई अपनी राह, औरतों को किया जागरूक
पुरुषों की इस दुनिया में जहां किसी महिला का अपनी बुनियादी ज़रूरतों के लिए भी बाहर निकलना आसान नहीं है, वहीं जमुना का वन संरक्षण जैसे मुद्दे के लिए घर की दहलीज लांघना गांव और समाज की नज़र में एक मूर्खता से भरपूर फ़ैसला था। इसका खामियाज़ा जमुना को गांव वालों की खरी-खोटी और जानलेवा हमले सहकर भुगतना पड़ा। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। जमुना के जंगल बचाओ अभियान के शुरुआती दौर में उनका साथ पुरुषों ने नहीं बल्कि गांव की पांच महिलाओं ने दिया।
जमुना और उनकी महिला ब्रिगेड ‘वृक्ष बचाओ अभियान’ के लिए जंगलों में गश्त लगाती और पेड़ों की अवैध कटाई करने वालों को रोकतीं। जमुना के इस अभियान को कई मुसीबतों से भी गुज़रना पड़ा। एक तरफ नक्सली क्षेत्र में काम करने से पुलिस को उन पर गलत संदेह होने लगा था। वहीं, दूसरी तरफ नक्सलवादियों के हमले का ख़तरा और तीसरा, कई बार कुछ वन अधिकारियों का वन माफिया के साथ मिले होने से उनकी मेहनत का व्यर्थ जाना। लेकिन जमुना रुकी नहीं। वह बिना किसी सरकारी मदद के अपने अभियान में लगी रहीं। उनके साहस और नेक इरादों से किए प्रयासों के ज़रिये उन्होंने लोगों का भरोसा जीता।
धीरे-धीरे जमुना से प्रेरित हो आसपास के गांव की और महिलाएं भी उनकी मुहिम का हिस्सा बनती गईं। 2004 में जमुना ने ‘वन सुरक्षा समिति’ का गठन किया। आज चाकुलिया प्रखंड में ऐसी 500 से भी ज्यादा समितियां हैं। जमुना ने न केवल 60 हेक्टेयर में जंगल को कटने से बचाया, बल्कि इसके लिए अपने ही जैसी 10 हज़ार से भी अधिक महिलाओं को प्रेरित और प्रशिक्षित किया। स्थानीय लोगों और पेड़ों के बीच घनिष्ठ संबंध बनाने के लिए रक्षाबंधन और भाईदूज जैसे त्योहारों के ज़रिये पुनर्वनीकरण गतिविधियों में सहायता की। मुटूरखाम के जंगल अब फलने-फूलने लगे हैं। जमुना की प्रेरणा से गांव में पैदा होने वाली हर बच्ची का स्वागत 18 पेड़ लगाकर और बहू का स्वागत 10 पेड़ लगाकर किया जाता है।
जमुना, महिला होने को कमज़ोरी नहीं ताकत समझती हैं। उनका मानना है कि एक महिला जितनी संवेदनशीलता और तल्लीनता के साथ काम करती है पुरुष वैसे काम नहीं कर सकते। उनका यह जंगल बचाओ अभियान भी महिलाओं द्वारा संचालित है। उनका कहना है कि महिलाएं ही भारत का भविष्य हैं इसीलिए उनका जागरूक होना ज़रूरी है।
जमुना का जंगल संरक्षण का यह सफ़र हमेशा कांटों से भरा रहा। इस दौरान उनके घरवालों ने भी उन पर बहुत पाबंदियां लगाईं। पेट्रोलिंग के दौरान वह जंगल माफिया से भिड़ जाती थीं और कई बार घायल होकर घर लौटतीं। उन्हें कई धमकियां मिलीं और उन पर जानलेवा हमले भी हुए। तस्करों ने उनके घर को तबाह कर दिया। एक दिन, माफियाओं द्वारा ट्रेन के ज़रिये की जा रही तस्करी की रिपोर्ट करने जब वह अपने पति और साथियों संग स्टेशन मास्टर के पास जा रही थीं उसी दौरान, स्टेशन के नुकीले पत्थरों से उन पर जानलेवा हमला किया गया, जिससे सभी को गंभीर चोट आई। लेकिन इन अनुभवों ने उन्हें और भी निडर बना दिया।
मिल चुके हैं कई सम्मान
जंगल के लिए अपना जीवन समर्पित करनेवाली जमुना टुडू को प्रदेश के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर के कई पुरस्कार मिल चुके हैं। क्लिप ब्रेवरी नेशनल अवार्ड, स्त्री शक्ति अवार्ड और वीमेन ट्रांसफार्मिंग इंडिया अवार्ड प्राप्त करने वाली जमुना टुडू 2016 में देश की प्रथम 100 महिलाओं में भी शामिल रही हैं। इसके साथ-साथ साल 2019 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री सम्मान से भी सम्मानित किया था। जमुना के जंगल बचाओ अभियान को लेकर उन पर कई डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बन चुकी हैं। अभी हाल ही में उनके जंगल रक्षा पर आधारित तस्वीरों को लेकर दिल्ली में एक अंतरराष्ट्रीय फोटो प्रदर्शनी भी आयोजित की गई थी।
जमुना कहती हैं, “ऐसे पुरस्कार और सम्मान मुझे कड़ी मेहनत करने के लिए प्रेरित करते हैं। हालांकि, एक ऐसी केंद्र सरकार जिसने पर्यावरण मंत्रालय को लगभग खत्म कर दिया है और एक राज्य सरकार जो वन संरक्षण पर खनन को प्राथमिकता देती है, उसके लिए ऐसे पुरस्कार का वास्तव में क्या अर्थ है? सरकार की ज़िम्मेदारी तमगा पकड़ा कर तो खत्म नहीं हो जाती है। उनकी बुनियादी ज़रूरत पर ध्यान देना भी तो सरकार का ही दायित्व है।” जमुना चाहती हैं कि सरकार उनकी इस पहल में शामिल होकर जंगलों को बचाने के लिए आगे आए। साथ ही वन सुरक्षा समिति में शामिल महिलाओं को सरकार की ओर से हर महीने आर्थिक मदद भी मिले ताकि इन महिलाओं का जंगलों के प्रति समर्पण बना रहे। लेकिन सरकार ने अब तक इस पर कोई खास तवज्जो नहीं दी है।
जंगल बचाओ अभियान देशभर में लागू करने की चाह
जमुना का एक सपना है कि जंगल बचाने का यह अभियान सिर्फ झारखंड तक ही सीमित न रहे बल्कि यह अभियान अब पूरे देश में फैले। लोगों को जंगल के बारे में जागरूक करना ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया है। उन्हें न किसी राजनीतिक लोगों का डर है, न ही जंगल माफियाओं और न ही किसी नक्सली संगठनों से खौफ है। वह हमेशा उन चुनौतियों के लिए तैयार रहती हैं।
जमुना टुडू उन्हीं साहसिक स्त्रियों में से एक हैं जिन्होंने पेड़ों और जंगल को बचाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की।आज वह समाज में अपनी जैसी दूसरी जमुना का निर्माण कर रही हैं। उनकी कहानी न केवल सतत विकास के लिए एक सीख है बल्कि आदिवासी सक्रियता और सिस्टरहुड की भावना को भी बढ़ावा देती है। जमुना को शायद इको फेमिनिज़म की किताबी परिभाषा के बारे न पता हो पर आज वह उसका एक मज़बूत उदाहरण जरूर बन गई हैं।
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