इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत ईको फेमिनिज़म का जीता-जागता उदाहरण है राजस्थान का पिपलांत्री गाँव 

ईको फेमिनिज़म का जीता-जागता उदाहरण है राजस्थान का पिपलांत्री गाँव 

ऐसे जल, जंगल, ज़मीन और बेटी की मुहीम से यहां 4 लाख के करीब पेड़ लग चुके हैं और बेटियों को बोझ मानने जैसी धारणा भी खत्म हो गई है। हरियाली बढ़ने के साथ यहां का जल स्तर भी काफ़ी बढ़ गया, लोगों को वन-आधारित रोज़गार मिला और पलायन भी रुका।

करीब 15 साल पहले, दक्षिणी राजस्थान के राजसमंद ज़िले में स्थित पिपलांत्री ग्राम पंचायत की भी हालत राजस्थान के अन्य गाँवों जैसी ही थी। बेरोज़गारी, पानी की कमी, बढ़ता मरूस्थलीकरण, कमज़ोर लिंगानुपात, औसत खेती और पशुओं के लिए चारे की कमी। वहां मार्बल की खानों की वजह से प्रदूषण बहुत बढ़ रहा था और मार्बल स्लरी के पहाड़ ज़मीन को बंजर कर रहे थे। इसके चलते बहुत लोग शहरों की तरफ जा रहे थे, रोज़गार के लिए या बदतर हवा से परेशान होकर। लेकिन आज इस गांव की सूरत बदल रही है। विश्वस्तर पर पिपलांत्री मॉडल प्रसिद्ध है, महिलाओं के बारे में गाँव की सोच सुधरी है, हरियाली और जल स्तर बढ़ा है और इसे ग्राम स्वराज के सफल प्रयोग के रूप में देखा जाता है। यह सब मुमकिन हुआ है यहां के पूर्व सरपंच श्याम सुंदर पालीवाल के विचार और ग्रामवासियों के अथक प्रयास और उनकी प्रतिबद्धता की वजह से।       

बदलाव की शुरुआत 

साल 2005 के पहले पिपलांत्री में पानी की समस्या बेहद गंभीर थी। जलस्तर बहुत नीचे जा रहा था जिसकी वजह से अनेक परिवार पलायन कर रहे थे। गाँव के आसपास सफ़ेद संगमरमर की बहुतायत में खानें थीं जिसकी वजह से ज़मीन ख़त्म हो रही थी। खनन प्रक्रिया के दौरान पैदा होनेवाली धूल से गांव की मिट्टी की गुणवत्ता खराब हो रही थी। वायु प्रदूषण से पेड़-पौधे और जल स्रोत भी दूषित हो रहे थे, जिससे पानी पीने या खेती में इस्तेमाल।

बाकी दुनिया की तरह निश्चित तौर पर पिपलांत्री में भी अभी बहुत पितृसत्ता से लड़ना शेष होगा लेकिन इसकी शुरुआत हो चुकी है। परिवर्तन की यह कहानी हमारे लिए उदाहरण है कि अगर हर गाँव और क़स्बा अपनी समस्याओं से यूं निपटना चाहे तो बहुत आसानी से बदलाव मुमकिन है।

साथ ही, समाज में कन्या भ्रूण हत्या, दहेज़ प्रथा और लैंगिक भेदभाव जैसी समस्याएं व्याप्त थीं। महिलाएं अधिकतर रोज़गार नहीं करती थी। इन परिस्थितियों के बीच जब साल 2005 में श्यामसुंदर सरपंच चुने गए तो उन्होंने इन समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश की। दरअसल, उनकी बेटी किरण की डिहाइड्रेशन से असामयिक मौत हो गई थी। उन्होंने अपनी बेटी की याद में वृक्षारोपण का कार्यक्रम किया। तब उन्हें ख़याल आया कि इस विचार से उन्हें पूरे गाँव को जोड़ना चाहिए। 

क्या है पिपलांत्री मॉडल?

