समाजकैंपस संघर्ष की अलग-अलग परतों से होकर अपनी पहचान बनाते हैं फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर

संघर्ष की अलग-अलग परतों से होकर अपनी पहचान बनाते हैं फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर

फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर या पहली पीढ़ी होना कोई आम बात नहीं होती। यह आपकी दुनिया के उस सत्य को बदल देती है जो आप जी रहे होते हैं या उस से बाहर निकल रहे होते हैं।

आज भले ही मैं अपनी घर की पहली पोस्ट ग्रेजुएट लड़की बनी हूं या फिर कह सकते हैं कि घर की पहली पढ़ी- लिखी लड़की, लेकिन यह सफ़र मेरे लिए आसान नहीं था। खुद को शिक्षित करने के सफ़र में, एक पढ़ा-लिखा इंसान बनने के लिए कई स्तरों पर बहुत संघर्ष करना पड़ा। मुझे आज भी याद है वह समय जब मेरे पापा स्कूल के गेट बाहर मेरा इंतज़ार करते थे और अक्सर यही कहते, “बचपन से मैं स्कूल जाना चाहत था लेकिन हमेशा के गेट के बाहर ही रहा।” घर के हालात ने उन्हें स्कूल के अंदर जाने न दिया लेकिन मुझे स्कूल के गेट के अंदर जाता देख वह बहुत खुश होते थे। लेकिन इस गेट के अंदर की कहानी उस बाहर की कहानी से अलग थी। भले ही हम स्कूल और कॉलेज के गेट अंदर आ गए लेकिन दुनिया संघर्षों से कम नहीं थी।

फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर या पहली पीढ़ी होना कोई आम बात नहीं होती। यह आपकी दुनिया के उस सत्य को बदल देती है जो आप जी रहे होते हैं या उस से बाहर निकल रहे होते हैं। फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर वह होता जिसके पहले किसी भी पीढ़ी में किसी ने स्नातक (ग्रेजुएशन) की पढ़ाई पूरी की हो। आसान शब्दों में कहे तो जिसके परिवार के किसी व्यक्ति ने यह डिग्री प्राप्त न की हो। लेकिन जब परिवार का कोई एक पढ़ा-लिखा निकल जाए जिसने अपनी ग्रेजुएशन की हो उसे हम फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर कहते हैं।

फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर या पहली पीढ़ी के कॉलेज के छात्र अक्सर कॉलेज के माहौल में बेहतर करने के लिए अत्यधिक प्रेरित और उत्सुक होते हैं, लेकिन यह आसान नहीं होता है। बतौर फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर आपको कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ सकता है। जैसे कि कॉलेज में जगह बनाने के लिए आप अपने परिवार में पहले व्यक्ति के रूप में उत्कृष्टता प्राप्त करने का दबाव महसूस कर सकते हैं।

आपको अपने साथियों से संबंध बनाने में कठिनाई होती है जो कॉलेज के प्रथम पीढ़ी के छात्र होने के अनुभव को साझा नहीं करते हैं। आपको विश्वविद्यालय जीवन के अनकहे सांस्कृतिक मानदंडों और अपेक्षाओं को सीखना पड़ सकता है जिनसे आप अनभिज्ञ रहते हैं। 

कभी-कभी आपको अपने दोस्तों और परिवार को कॉलेज जीवन की मांगों और कठोरता के बारे में लगातार समझाना पड़ सकता है कि आप आख़िर क्या कर रहे हैं। साथ ही जब आप पढ़ते हैं तो आपको किन चीजों की ज़रूरत होती है और क्यों होती है। कभी-कभी तैयारियों की कमी होती है कि आपको क्या करना है कैसे पढ़ना या कैसे एडमिशन लेना है जिसकी प्रक्रिया में आप जूझते रहते हैं। सलाह या मार्गदर्शन के लिए किसी का न होना।

बात जब जाति, वर्ग, जेंडर के आधार पर हाशिये पर रहनेवालों की बात करें तो फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर का संघर्ष दोगुना हो जाता है। जब मैं कॉलेज में पढ़ रही थी तब मुझे सिर्फ़ कई बातों का सामना करना पड़ा था। कभी जाति, तो कभी वर्ग तो कभी लड़की होने की वजह से दोगुना संघर्ष मेरे हिस्से आया। मुझे आज भी याद जब स्कूल में थी तो हमारे साथ जाति के आधार पर छुआछूत का व्यवहार किया जाता था जो कि मैंने अपने पिछले लेखों में भी लिखा है। लेकिन जब जैसे-तैसे बारहवीं की तो जीवन दुविधाओं से भर गया। जहां सभी कॉलेज जाने के सपने देखते, हम यह सोचते कि कॉलेज होता क्या है। कैसे जाना होगा, पैसे कौन देगा घर से दूर हुआ तो कौन जाने। 

बतौर फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर आपको कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ सकता है। जैसे कि कॉलेज में जगह बनाने के लिए आप अपने परिवार में पहले व्यक्ति के रूप में उत्कृष्टता प्राप्त करने का दबाव महसूस कर सकते हैं।

