दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपनी स्थापना के 100 साल पूरे कर लिए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के 100वें स्थापना वर्ष के समापन समारोह पर कहा कि यह सिर्फ एक विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि एक मूवमेंट है। अच्छी शिक्षा और एक बेहतर शैक्षणिक माहौल की तलाश में देश के तमाम कोने-कोने से विद्यार्थी इस संस्थान में पढ़ने का सपना देखते हैं। लेकिन कुछ ही लोग अपने सपनों के साथ यहां तक पहुंच जाते हैं। वहीं, विद्यार्थियों का एक बड़ा तबका दिल्ली आने से समझौता कर लेता है। समझौता इसलिए क्योंकि इन संस्थानों तक पहुंचने के पर्याप्त साधन वे नहीं जुटा पाते हैं। यहां संसाधन से मतलब सिर्फ मेरिट लिस्ट को पार करने तक नहीं बल्कि पूंजी से भी है। अच्छी और बेहतर शिक्षा हमारे मूल अधिकारों में शामिल है। लेकिन बेहतर शिक्षा तक सभी की पहुंच समान नहीं हैं। शिक्षा के क्षेत्र में ग्रामीण और शहरी बंटवारा साफ तौर पर देखा जा सकता है।
NAAC 2020 के आंकड़ों के मुताबिक राज्यों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के ग्रामीण कॉलेजों की रैंकिंग बेहद कम है। बुनियादी ढांचे, ई-लर्निंग आदि मापदंडों पर कॉलेजों का स्कोर बेहद खराब है। अधिकांश सरकारी कॉलेजों में पर्याप्त बुनियादी ढांचे और शैक्षणिक सहायता सुविधाएं नहीं हैं। मूल्यांकन किए गए कॉलेजों में से 98% से अधिक स्नातक महाविद्यालयों और 84% स्नातकोत्तर महाविद्यालयों ने सीखने के स्रोत के रूप में पुस्तकालय होने के मामले में 2.0 सीजीपीए से कम स्कोर प्राप्त किया। 47% से अधिक स्नातक महाविद्यालयों और 50% से अधिक स्नातकोत्तर महाविद्यालयों ने आईटी बुनियादी ढांचे में 2 सीजीपीए से कम स्कोर प्राप्त किया है।
शिक्षा के खराब स्तर के चलते ग्रामीण क्षेत्रों से आनेवाले विद्यार्थी बेहतर शिक्षा, शैक्षणिक माहौल और अवसरों की तलाश में दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों की तरफ एक उम्मीद से देखते हैं। शैक्षणिक संस्थान समाज की सबसे बेहतर जमा पूंजी होते हैं। इन सस्थानों की दीवारों के भीतर न सिर्फ डिग्रियां ली जाती हैं बल्कि देखे जाते हैं सपने, सपने बेहतर भविष्य और समाज के। लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि ये सपने एक विशेषाधिकार हैं जो हर किसी के पास नहीं। यह हमारे देश की विडम्बना है कि जहां हमारा संविधान सभी को समानता का अधिकार देता है वहीं हमारे शैक्षणिक संस्थान, कैंपस एक विशेषाधिकार बने बैठे हैं। विशेषाधिकार उन लोगों के हक में जो इन सस्थानों की मोटी फीस और महंगे हॉस्टल का का खर्च उठा सकते हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में दूसरे शहरों, गाँवों से आने वाले विद्यार्थियों के सामने सबसे बड़ी समस्या इस मंहगे शहर में एक रहने की जगह खोजने की होती है। आवास के लिहाज से स्टूडेंट्स कॉलेजों और यूनिवर्सिटी कैंपस में मौजूद हॉस्टल पर निर्भर रहते हैं। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस की स्थिति यह नहीं है। हाल यह है कि संस्थानों के पास पर्याप्त सुविधाएं नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय के कुल 91 कॉलेजों में से सिर्फ 20 कॉलेजों में ही हॉस्टल की सुविधा उपलब्ध है।
जहां स्नातक और परास्नातक कोर्स में पढ़नेवाले स्टूडेंट्स की कुल संख्या लगभग 2 लाख से अधिक है वहीं कुल हॉस्टल सीटों की संख्या 7 से 8 हजार तक ही सिमटी हुई है। जो हॉस्टल उपलब्ध हैं उनकी तरफ भी किसी खास उम्मीद से नहीं देखा जा सकता है। होस्टल में एडमिशन मेरिट लिस्ट के आधार पर होता है न कि विद्यार्थी की आर्थिक स्थिति के आधार पर। इसके अतिरिक्त जिन कॉलेजों में हॉस्टल उपलब्ध हैं वह एक मोटी फीस विद्यार्थियों से लेते हैं। होस्टल का न्यूनतम महीने का खर्च 12 से 13 हजार रुपये है।