पिपलांत्री में अब बच्चियों के जन्म को उत्सव के तौर पर मनाया जाता है और हर बेटी के जन्म पर 111 पेड़ लगाए जाते हैं। श्यामसुंदर का कहना है, “अगर हम इसे एक लड़की के नाम पर कर सकते हैं, तो हर लड़की के नाम पर क्यों नहीं?” वहां हर साल 60 के करीब बच्चियों का जन्म होता है। हालांकि, पेड़ लगाने का काम साल भर चलता है, लेकिन मानसून के मौसम में एक विशेष समारोह आयोजित किया जाता है। सभी ग्रामीण एक साथ मिलकर अपनी बेटियों के नाम पर पौधे लगाते हैं। इसके बाद, समस्त समुदाय सुनिश्चित करता है कि ये पेड़ जीवित रहें और लड़कियों के बड़े होने पर उनमें फल आने लगें। 

साथ ही एक शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं जिसमें लिखा होता है कि हमारे परिवार में कोई भी व्यक्ति भ्रूण हत्या नहीं करेगा, बाल विवाह नहीं करेगा और बेटी को शिक्षा से वंचित नहीं रखेगा। फिर लड़की के नाम पर उसकी उम्र 18 वर्ष होने तक 31,000 रुपए की एफडी करवाई जाती है जिसमें 10 हज़ार रुपए का योगदान परिजन देते हैं और शेष राशि ग्रामवासी इकट्ठा करते हैं या किरणनिधि के माध्यम से आती है। यह राशि 18 साल बाद लड़की की उच्च शिक्षा के लिए काम आ सकती है। रक्षाबंधन पर बच्चियां पेड़ों को राखी बाँधती हैं। उनका मानना है कि यह पेड़ उनके माँ-पिता ने उनके जन्म पर लगाया तो अब यह उनका भाई है और पेड़ ही असल में हम सब की रक्षा करते हैं। 

तस्वीर साभार: Village Square

बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार गाँव की एक महिला के 2 बेटे हैं पर वह अब पोती और नाती चाहती हैं। उनके मन में यह बदलाव पिपलांत्री में लड़कियों को मिलने वाली इज़्ज़त को देखकर हुआ। ऐसे जल, जंगल, ज़मीन और बेटी की मुहीम से यहां 4 लाख के करीब पेड़ लग चुके हैं और बेटियों को बोझ मानने जैसी धारणा भी खत्म हो गई है। हरियाली बढ़ने के साथ यहां का जल स्तर भी काफ़ी बढ़ गया, लोगों को वन-आधारित रोज़गार मिला और पलायन भी रुका।  

डंपयार्ड की जगह हरा-भरा जंगल 

अनियमित खनन के कारण वनों की कटाई, पर्यावरण क्षरण और वनस्पतियों और जीवों के प्राकृतिक आवास का नुकसान हुआ। पंचायत क्षेत्र से निकाले गए किसी भी सामग्री पर एक महज़ 1% रॉयल्टी के बदले में खदान ने पहले पंचायतों से 34 हेक्टेयर गाँव की आम संपत्ति पर कचरा डंप करने की अनुमति प्राप्त की थी। ग्राम सभा ने डंपिंग परमिट रद्द कर दिया और फर्म को संपत्ति खाली करने का आदेश दिया गया।

पिपलांत्री में अब बच्चियों के जन्म को उत्सव के तौर पर मनाया जाता है और हर बेटी के जन्म पर 111 पेड़ लगाए जाते हैं। वहां हर साल 60 के करीब बच्चियों का जन्म होता है। हालांकि, पेड़ लगाने का काम साल भर चलता है, लेकिन मानसून के मौसम में एक विशेष समारोह आयोजित किया जाता है। सभी ग्रामीण एक साथ मिलकर अपनी बेटियों के नाम पर पौधे लगाते हैं। इसके बाद, समस्त समुदाय सुनिश्चित करता है कि ये पेड़ जीवित रहें और लड़कियों के बड़े होने पर उनमें फल आने लगें। 

फिर गाँव में बंजर भूमि पर मिट्टी डाली गई और पेड़-पौधे लगाए गए। ऊपरी मिट्टी की एक नई परत ने इन डंप यार्डों को खेती के लिए उपयुक्त बना दिया। कुछ स्थलों पर गन्ने की खेती भी होती है। मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के तहत मजदूरों के रूप में काम करने के लिए पिपलांत्री से महिलाओं को मिलता है। साहापीडिया की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं ने अपने काम के घंटे और घरेलू काम करने के समय को संतुलित करना सीख लिया है। किसी ने सिर्फ इसलिए काम नहीं लिया क्योंकि उन्हें वेतन मिल रहा है। वे इस विचार में विश्वास करती हैं और एक टीम के रूप में काम करती हैं।