इन सवालों से लड़कर जब कॉलेज के दरवाजे़ खुले तो वहां पढ़ाने वाला कोई नहीं। वहां भी यही सवाल पूछे गए कि क्या कर लोगे पढ़-लिख कर। इतना ही नहीं साल की तीन हजार रुपये फीस भरने के बाद भी न कोई किताबों के बारे में बताता, न ही आख़िर पढ़ना क्या यह समझता। कौन सी दुनिया में आ गए हैं कुछ समझ नहीं आता था। कभी घरवाले कुछ कहते तो कभी कॉलेज वाले। यह सब सुनने के बाद घर के कामों की ज़िम्मेदारी, पैसे कमाने के लिए मिठाई के डब्बे बनाने की ज़िम्मेदारी और दिन के आखिर में हर बार वही सवाल किया जाता- पढ़-लिखकर क्या करोगी?

जैसे-तैसे कर हमें डिग्री मिली। स्नातक में मुझे 43℅ अंक आए। इसके बाद एक और संघर्ष शुरू हुआ  जब मेरा एडमिशन हुआ दिल्ली की आंबेडकर यूनिवर्सिटी में। इस यूनिवर्सिटी की दुनिया मेरी दुनिया से बहुत अलग थी। दिल्ली की एक ऐसे जगह से आनेवाली लड़की जिसे हम ‘झुग्गी- झोपड़ी’ कहते हैं जिसके खानदान मे भी कभी कॉलेज का मुंह नहीं देखा था वह वहां पढ़ने लगी। घर की पहली लड़की जो रेगुलर कॉलेज में गई। लेकिन कॉलेज जाना और पढ़ाई पूरी करना दो अलग-अलग बातें हैं।

बात जब जाति, वर्ग, जेंडर के आधार पर हाशिये पर रहनेवालों की बात करें तो फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर का संघर्ष दोगुना हो जाता है। जब मैं कॉलेज में पढ़ रही थी तब मुझे सिर्फ़ कई बातों का सामना करना पड़ा था। कभी जाति, तो कभी वर्ग तो कभी लड़की होने की वजह से दोगुना संघर्ष मेरे हिस्से आया।

समाज वाले कहते थे कि क्या कर लेगी पढ़कर, पढ़कर मेरा परिवार लड़की की कमाई खाएगा,  ऐसी बहुत सी बातें कही गईं ताकि मैं पढ़ने न जाऊं लेकिन मैं फिर भी गई। लेकिन कॉलेज का माहौल बहुत ही अलग था। एक लड़की जिसने कभी कंप्यूटर सिर्फ़ बाहर से खड़े देखा था आज उसे वह उसके सामने बैठी थी। हिंदी पढ़ना-लिखना और बोलना आता था लेकिन कॉलेज में इंग्लिश में लिखना और बोलना होता था जिसकी वजह से मैं हमेशा चुप रहने लगी। अपने आसपास के लोगों से डरने लगी। वे जिस वर्ग से आते थे उन्हें हमेशा हमने अपने साथ भेदभाव करते देखा था, आज उनके साथ बैठकर मैं पढ़ रही थी।

जब कॉलेज की फीस भरने की बात होती तो पापा कभी-कभी मदद कर देते लेकिन उससे घर की आर्थिक स्थिति और बिगड़ जाती और मम्मी फिर मुझे ताने देती थीं। इन सब परिस्थितियों के बीच में अपनी पढ़ाई करना और असाइनमेंट बनाना एक दूसरे संघर्ष से कम नहीं था। कॉलेज में भी लोग बहुत तरह के ताने देते। कभी कोटा का नाम देते तो कभी मेरी हिंदी का मज़ाक उड़ाते। लेकिन कुछ लोग मेरी मेहनत देख पाए और उन्होंने पढ़ाई में भी मेरी खूब मदद की। कॉलेज के पूरे दो साल मैंने जो संघर्ष झेला, कभी-कभी लगता था कि बीच में ही पढ़ाई छोड़ दूं। लेकिन इस डिग्री के लिए इतना कुछ सहा था तो थोड़ी और हिम्मत की। ऐसा करके मैंने अपनी पढाई पूरी की। 

लेकिन बतौर फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर बहुत से सवाल आज भी मेरे मन में हैं। पहला होना आसान नहीं होता। आज भले ही लोग मेरी इस कहानी की सराहना करें लेकिन हमारे जातिवादी समाज में बहुत कमियां हैं जिसमें आप या तो आप पढ़ सकते हैं या लड़ सकते हैं। जो भी कॉलेज में हुआ, मैंने झेला लेकिन कितने तो ऐसे हैं जो हार मान लेते हैं। उनसे कभी नहीं पूछा जाता कि आखिर उन्हें क्यों अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। पहल करना आसान नहीं या वह पहली पीढ़ी बनना आसान नहीं। ऐसे में हाशिये की पहचान से आने वाले इन लोगों की पहल को आसान बनाने की कोई कोशिश क्यों नहीं की जाती।


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