सरकार लगातार शैक्षणिक संस्थानों से अपने हाथ खींच रही है और नतीजा है पूंजीवाद, जिसके चलते कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और उनके होस्टल की फीस आसमान छू रही है। हिंदू कॉलेज के गर्ल्स हॉस्टल की छात्रा सुषमा बताती हैं कि हॉस्टल के प्राइवेटाइज होने के कारण अन्य कॉलेजों के मुकाबले उनका हॉस्टल चार्ज बेहद अधिक है। महीने के हिसाब से आंकलन किया जाए तो 17 से 18 हजार रुपये का भुगतान उन्हें हर महीने करना पड़ता है। इसके अलावा कॉलेज में बॉयज हॉस्टल की सुविधा तो उपलब्ध है पर हॉस्टल के गेट पर ताले लगे हैं। रिनोवेशन न होने के कारण कोविड के बाद से हॉस्टल नहीं खुल पाया है। हिंदू कॉलेज NIRF की रैंक के हिसाब से देश का दूसरा सर्वश्रेष्ठ कॉलेज है।
हरियाणा की रहने वाली प्रियंका ने साल 2020 में अपने गांव के सरकारी स्कूल से बारहवीं की परीक्षा पूरी की। वह कहती हैं कि वह अपने दोस्तों के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे अच्छे संस्थान से अपना ग्रेजुएशन करना चाहती थी पर आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण उनका परिवार दिल्ली में रहने का खर्च नहीं जुटा सकता था। इसलिए बारहवीं कक्षा में अच्छे नंबर होने के बावजूद भी वह दिल्ली विश्वविद्यालय तक नहीं पहुंच पाई।
ऊंची फीस और हॉस्टलों की कमी के कारण स्टूडेंट्स को प्राइवेट हॉस्टल , पीजी और किराये के कमरों पर निर्भर रहना पड़ता है। हंसराज कॉलेज से इतिहास में ग्रैजुएशन कर चुकी आयुषी कहती हैं कि कैंपस के आस-पास रहने की जगह तलाश करना एक चुनौती है। एडमिशन के बाद महीनों सिर्फ एक सस्ता आवास खोजने में निकल जाते हैं। कैंपस के आसपास पीजी और हॉस्टल के रूप में बिजनेस हाउस खुले हुए हैं। इनका एक मात्र उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना है। नॉर्थ कैंपस के विजयनगर, कमलानगर और मल्कागंज में अधिकतर स्टूडेंट्स आवास की तलाश करते है। इन जगहों पर रहने के लिए उन्हें कम से कम 10 हजार रुपये महीना खर्च उठाना पड़ता है। जो इतना खर्च नहीं उठा सकते हैं वे कैंपस से दूर आवास की तलाश करते हैं।
लेकिन कैंपस से दूर रहना भी खर्च में कोई विशेष अंतर नहीं लाता है। बल्कि कैंपस से दूर रहने के कारण बस और मेट्रो के सफर की परेशानियां और जुड़ जाती हैं। इस तरह से कैंपस में मेरिट लिस्ट के संघर्ष के साथ पूंजी का संघर्ष भी एक आम बात हो गई है। हालांकि, कैंपस में रहने और सर्वाइव करने के मायने सबके लिए समान नहीं है। कैंपस में स्टूडेंट्स के अलग-अलग वर्ग देखे जा सकते हैं। एक वर्ग वह है जिसके लिए हॉस्टल या रहने की जगह खोजना कोई संघर्ष नहीं है। दूसरी तरफ वे स्टूडेंट्स है जो एडमिशन के संघर्ष को तो पार कर लेते हैं पर कैंपस में रहने के संघर्ष को नहीं। इसी कारण कैंपस लगातार सिर्फ इलीट लोगों का केन्द्र बनकर रह गए हैं।
हरियाणा की रहने वाली प्रियंका ने साल 2020 में अपने गांव के सरकारी स्कूल से बारहवीं की परीक्षा पूरी की। वह कहती हैं कि वह अपने दोस्तों के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे अच्छे संस्थान से अपना ग्रैजुएशन करना चाहती थी पर आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण उनका परिवार दिल्ली में रहने का खर्च नहीं जुटा सकता था। इसलिए बारहवीं कक्षा में अच्छे नंबर होने के बावजूद भी वह दिल्ली विश्वविद्यालय तक नहीं पहुंच पाई।
पल्लवी एसआरसीसी कॉलेज से इकॉनमिक्स में ग्रैजुएशन कर चुकी हैं। वह बताती हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए उनके परिवार के लिए पीजी में रहने का खर्च उठाना काफी चुनौती भरा रहा है। पल्लवी के पिता किसान हैं और वह अपने परिवार से कॉलेज तक की पढ़ाई का सफर तय करनेवाली पहली लड़की हैं। वह एमए की पढ़ाई के लिए जेएनयू में एडमिशन लेना चाहती हैं। अब उसके परिवार के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय या किसी अन्य कैंपस में रहने का खर्चा उठा पाना संभव नहीं है। संसाधनों की कमी के चलते किसान, मज़दूरों के बच्चें इन कैंपस तक का सफर तय नहीं कर पाते हैं। जो किसी तरह व्यवस्था को चुनौती देते हुए यहां तक पहुंचते हैं उनके सामने मेरिट लिस्ट और आवास का दोहरा संघर्ष हमेशा चलता रहता है।