पिपलांत्री जहां केवल बंजर ज़मीन नज़र आती थी आज वहां जंगल उग आया है। यहां कई तरह के पक्षी आते हैं। वन्य जीवों के पानी पीने के लिए व्यवस्था की गई है। गांवावाले अब दोबारा प्रकृति के साथ चलने की कोशिश कर रहे हैं। गाँव में विभिन्न सरकारी योजनाओं के माध्यम से गड्ढे खोदना, तालाब बनाना, चेक-डैम बनाना जैसे काम किए गए ताकि बरसात के पानी को रोक कर पहाड़ी ज़मीन में नमी पैदा की जा सके।

महिलाओं को रोज़गार 

गांव में लगाए गए पेड़ों को दीमकों से बचाने के लिए परिधि पर एलोवेरा के पौधे लगाए गए हैं। आस-पास पड़े एलोवेरा के पौधों की संख्या ने महिलाओं के नेतृत्व वाली अन्य पहलों की शुरुआत की। 10 महिलाओं के एक समूह ने एलोवेरा का इस्तेमाल शैम्पू, जेल जैसे अलग-अलग उत्पादों के निर्माण के लिए किया। एक साल बाद, गाँव ने निर्मल ग्राम पंचायत पुरस्कार जीता और 5 लाख का नकद पुरस्कार इस उद्यम में डाला गया जिससे उत्पादन फलने-फूलने लगा। वनस्पति से अन्य उत्पादों को भी उसी तरह उपयोग में लाया गया। ऐसे महिलाओं को रोज़गार मिलने के साथ गाँव भी आत्म निर्भर हो गया।

अर्जेंटीना की एक टीम ने इस गांव के ऊपर ‘सिस्टर ऑफ़ द ट्री’ नामक डाक्यूमेंट्री भी बनाई है। संयुक्त राष्ट्र की टीम भी यहां का दौरा कर चुकी है। डेनमार्क में प्राथमिक कक्षा में यह कहानी पाठ्यक्रम में जोड़ दी गई है। राजस्थान बोर्ड में भी इसके बारे में पढ़ाया जा रहा है।  

यह काम किसी एक व्यक्ति द्वारा मुमकिन नहीं था इसलिए इस कोशिश में ग्राम सभाओं की भूमिका बढ़ गई। लोकतंत्र के प्रसार के साथ निर्णय लेने में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी। हालांकि, ग्रामसभा की बहुत तस्वीरों में महिलाएं घूंघट में हैं लेकिन उनकी मौजूदगी अपनेआप में एक बड़ा परिवर्तन है। गाँव में विद्यालयों की संख्या बढ़ी तो बालिका शिक्षा में भी इज़ाफ़ा हुआ।

तस्वीर साभार: Sahapedia

गाँव के नियुक्त एक शिक्षक के अनुसार, उन्हें नामांकन बढ़ाने कहीं जाना नहीं होता क्योंकि अधिकतर लोग अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देना चाहते हैं। रिंकू, गाँव की एक युवा बताती हैं कि हमारे बड़े होने के साथ लोगों की सोच बदल रही है। वे समझ रहे हैं कि बेटी भी बेटों के बराबर हैं। राजस्थान सरकार ने अब यहां एक प्रशिक्षण केंद्र खोल दिया है जहां देश-विदेश के विभिन्न अधिकारी और जन प्रतिनिधि सीखने आते हैं। अब पिपलांत्री एक पर्यटन ग्राम भी बन गया है। यहां रोज़ खूब सैलानी आते हैं। अर्जेंटीना की एक टीम ने इस गांव के ऊपर ‘सिस्टर ऑफ़ द ट्री‘ नामक डाक्यूमेंट्री भी बनाई है। संयुक्त राष्ट्र की टीम भी यहां का दौरा कर चुकी है। डेनमार्क में प्राथमिक कक्षा में यह कहानी पाठ्यक्रम में जोड़ दी गई है। राजस्थान बोर्ड में भी इसके बारे में पढ़ाया जा रहा है।  

बाकी दुनिया की तरह निश्चित तौर पर पिपलांत्री में भी अभी बहुत पितृसत्ता से लड़ना शेष होगा लेकिन इसकी शुरुआत हो चुकी है। परिवर्तन की यह कहानी हमारे लिए उदाहरण है कि अगर हर गाँव और क़स्बा अपनी समस्याओं से यूं निपटना चाहे तो बहुत आसानी से बदलाव मुमकिन है। शिक्षित होती आज़ाद लड़कियाँ, रोज़गार करती आत्मविश्वासी महिलाएं और प्राकृतिक संतुलन एक बेहतर दुनिया की उम्मीद है।   


स्रोत:

  1. SAHAPEDIA
  2. UNDP INDIA
  3. PRASAR BHARTI

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