हिंदू में बतौर प्रोफेसर कार्यरत जगदीश चंदेर का कहना है कि शैक्षणिक संस्थानों के एडमिशन और हॉस्टल की बढ़ती हुई फीस शिक्षा के प्राइवेटाइज़ होने का परिणाम है। भारत में उच्च शिक्षा के सब्सिडाइज़ होने का पैटर्न रहा है जिसके कारण हाशिये से आनेवाले विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा को अफोर्ड करना संभव होता था। हालांकि, पिछले 8-7 सालों में शिक्षा के क्षेत्र विशेष तौर पर उच्च शिक्षा में भारी प्राइवेटाइजेशन देखा जा सकता है। एक तरफ प्राइवेट यूनिवर्सिटीज खुल रही है वहीं दिल्ली यूनिवर्सिटी जैसे सरकारी संस्थानों में फीस बढ़ती जा रही है।आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों की मदद के लिए यूनिवर्सिटी की तरफ से स्कॉलरशिप की कोई विशेष सुविधा नहीं है।
वह आगे कहते हैं कि सरकार स्वास्थ्य और शिक्षा विशेष तौर पर उच्च शिक्षा से अपनी प्राथमिकताएं कम कर रही है। बेहतर शिक्षा के नाम पर शैक्षणिक संस्थानों का निजीकरण हो रहा है जिसका सीधा परिणाम होगा है कि ग्रामीण क्षेत्रों और गरीब परिवारों से आने वाले बच्चों की उच्च शिक्षा तक पहुंच बहुत सीमित हो जाएगी। दिल्ली विश्वविद्यालय में हमेशा से विद्यार्थियों के लिए आवास की समस्या रही है। इसका विद्यार्थी लंबे समय से विरोध भी करते रहे हैं पर प्रशासन के तरफ से कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। कॉलेजों की एडमिशन फीस और हॉस्टल की फीस पिछले कुछ समय से बहुत अधिक बढ़ी है। हॉस्टल की सुविधा बहुत सीमित है। जो हॉस्टल उपलब्ध हैं उनकी फीस इतनी अधिक है कि गरीब बच्चे इन्हें अफोर्ड नहीं कर सकते हैं। ये सब शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी खर्च में कटौती और निजीकरण का सीधा असर है।
ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब परिवारों से आने वाले पल्लवी जैसे विद्यार्थी जेएनयू जैसे संस्थानों को एक उम्मीद की तरह देखते हैं। हालांकि साल 2020 में जब जेएनयू के हॉस्टल फीस में 300% बढ़ोत्तरी के विरोध में प्रदर्शन किए गए तो ऐसे ही स्टूडेंट्स के लिए ‘मुफ्तखोर, टैक्स का पैसा बर्बाद करने वाले’ आदि नैरेटिव फैलाए गए। सरकार शिक्षा पर खर्च को कम कर रही है। जीडीपी का कुल 2.9% शिक्षा पर खर्च किया जा रहा है। आर्थिक सर्वे 2022-23 के हिसाब से पिछले सात सालों में शिक्षा पर खर्च, कुल खर्च के 10.4% से 9.5% तक कम हुआ है। संस्थानों की फीस में बढ़ोत्तरी हो रही है और उन्हें प्राइवेटाइज किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में ‘सबका साथ, सबका विकास’ का सार्थक होना बहुत मुश्किल है।
यूनिवर्सिटी कैंपस में रहने की समस्या, पीजी और प्राइवेट हॉस्टल के बढ़ते हुए किराये को देखते हुए कई बार यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स ने ‘आवास का अधिकार आंदोलन‘ भी शुरू किया है। इन आंदोलनों के ज़रिये विद्यार्थियों ने ‘दिल्ली रेंट एक्ट 1995‘ को सही प्रकार से लागू करने की मांग रखी ताकि कैंपस में रहने वाले विद्यार्थियों से मनमाने किराए न वसूले जाएं। लेकिन अभी तक सरकार और संस्थान की तरफ से कोई भी विशेष सकारात्मक कदम नहीं उठाए गए हैं। ये उस विश्वविद्यालय के कैंपस का हाल है जिसे प्रधानमंत्री मोदी एक ‘मूवमेंट’ बताते हैं और जिसकी गिनती देश के सबसे बड़े और सर्वोच्च शैक्षणिक संस्थानों में होती है। क्या देश के सर्वोच्च संस्थान के पास विद्यार्थियों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है? अगर देश के सबसे बड़े कैंपस की यह स्थिति है तो अन्य शैक्षणिक संस्थानों की तरफ किस उम्मीद से देखा जा सकता है।